धर्म-सुधार तथा इसके लिए कार्य करने वाले पुरुष - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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सत्य के लिए गढ़: मार्टिन लूथर
22 नवम्बर 2022
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धर्म-सुधार तथा इसके लिए कार्य करने वाले पुरुष

प्रोटेस्टेन्ट धर्म-सुधार कलीसिया के जन्म और आरम्भिक विस्तार के समय से ही अति व्यापक, विश्व-परिवर्तनकारी परमेश्वर के अनुग्रह को प्रदर्शित करने के रूप में खड़ा है। यह एकल कार्य नहीं था और न ही यह किसी एक पुरुष द्वारा किया गया कार्य था। इतिहास परिवर्तित कर देने वाले इस आन्दोलन के परिणाम कई दशकों तक विभिन्न स्तरों पर दिखाई दिए। इसका संचयमान प्रभाव यद्यपि बहुत बड़ा था। एक प्रसिद्ध इतिहासकार, फिलिप शेफ़ लिखते हैं: 

सोलहवीं शताब्दी का धर्म-सुधार आगामी मसीहियत के परिचय हेतु इतिहास की महान घटना है। यह मध्यकाल के अन्त तथा आधुनिक समय के आरम्भ को  चिन्हित करता है। धर्म से आरम्भ करें तो, प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से इसने आगे बढ़ने वाले उस प्रत्येक आन्दोलन को एक सामर्थी आवेग प्रदान किया है तथा इसने आधुनिक सभ्यता के इतिहास में  प्रोटेस्टैन्टवाद को प्रेरित करने वाला प्रमुख बल बना दिया है।” धर्म-सुधारवाद के केन्द्र में यीशु ख्रीष्ट के सच्चे सुसमाचार की पुनःप्राप्ति थी, और इस पुनःस्थापना का अद्वितीय प्रभाव कलीसियाओं पर, राष्ट्रों पर, और पाश्चात्य सभ्यता के बहाव पर पड़ा था। 

परमेश्वर के निर्देशकारी हाथ के नीचे, संसार का दृष्य अनोखे रूप से धर्म-सुधार के लिए तैयार किया गया था। कलीसिया को एक बड़े स्तर पर सुधार की आवश्यकता थी। आत्मिक अन्धकार का मानवीकरण रोमन कैथोलिक कलीसिया के रूप में हुआ। बाइबल एक बन्द पुस्तक थी। आत्मिक अज्ञानता लोगों के मनों में शासन कर रही थी। सुसमाचार दूषित हो चुका था। कलीसियाई परम्पराओं ने ईश्वरीय सत्य को पछाड़ दिया था। व्यक्तिगत पवित्रता त्याग दी गई थी। मानव निर्मित परम्पराओं की सड़ी दुर्गन्ध ने पोप और पादरी को ढक दिया था। अभक्ति के भ्रष्टाचार ने सिद्धान्त (dogma) और परम्परा दोनों को दूषित कर दिया था।

दूसरी ओर एक नये दिन का उदय हो रहा था। सामंती राज्य (Feudal states) राजनीतिक राज्यों (nation-states) को मार्ग दे रहे थे। खोज (Exploration) का विस्तार हो रहा था। क्रिस्टोफ़र कोलम्बस ने 1492 में एक नये संसार को खोज लिया था। व्यापार के मार्ग खुल रहे थे। मध्यम वर्ग उन्नति कर रहा था। सीखने के अवसर बढ़ रहे थे। ज्ञान की गुणात्मक वृद्धि हो रही थी। जोहान्स गुटनबर्ग द्वारा किये गए मुद्रण यन्त्र (printing press) के अविष्कार ने विचारों के प्रसार में बड़ा सुधार किया। इन सभी प्रभावों के नीचे एक नवचेतना अपने शीर्ष पर थी। इसके अतिरिक्ति, एक अन्य परिवर्तन का कार्य सोलहवीं शताब्दी के प्रोटेस्टेन्ट धर्म-सुधारकों द्वारा विश्व के पटल पर अति शीघ्र ही दिखाई देने वाला था, जो कि महान परिवर्तन ले कर आने वाले थे विशेष रूप से यीशु ख्रीष्ट की कलीसिया में। 

इस नाटकीय उथल-पुथल के प्रकाश में कुछ निश्चित प्रश्नों का पूछा जाना अनिवार्य है; वे कौन से कारण हैं जिन्होंने प्रोटेस्टेन्ट धर्म-सुधार के मार्ग में अगुवाई की? धर्म-सुधार का आरम्भ कहाँ हुआ था? यह शक्तिशाली आन्दोलन कैसे घटित हुआ? इसका विस्तार कहाँ हुआ था? इसकी आग को प्रज्जवलित करने वाले मुख्य अगुवे कौन थे? इस समय कौन से बाइबलीय सत्यों को संसार के सामने प्रभावशाली रीति से प्रकट किया गया? इन प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ करते समय, हमें अवश्य ही विश्वास के उन योद्धाओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिन्होंने धर्म-सुधार में अगुवाई की थी। 

राजसी धर्म-सुधारक ( Magisterial Reformers)

सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में, परमेश्वर ने अनेक साहसी अगुवों को खड़ा किया जिन्हें इतिहास में धर्म-सुधारकों के रूप में जाना जाता है। कलीसिया में पहले भी धर्म-सुधारक थे, किन्तु जो लोग इस विशेष समय अवधि में थे वे पहले की तुलना में सर्वोत्तम रूप से शिक्षित, सर्वाधिक ईश्वरभक्त, तथा अत्यधिक विश्वासयोग्य धर्म-सुधारक थे जिन्हें कलीसिया ने कभी देखा था। ये पुरुष पवित्रशास्त्र से ओत-प्रोत थे और विरोध के बाद भी ये अद्भुत साहस के लिए प्रख्यात थे। और वे सत्य के प्रति तथा ख्रीष्ट की कलीसिया के प्रति प्रेम की इस गम्भीर कायलता से इतना प्रोत्साहित थे जिसने उन्हें इसके अनन्त स्तर की ओर पुनः लाने का प्रयास करने के लिए प्रेरित किया। साधारण रीति से कहें तो वे इस बात को देखना चाहते थे कि परमेश्वर के लोग पवित्रशास्त्र अनुसार उसकी आराधना करें। ये पुरुष अन्धकार भरे दिन में चमकने वाली ज्योति के समान थे।

इतिहासकार स्टीफन निकोल्स के अनुसार “धर्म-सुधारकों ने स्वयं को अविष्कारकों, खोजकर्ताओं, या निर्माताओं के रूप में नहीं देखा”। “इसके विपरीत उन्होंने अपने प्रयासों को पुनः खोज के रूप में देखा। वे आरम्भ से कुछ बनाने का प्रयास नहीं कर रहे थे किन्तु जो कुछ मृतक हो गया था उसको पुन:जीवित कर रहे थे। उन्होंने बाइबल को तथा प्रेरितों के युग को पुनः देखा, इसके साथ ही अगस्तीन (354-430) जैसे आरम्भिक कलीसियाई पिताओं को भी उस सांचे के रूप में देखा जिससे कि वे कलीसिया को वैसे ही आकार दे सकें और उसको पुनः बना सकें। धर्म-सुधारकों की एक कहावत थी, ‘एक्लेसिया रिफॉर्मटा, सेम्पर रिफॉर्मन्डा’ जिसका अर्थ है ‘धर्म-सुधार की गई कलीसिया का, सदैव धर्म-सुधार चलता रहता है’”

राजसी धर्म-सुधारकों को ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनके धर्म-सुधार के कार्य कम से कम किसी न किसी प्रशासनिक अधिकारी, या न्यायाधीशों के द्वारा समर्थित किए जा रहे थे, और वे यह विश्वास करते थे कि सभी अधिकारियों को इस विश्वास को लागू करना चाहिए। इस शब्दावली का उपयोग इनके बीच में तथा क्रान्तिकारी धर्म-सुधारकों (radical reformers) (एनाबैप्टिस्ट) के बीच में भिन्नता दिखाने के लिए किया जाता था, जिनके कार्य राजकीय रूप से समर्थित नहीं थे। धर्म-सुधारकों को भी “अधिकारी” (magisterial) कहा जाता था क्योंकि मैजिस्टर (magister) शब्द का अर्थ “शिक्षक” भी हो सकता है, और राजसी धर्म-सुधार दृढ़ता पूर्वक शिक्षकों के अधिकार पर बल देता है। 

केवल पवित्रशास्त्र

समय के साथ ही, धर्म-सुधार का सन्देश पाँच प्रचार वाक्यों में सारांशित हो गया जिसे धर्म-सुधार के सोला (solas) के रूप में जाना जाता है: सोला स्क्रिपचुरा (“केवल पवित्रशास्त्र”), सोलुस ख्रिष्तुस (“केवल ख्रीष्ट”), सोला ग्रेशिया (“केवल अनुग्रह”), सोला फीडे (“केवल विश्वास”), और सोली डेओ ग्लोरिया (“केवल परमेश्वर की महिमा”)। इनमें से पहला सोला जो कि सोला स्क्रिप्चुरा है वही इस आन्दोलन को परिभाषित करने वाला चिन्ह है। 

आत्मिक अधिकार के मात्र तीन ही रूप सम्भव हैं। पहला, अधिकार प्रभु और उसके लिखित वचन का है। दूसरा, अधिकार कलीसिया और उसके अगुवों का है। तीसरा, केवल मानवीय तर्क का है। जब धर्म-सुधारकों ने कहा “केवल पवित्रशास्त्र,” तो वे अपने समर्पण को परमेश्वर के अधिकार मे व्यक्त कर रहे थे जिस रीति से वह बाइबल में अभिव्यक्त किया गया है। जेम्स मोंटगोमरी बोइस अपने मूल विश्वास को बताते हैं: “केवल बाइबल ही हमारा अन्तिम अधिकार है — पोप नहीं, कलीसिया नहीं, न ही कलीसिया की परम्पराएं अथवा कलीसिया की परिषदें/सभाएं, उससे भी कम व्यक्तिगत सूचनाएँ अथवा व्यक्तिनिष्ठ भावनाएं, परन्तु केवल पवित्रशास्त्र”। धर्म-सुधार एक रीति से संकट था जिस पर अधिकार की प्रधानता होनी चाहिए थी। रोम ने इस बात का दावा किया कि कलीसियाई अधिकार पवित्रशास्त्र और परम्पराओं, पवित्रशास्त्र और पोप, पवित्रशास्त्र और कलीसिया की परिषदों के पास है। किन्तु धर्म-सुधारक इस बात पर विश्वास करते थे कि अधिकार केवल  पवित्रशास्त्र (Scripture alone) के पास है।

शैफ लिखते हैं: जबकि मानवतावादी प्राचीन ग्रन्थों की ओर वापस गए और रोमी तथा यूनानी मूर्तिपूजा की भावना को पुनःजीवित किया, धर्मसुधारक मूल भाषा में लिखित पवित्रशास्त्र की ओर गए तथा प्रेरितीय मसीहियत की भावना को पुनःजीवित किया। वे सुसमाचार के लिए उस उत्साह से भरे हुए थे, जो पौलुस के दिनों के बाद कभी जाना नहीं गया था। ख्रीष्ट मानवीय परम्पराओं की कब्र से जी उठा और फिर से जीवन और सामर्थ्य के अपने वचनों का प्रचार किया। बाइबल जो पहले केवल पादरियों की पुस्तक थी, अब पहले से कहीं अधिक उत्तम और नई रीति से यूरोप की भाषाओं में अनुवाद की गई तथा उसे लोगों की पुस्तक बना दिया गया। अब प्रत्येक मसीही व्यक्ति प्रेरणा के स्रोत के पास जा सकता है, और ईश्वरीय शिक्षक के चरणों में बिना किसी पादरी की अनुमति और हस्तक्षेप के बैठ सकता है।”

सम्प्रभु अनुग्रह का सोता

केवल पवित्रशास्त्र के प्रति समर्पण ने अनुग्रह के सिद्धान्त की पुनः प्राप्ति की ओर ले गया। कभी भी बाइबल की ओर पुनः आना अटल रूप से स्वतः ही बचाने वाले अनुग्रह में परमेश्वर की सार्वभौमिकता के सत्य की ओर ले जाता है। चार अन्य सोला—सोलुस ख्रिस्तुस, सोला ग्रेशिया, सोला फीडे, तथा सोली डेओ ग्लोरियासोला स्क्रिप्चुरा से निकलकर आते हैं। 

पहला धर्म-सुधारक एक अगस्तीनी मठवासी (monk) था, जिसने 31 अक्टूबर 1517 को जर्मनी के विटनबर्ग में कैसल कलीसिया के द्वार पर दण्डमुक्ति (indulgences) पत्र बेचने की रोमन कैथोलिक प्रथा के विरोध में पंचानवे शोधों को कीलों से जड़ दिया था, जो। उसका नाम मार्टिन लूथर था (1883-1546)। लकड़ी के हथौड़े से एक मठवासी द्वारा किए गए साहसिक कार्य ने धर्म-सुधार का आरम्भ किया। अन्य धर्म-सुधारकों ने भी इसका अनुसरण किया, जैसे कि उलरिख ज़्विंगली (1484-1531), ह्यूग लैटिमर (1487-1555), मार्टिन बुसर (1491-1551), विलियम टिंडेल (1494-1536), फिलिप मेलानकथन (1497-1560), जॉन रोजर्स (1500-1555), हेनरिक बुलिंगर (1504-1575), और जॉन कैल्विन (1509-1564)। एक व्यक्ति के लिए, वे पवित्रशास्त्र के सत्यों और सम्प्रभु अनुग्रह के प्रति दृढ़तापूर्वक समर्पित थे। 

  • धर्म-सुधार तथा इसके लिए कार्य करने वाले पुरुष
  • सत्य के लिए गढ़: मार्टिन लूथर
  • ज़्यूरिक की क्रान्ति: उलरिख ज़्विंग्ली
  • अनुवादकों का राजकुमार: विलियम टिन्डेल
  • वाचाई ईश्वरविज्ञानी: हेनरिक बुलिंगर
  • युगों के लिए ईश्वरविज्ञानी: जॉन कैल्विन
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।
स्टीवन जे. लॉसन
स्टीवन जे. लॉसन
डॉ. स्टीवन जे. लॉसन वनपैशन मिनिस्ट्रीज़ के अध्यक्ष और संस्थापक हैं, जो लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के एक सह शिक्षक हैं, और कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें, फाउंडेशन ऑफ ग्रेस और द मूमेन्ट ऑफ ट्रूथ सम्मिलित है।