सांसारिक सफलता - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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सांसारिक सफलता

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का दूसरा अध्याय है: सफलता

“निश्चित रूप से वह परिणाम नहीं जिसकी आप ऐसे व्यक्ति से अपेक्षा करते हैं जिसने हाई स्कूल में ‘सफल होने की सबसे अधिक सम्भावना’ की उपाधि दी गई थी। मैं असहमत होना चाहता था, परन्तु मैं नहीं कर सका। मैंने अपने आत्मविश्वासी मित्र को इस रूप में पहले कभी नहीं देखा था। परन्तु नौकरी छूट जाने के तुरन्त सम्बन्ध का टूट जाना आप पर ऐसा प्रभाव डालेगा। अब वह संसार को जीतने की स्थिति में नहीं था, और वह इसे जानता था। यहाँ तक वह ढोंग भी नहीं कर सकता था। कई अनगिनत अधूरी अपेक्षाओं से निरुत्साहित तथा आशाहीन, वह बोलते हुए सोचने लगा, “जीवन में वास्तव में सफल होने का क्या अर्थ है?”

यद्यपि उस समय ऐसा नहीं लग रहा था, मेरा मित्र उस क्षण में जितना समझ सकता था, वह उससे अच्छे स्थान पर था। क्योंकि उसके टूटे हुए जीवन की सतह के नीचे, परमेश्वर सांसारिक सफलता के विषय में झूठी मान्यताओं को हटा रहा था, और समय के साथ वह उन मान्यताओं को सच्ची सफलता के स्वभाव के विषय में दृढ़ और निश्चित बाइबलीय विश्वास के साथ परिवर्तित कर देगा। 

कुछ भेंटों के समयकाल में, मैंने समझाया कि यदि आदम और हव्वा हाई स्कूल में गए होते, तो उन्हें भी “सफल होने की सबसे अधिक सम्भावना” की उपाधि दी जाती। परमेश्वर के हाथ से निर्मित, बिना किसी की कमी, फलदायी होने, फूलने-फलने, और पृथ्वी पर भरने की क्षमता से पूर्ण रीति से सुसज्जित (उत्पत्ति 1:26-28), ये दोनों सफलता के लिए तैयार थे। महानता के लिए नियुक्त एक शक्ति-युक्त जोड़ी। 

परन्तु जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, हम सीखते हैं कि आप सफलता को उसके आवरण से नहीं आंक सकते, क्योंकि सफलताओं की सम्भावना सफलता की कोई प्रतिज्ञा नहीं है। उत्पत्ति 3 में, आदम और हव्वा सफलता की एक अलग परिभाषा के प्रभाव में आ गए— एक परिभाषा जो परमेश्वर से नहीं वरन शैतान से आई। सर्प के अनुसार, सच्ची सफलता परमेश्वर के स्वरूप बनने में नहीं परन्तु परमेश्वर के समान होने से मिलती है (पद 5)।

आदम और हव्वा के पतन के पश्चात, कार्य, उपलब्धि और सफलता के लिए परमेश्वर की रचना स्वयं में पूर्ण रीति से परिवर्तित हो गईं। मनुष्य ने सफलता की वस्तु के रूप में परमेश्वर का स्थान ले लिया। सफलता की प्रेरणा के रूप में अभिमान ने विनम्रता का स्थान ले लिया। आत्म-पदोन्नति ने सफलता की विधि के रूप में आत्म-त्याग का स्थान ले लिया।

इसलिए जब भी हम थोड़ी सी भी सफलता का अनुभव करते हैं, तो हमारे भीतर एक महिमा का  युद्ध छिड़ जाता है। अच्छी रीति से किए गए कार्य, या परमेश्वर की महिमा के लिए की गई उपलब्धि के लिए पवित्र आनन्द के स्थान पर, हम अपने लिए एक नाम बनाने के अवसर के रूप में उपलब्धि का अनुचित लाभ उठाते हैं। हम परमेश्वर के स्थान पर स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, क्योंकि हमारा स्वभाव परमेश्वर की सच्ची आराधना के स्थान पर मूर्तिपूजा की ओर झुका हुआ है। 

यह कहने के द्वारा मेरा अर्थ यह नहीं है कि सांसारिक सफलता स्वयं में पापमय है। बाइबल में परमेश्वर के बहुत से लोगों ने सांसारिक सफलता और सम्मान का आनन्द लिया। यूसुफ मिस्र के फिरौन का दाहिने हाथ का व्यक्ति था, और उसे अकाल के समय इस्राएल को बचाने के लिए उपयोग किया गया। एस्तेर फारसी राजा क्षयर्ष की रानी थी, और वह परमेश्वर के लोगों को हामान की दुष्ट चाल से बचाने के लिए उपयोग की गई। दानिय्येल राजा नबूकदनेस्सर का एक परामर्शदाता था, और वह एक विदेशी राष्ट्र के लिए परमेश्वर की महिमा का प्रतिनिधित्व करने के लिए उपयोग किया गया। दर्जनों लोगों में से जिन्हें हम चुन सकते हैं ये केवल तीन हैं, परन्तु यह विचार अच्छी रीति से स्थापित है: परमेश्वर अपने लोगों की सांसारिक सफलता—अधिकार, धन और पद—को लाने में, और उस सफलता को अपने अच्छे और ईश्वरीय उद्देश्यों के लिए उपयोग करने में सक्रिय रूप से क्रियाशील है।

परन्तु जिस प्रकार सांसारिक सफलता स्वयं में पापपूर्ण नहीं है, यह स्वयं में अच्छा भी नहीं है—कम से कम अब नहीं। सांसारिक सफलता अच्छाई का साधन हो सकती है, परन्तु इसे बुराई के लिए भी उपयोग की जा सकती है। चाहे वह धन या सम्पत्ति का जाल हो (मरकुस 4:19), वंशावली और वरदान की झूठी आशा (1 कुरिन्थियों 1:26-31), या अधिकार और पद की मूर्तिपूजा (मरकुस 10:35-45), पवित्रशास्त्र हमें बार-बार सांसारिक सफलता के जाल से बचने के लिए सावधान करता है। बाइबल जानती है कि सफलता हमें संसार की प्राथमिकताओं और प्रथाओं के अनुसार नया आकार देने में सक्षम है।

अठ्ठारहवीं शताब्दी के अर्थशास्त्री ऐडम स्मिथ सफलता की इस प्रवृत्ति को जानता था। उसने प्रसिद्ध रीति से तर्क दिया कि एक सम्पन्न अर्थव्यवस्था के निर्माण का सबसे अच्छा उपाय है “अपनी मानवता से नहीं, परन्तु अपने आत्म-प्रेम को सम्बोधित करने के द्वारा।” वह समझ गया कि पतित मनुष्यों की उपलब्धि और सफलता के लिए प्रेरणा प्रायः उस हृदय से उदय नहीं होती जो परमेश्वर और पड़ोसी के प्रति प्रेम की ओर झुकता है परन्तु उस हृदय से जो स्वयं से प्रेम करने की ओर मुड़ा है।

अब, यह सभी बातें एक प्रश्न को उत्पन्न करती हैं: सफलता का वास्तविक स्वभाव क्या है? 

जैसा कि मैं देखता हूँ, हम दो प्रकार से त्रुटि में जा सकते हैं। एक ओर, क्योंकि सफलता स्वयं में न तो अच्छी होती है और न ही बुरी, और क्योंकि यह ईश्वरभक्त और भक्तिहीन दोनों को आती है, इसलिए केवल बाहरी कारकों में सफलता के स्वभाव का पता लगाना मूर्खता होगी। दूसरी ओर, क्योंकि सफलता में आवश्यक रूप से प्रत्यक्ष फल निहित है, इसलिए सफलता को केवल आन्तरिक या हृदय के कारकों तक सीमित करना उतना ही भोला है। इसके स्थान पर, हमें इन कारकों को एक साथ लाना चाहिए और विश्वासयोग्यता और फलदायी होने के विषय पर बाइबलीय शिक्षा का पालन करना चाहिए। मेरे कहने का अर्थ क्या है?

कभी-कभी बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार जीने से सांसारिक सफलता प्राप्त होगी। जोनाथन एडवर्डस ने सच्छी भलाई (The Nature of True Virtue) पुस्तक में उल्लेख किया है कि परमेश्वर ने संसार को ऐसा बनाया है कि धार्मिकता से जीने से प्रायः सांसारिक लाभ प्राप्त होते हैं। प्रायः खरा व्यक्ति को पदोन्नति मिलती है। भरोसेमन्द कठिन परिश्रम करने वाले व्यक्ति का वेतन बढ़ाया जाता है। जैसा कि यूसुफ, एस्तेर और दानिय्येल के साथ था, सांसारिक सफलता प्रायः धर्मी जीवन का प्रतिफल होता है।

तथापि, अन्य समयों में, धर्मी जीवन जीने से आपको सांसारिक सफलता की हानि उठानी पड़ सकती है। जब आप सत्य के पक्ष में खड़े होते हैं, तो कभी-कभी आपको पदोन्नति या वेतन वृद्धि के लिए छोड़ दिया जाता है। जब आप साहसपूर्वक अन्याय या भृष्टाचार को प्रकट करने का चुनाव करते हैं, तो आप लगभग निश्चित रूप से तिरस्कृत होंगे, और सम्भवतः कभी-कभी आप अपने पद से नीचे कर दिए जा सकते हैं—या इससे से भी बुरा। परन्तु इसकी अपेक्षा की जानी चाहिए। फिर से, हम यूसुफ, एस्तेर और दानिय्येल को देख सकते हैं। इन सन्तों ने अपनी विश्वासयोग्यता के कारण न केवल सांसारिक सफलता का अनुभव किया, परन्तु इन्होंने अपनी विश्वासयोग्यता के कारण सांसारिक सफलता के क्षति का भी अनुभव किया। हम कह सकते हैं कि कुछ परिस्थितियों में, सांसारिक सफलता प्राप्त करना विश्वासयोग्यता का फल था, और अन्य परिस्थितियों में, सांसारिक सफलता को खोना विश्वासयोग्यता के लिए घाटा था।

यह धन्यवाद का विषय है कि सांसारिक सफलता का उनके हृदयों पर ढीली पकड़ थी। वे विश्वासयोग्यता के प्रति इतने समर्पित थे कि वे सांसारिक सफलता को प्राप्त या त्याग सकते थे क्योंकि यह उनका लक्ष्य नहीं था। सांसारिक सफलता उनके हृदय को नियंत्रित नहीं करती थी। वास्तविकता यह है कि हम में से बहुत से लोग सांसारिक सफलता द्वारा नियंत्रित हुए बिना सांसारिक सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सफल होने के लिए अधिक आत्मिक परिपक्वता की आवश्यकता होती है। हमें प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमें कभी भी आत्मिक परिपक्वता की तुलना में अधिक सांसारिक सफलता प्राप्त करने की अनुमति न दें। “क्योंकि यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त कर ले और अपने प्राण को खो दे तो उसे क्या लाभ?” (मरकुस 8:36)। 

आइए हम सांसारिक सफलता को प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए केवल तभी समर्पित हों जब वह सफलता परमेश्वर के वचन के प्रति विश्वासयोग्य आज्ञाकारिता से उत्पन्न और संरक्षित हो। वह यहोशू का समर्पण था। जब वह इस्राएल को प्रतिज्ञा किए गए देश में प्रवेश करने के लिए तैयार कर रहा था, तो उसने सैन्य रणनीतियों या शारीरिक हथियारों पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया। इसके विपरीत, उसने लोगों को वह सब कुछ जानने और करने के लिए बुलाया जिसे व्यवस्था की पुस्तक मांग करती है, “क्योंकि तब तू सफलता प्राप्त करेगा” (यहोशू 1:8)।

यहोशू के शब्द बहुत कुछ यीशु के शब्दों के समान लगते हैं, जब वह कहता है, “मेरा भोजन यह है कि अपने भेजने वाले की इच्छा पूरी करूँ” (यूहन्ना 4:34)। अपने पिता के प्रति विश्वासयोग्यता, पुरुषों से प्रंशसा और सम्मान नहीं— यह यीशु का हृदय और मिशन था। परन्तु आइए हम सत्य बोलें। कई अर्थ में, इस समर्पण ने यीशु को संसार के दृष्टिकोण से बहुत अप्रभावी बना दिया।  

वास्तव में, यदि हाई स्कूल “न्यूनतम सफल होने की सम्भावना” पुरस्कार से देते (और मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि वे ऐसा नहीं करते हैं), यीशु निश्चित रूप से पुरस्कार के लिए सबसे उपयुक्त प्रत्याशी होता। वह अविवाहित, बिना नाम वाली माता से उत्पन्न हुआ (लूका 1-2), और उसे नासरत के यूसुफ नामक एक साधारण बढ़ई द्वारा गोद लिया गया— और प्रत्येक मनुष्य जानता था कि नासरत से कभी भी उत्तम वस्तु नहीं निकल सकती है (यूहन्ना 1:46)। उसके पास कोई बाहरी महिमा या सुन्दरता नहीं थी जिससे कि उसे चाहते (यशायाह 53:2), और उसके पास सिर रखने के लिए भी कोई स्थान न था (मत्ती 8:20)। यदि यह सब पर्याप्त नहीं था, तो वह क्रूस पर चढ़ाए जाने के द्वारा एक दोषी अपराधी के रूप में सबसे लज्जाजनक रीति से मर गया जिसकी कल्पना की जा सकती है (यूहन्ना 19)।

अब, मैं निश्चित हूँ कि इनमें से कोई भी विशेषताएं संसार की दस वर्षीय सफलता की योजना में नहीं है। परन्तु बात तो यही है। यीशु के लिए सफलता को संसार के स्तर से नहीं मापा जाता है क्योंकि यीशु इस संसार का नहीं है। उसके जीवन की सफलता या असफलता का मूल्यांकन संसार के मापकों के अनुसार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उसने जो जीवन जिया और जिस राज्य को वह स्थापित करता है वह इस संसार का नहीं है। परन्तु इस संसार के न होने के कारण, यीशु इस संसार के लिए सिद्ध उद्धारकर्ता है।

इस विषय पर विचार कीजिए। यदि आदम और हव्वा ने परमेश्वर से समानता को पकड़ने के प्रयास से संसार को उलट दिया, तो यीशु ने “परमेश्वर के समान होने को अपने अधिकार में रखने की वस्तु न समझने” के द्वारा संसार को सही दिशा में मोड़ दिया। यदि आदम और हव्वा ने घमण्ड से फूल कर संसार को उलट दिया, तो यीशु ने “स्वयं को शून्य करके, एक दास का स्वरूप धारण करके” संसार को सही दिशा में मोड़ दिया। यदि आदम और हव्वा ने परमेश्वर की आज्ञा की अवहेलना करके संसार को उलट दिया, तो यीशु ने, “मृत्यु तक आज्ञाकारी होकर, यहां तक कि क्रूस की मृत्यु” के द्वारा संसार को सही दिशा में मोड़ दिया (फिलिप्पियों 2:6-8)।

सबसे सफल व्यक्ति जो कभी जीवित रहा, वह संसार की दृष्टि में असफल दिखता था, परन्तु पिता की दृष्टि में, वह वास्तविक सफल व्यक्ति था क्योंकि पिता ने उसे “अति महान किया और उसको वह नाम प्रदान किया जो सब नामों में श्रेष्ठ है” (पद 9)।

क्रूस—अन्यजातियों के लिए मूर्खता और यहूदियों के लिए ठोकर का कारण है। परन्तु  जो बचाए जा रहे हैं, उनके लिए यह सच्ची सफलता की परिभाषा है (1 कुरिन्थियों 1:18, 22-24)।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
नेट शर्डन
नेट शर्डन
रेवरेन्ड नेट शर्डन फ्रैंकलिन, टेनेसी में कॉर्नरस्टोन प्रेस्बिटेरियन चर्च के वरिष्ठ पास्टर हैं और न्यू कॉलेज फ्रैंकलिन में एक सहायक प्राध्यापक हैं। आप उन्हें ट्विटर पर @NateShurden पर फॉलो कर सकते हैं।