
संतोष को पाने के पाँच मार्ग
2 सितम्बर 2025क्या परमेश्वर सदैव ख्रीष्टियों से प्रसन्न रहता है?

– ऐन्ड्रू कॅर
इस प्रश्न का उचित उत्तर देने के लिए हमें एक दृढ़ आधार रखना होगा, जिसका आरम्भ है कार्यों से पहले अनुग्रह को स्थान देना।
1. ख्रीष्ट से बाहर, हम अपनी नैतिकता, प्रयास, या गुणों से परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते।
अपुनरुज्जीवित प्राण (नया जन्म न पाए हुए मनुष्य) परमेश्वर को प्रसन्न करने में न तो इच्छुक होते हैं और न ही सक्षम, वरन् उसकी आज्ञाओं का विरोध करते हैं (रोमियों 8:5–8)। शरीर में निहित पापी स्वार्थ उनके जीवन पर प्रभुत्व करता है (2 तीमुथियुस 3:1–5)। केवल विश्वास के द्वारा ही हनोक परमेश्वर के साथ चल सका (इब्रानियों 11:5–6)। केवल जब मन, इच्छा और हृदय में गहरा और अनुग्रहपूर्ण नवीनीकरण होता है, तभी हम अपनी आशाहीन स्थिति को पहचानते हैं, स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर धर्मी है, और स्वयं को ख्रीष्ट पर सौंपते हैं। पवित्र आत्मा को पहले परमेश्वर की व्यवस्था हमारे हृदय पर अंकित करनी होती है और हमें उसकी ओर झुकाना होता है; तभी हम वास्तव में उसे कृतज्ञ और परमेश्वर-महिमा देने वाले मार्गों में प्रसन्न करने की खोज करते हैं।
2. अनन्तकाल से लेकर अब तक, परमेश्वर ने अपने सम्प्रभु चुनाव पर एक क्षण के लिए भी पछतावा नहीं किया।
सृष्टि से पहले ही परमेश्वर को यह उत्तम लगा कि वह अपनी दुल्हिन—कलीसिया—को पूर्वनियत करे कि वह उसकी प्रिय सम्पत्ति और उसकी आँखों का तारा बने, और वह उसे अपने प्रेम से आनन्दित करे और सान्त्वना दे (सपन्याह 3:11–17)। सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि परमेश्वर को प्रसन्नता हुई कि वह नीच, अनपढ़ और निर्बल को चुने, जिससे कि वह सामर्थी, ज्ञानवान और प्रभावशाली लोगों को लज्जित करे (1 कुरिन्थियों 1:20–29)। पिता को यह भला लगा कि उसने बुद्धिमानों से प्रकाशन छिपा लिया और उसे मूर्खों पर प्रकट किया (मत्ती 11:25–27; लूका 2:14; 12:32)। मुँहफट मछुआरों, हत्यारे शास्त्रियों, मरते अपराधियों, कुख्यात वेश्याओं, उथल-पुथल में पड़े दुष्टात्मा-ग्रस्तों और भ्रष्ट कर लेने वालों के उदाहरणों को देखकर यह स्पष्ट होता है कि परमेश्वर ने सबसे असम्भावित और निकृष्ट लोगों को चुना, जिससे कि मानवीय घमण्ड को गिरा दे और अपने लिए अधिक महिमा प्राप्त करे। यदि परमेश्वर अपने चुनाव से प्रसन्न है, तो इस चुनाव के अर्थ में, परमेश्वर ख्रीष्टीय से प्रसन्न है।
3. यद्यपि परमेश्वर सबके प्रति भला (हितकारी) है और अपने सन्तों के प्रति भली इच्छा (दयालुता) रखता है, फिर भी केवल एक मनुष्य ही—अपने आप में—सदैव पिता को पूर्ण रूप से प्रसन्न करता है (यूहन्ना 8:29)।
परमेश्वर ख्रीष्ट के मसीाई उपगेशों, आश्चर्यकर्मों, व्यवस्था-पालना, और दुख-सहन से प्रसन्न होता है। आकाश में उसकी गूँजती हुई स्वीकृति-घोषणा थी: “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।” (मत्ती 3:16–17; 17:5)। यदि यीशु, जो अनन्त पुत्र और वाचा का मध्यस्थ है, अनन्तकाल से परमेश्वर को प्रसन्न करता है, तो वे सब जो उससे मिले हैं, उसके लहू से धुले, उसकी धार्मिकता से आच्छादित, अति प्रिय जनमें स्वीकार किए गए हैं (इफिसियों 1:3–6), और परमेश्वर को प्रसन्नता देते हैं।
4. सुरक्षित चुनाव और दी हुई स्थिति कृतज्ञ चेलों को बढ़ती हुई परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली ऐसी आज्ञाकारिता के लिए प्रेरित करती (इफिसियों 5:1–10; कुलुस्सियों 1:9–14) जो पहले से तैयार किए गए भले कार्य करने हेतु बुलाहट को न तो अनदेखा करती है और न ही उपेक्षित करती है (इफिसियों 2:5–10)।
इसके विपरीत, हम ठानते हैं कि यह जानें कि प्रभु को कैसे प्रसन्न करें। हम ऐसे सैनिकों के समान करते हैं—जैसे तीमुथियुस—क्योंकि हम यह अपना मुख्य लक्ष्य मानते हैं कि अपने सेनापति यीशु को प्रसन्न करें (2 तीमुथियुस 2:1–4)। हम ऐसा दासों के समान करते हैं—ख्रीष्ट के आदर्श के अनुसार—जिसने स्वयं को क्रूस तक दीन किया। अब हम मनुष्य से प्रशंसा की इच्छा नहीं रखते, परन्तु हम अपनी स्वार्थी आकांक्षाओं को एक ओर रखकर भाइयों और अन्य लोगों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता देते हैं, जिससे कि किसी को ठोकर न लगे, निर्बलों की उन्नति हो, और वचन का प्रचार हो सके।
5. पवित्रशास्त्र अनेक बार यह स्पष्ट करता है कि परमेश्वर को कैसे प्रसन्न किया जाए।
परमेश्वर तब प्रसन्न होता है जब कर्मचारी परिश्रमपूर्वक कार्य करते हैं, बच्चे माता-पिता की आज्ञा मानते हैं, विवाह स्थिर और दृढ़ रहते हैं, नागरिक शासकों का आदर करते हैं, कलीसिया के सदस्य अगुवों की मानते हैं, और व्यभिचार के स्थान पर विश्वासयोग्यता होती है (1 थिस्सलुनीकियों 4:1–8)। परमेश्वर हमारे आचरण को तब स्वीकार करता है जब शान्ति झगड़ों को समाप्त करती है, कलीसियाएँ वचन से परिपूर्ण होती हैं, और भेड़ें पोषित की जाती हैं—न कि घायल या भूखी छोड़ी जातीं। ख्रीस्टीय सेवा तब सराही जाती है जब बाहरी रीति-रिवाजों के स्थान पर भीतरी सच्चाई होती है; अपराधी पापी टूटे और खेदित मन से आते हैं (भजन 51:16–17; मीका 6:6–8); क्षमा पाए हुए भक्त बलिदानी सेवा अर्पित करते हैं, उदार उपहारों से परिपूर्ण (फिलिप्पियों 4:18; इब्रानियों 13:16); और जब हम प्रार्थना में लोलिन रहते हैं (1 तीमुथियुस 2:1–4)।
6. दो सत्य हमें परमेश्वर को प्रसन्न करनेवाले मार्ग पर चलने में सहायता देते हैं।
पहला यह है कि परमेश्वर की स्वीकृति पाने की कोई भी प्रेरणा या इच्छा हमारे भीतर से उत्पन्न नहीं होती, परन्तु यह ख्रीष्ट के सामर्थी सुसमाचार-वचन का परिणाम और प्रभाव है, जिसे आत्मा हमारे हृदयों में अंकित करता है, जिससे कि हम उन रीतियों से सोचें और आचरण करें जो परमेश्वर को स्वीकार्य हों (फिलिप्पियों 2:12–13; इब्रानियों 13:20–21)।
दूसरा यह है कि जब हम मनुष्यों की प्रशंसा की लालसा करना छोड़ देते हैं, स्वार्थ को भूखा रखते हैं, स्वयं को परमेश्वर को अर्पित करते हैं और दूसरों को प्राथमिकता देते हैं, तब हमें यह अनुभव होता है कि क्रूस का दीन मार्ग ही सच्ची स्वतन्त्रता और जीवन का पथ है (रोमियों 14:1–15:33; 1 कुरिन्थियों 10:31–33)। जैसा कि पवित्रशास्त्र कहता है: “लेने से देना अधिक आशीष का काम है” (प्रेरितों के काम 20:35)। परमेश्वर तब प्रसन्न होता है जब हम उसमें अपनी प्रसन्नता पाते हैं।
7. बाइबल निःसन्देह यह शिक्षा देती है कि परमेश्वर हमारे जीवन में पाप को अस्वीकार करता है।
जब दाऊद ने बथशेबा को लिया और अभिमान से जनगणना का आदेश दिया, तो यहोवा अप्रसन्न हुआ (2 शमूएल 11:27; 1 इतिहास 21:1–7)। निर्दयी कार्य पवित्र आत्मा को शोकित करता है (इफिसियों 4:25–32)। अपने भक्तों के अनन्त भले के लिए हमारा पिता अपनी सन्तानों को प्रेमपूर्वक अनुशासित करता है (इब्रानियों 12:5–11), यहाँ तक कि गम्भीर अपराधों के लिए कठोरता से भी (1 कुरिन्थियों 11:28–34)। यदि ख्रीष्ट ने एशिया की सात कलीसियाओं में से छह में दोष पाया (प्रकाशितवाक्य 2:1–3:22), तो भी अन्तिम वचन सदा अनुग्रह का होता है। प्रभु जानता है कि हम मिट्टी हैं और पाप का प्रतिफल चुकाने में असमर्थ हैं; पर जब हम त्रुटि करते हैं, तो परमेश्वर धैर्यपूर्वक हमें क्षमा करता है और हम पर दया करता है (भजन 103:8–18)।
निष्कर्ष
उसकी योजना के सम्बन्ध में, परमेश्वर अपने भक्तों से सदा प्रसन्न रहता है। विश्वासियों की ख्रीष्ट में स्थिति के सम्बन्ध में, परमेश्वर की प्रसन्नता सुनिश्चित है। परन्तु हमारे आचरण के सम्बन्ध में, परमेश्वर पाप को अस्वीकार करता है, किन्तु उस आज्ञाकारिता को स्वीकार करता है जिसे वह स्वयं हममें सामर्थ देता है। यदि हम सोचें कि हमारे गम्भीर पाप और दोषों के होते हुए भी परमेश्वर क्यों हमें छुड़ाने में प्रसन्न हुआ, तो इसका उद्देश्य था कि उसकी महिमा और उसका आनन्द प्रकट हो। हमारी गहराइयों तक झुककर और हमें अपनी ऊँचाइयों तक उठाकर, वह अपने धैर्यशील, करुणामय और क्षमाशील हृदय को प्रकट करता है, जिससे कि उसका अनन्त जीवन हममें दिखाई दे, उसकी महिमामयी अनुग्रह की स्तुति के लिए।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।