
बातों में नहीं, वरन् सामर्थ्य में।
11 नवम्बर 2023
आज्ञापालन के लिए भरोसा
21 नवम्बर 2023परमेश्वर के राज्य का स्थान

किसी भी राजा का अधिकार उसकी राज्य की सीमाओं तक सीमित होता है। इस सूक्ति को जब ख्रीष्ट के राज्य पर लागू किया जाता है तो यह विश्वास और दृष्टि के मध्य एक तनाव को उत्पन्न करता है। बाइबल घोषणा करती है कि पृथ्वी, और उसमें सब कुछ और सब कोई प्रभु के हैं (भजन 24:1), परन्तु संसार फिर भी परमेश्वर के शासन का विरोध करता है, और परमेश्वर और उसके सम्प्रभु शासन से छूटना चाहता है (भजन 2:3)। इस विद्रोह के होते हुए भी परमेश्वर घोषणा करता है कि वह पवित्र पर्वत सिय्योन पर अपने अभिषिक्ति राजा को स्थापित करेगा (6 पद)। उस ख्रीष्ट के सध्यस्थता के शासन पर भरोसा, जो अपने और हमारा शत्रुओं को रोकने और हराने के द्वारा हम पर राज्य करता है और हमारी रक्षा करता है (वेस्टमिन्स्टर लघु प्रश्नोत्तरी 26) परमेश्वर के राज्य के नागरिकों के लिए सान्त्वना की बात है। फिर भी, पवित्रशास्त्र में यह आशा पाई जाती है कि कलीसिया के आत्मिक शासन से बढ़कर, जिसका कि वह सम्प्रभु सिर है (इफिसियों 1:22; कुलुस्सियों 1:18), ख्रीष्ट के राज्य की एक अभिव्यक्ति होगी।
बाइबल प्रायः ख्रीष्ट के शासन को भौगोलिक भाषा में वर्णन करती है। उसका राज्य समुद्र से समुद्र तक है—वास्तव में पृथ्वी की छोरों तक (भजन 72:8)। जकर्याह 14:9 एक ऐसे दिन की आशा करता है जब प्रभु सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजा होाग। दानिय्येल एक ऐसे समय की ओर संकेत करता है जब संसार के सब राज्य नाश किए जाएँगे और उनके स्थान में एक ऐसा राज्य होगा जो कभी नाश न होगा (दानिय्येल 2:44)। इस भौगोलिक विस्तार की पूर्ति अनन्तकाल में होगी जब परमेश्वर सिद्ध धार्मितका द्वारा चिन्हित अदन के जैसे नए आकाश और नई पृथ्वी को बनाएगा जो पाप द्वारा शापित पुरानी सृष्टि का स्थान लेगा (यशायाह 65:17; 2 पतरस 3:13; प्रकाशितवाक्य 21:1)। सम्भवतः इस भविष्य के राज्य की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसके राजा की उपस्थिति नागरिकों के मध्य है (जकर्याह 2:5, 10-11)। यद्यपि आज कलीसिया एक प्रतिकूल वातावरण में है, उसके पास धन्य आशा है कि इस संसार के सभी राज्यों का पतन होगा और परमेश्वर का राज्य विजयी बना रहेगा। वर्तमान में कलीसिया द्वन्द्व में है; उस समय कलीसिया विजयी होगी और राजा की उपस्थिति में शान्ति और धार्मिकता के वास्तविक स्थान में होगी।
सम्पूर्ण पुराने नियम में प्रतिज्ञा के देश को दिए जाने वाला ध्यान राज्य के इस ईश्वरविज्ञान को समझने में उपयोगी है। पुराने नियम का अधिकाँश ईश्वरविज्ञान इस्राएल द्वारा इस देश पर विजय पाना, उत्तराधिकार में इसे प्राप्त किया जाना, इससे निकाला जाना, और इसे पुनःप्राप्त करने से सम्बन्धित है। देश की आरम्भिक प्रतिज्ञा अब्राहम के साथ परमेश्वर की वाचा का एक अभिन्न भाग था। परमेश्वर ने अब्राहम से एक ऐसी देश की प्रतिज्ञा की जो फ़रात नदी से मिस्र की नदी तक फैली होगी (उत्पत्ति 12:7; 15:18-17:8)। यद्यपि प्रभु ने अब्राहम को आश्वासन दिया कि उसका वंश सर्वदा के लिए देश में रहेगा, अब्राहम ने इसे केवल चित्रात्मक रीति है से बसाया जब उसने एक गुफा मोल लिया (उत्तपत्ति 13:17; 23)। अब्राहम जानता था कि देश की प्रतिज्ञा केवल मिट्टी से बहुत अधिक था, क्योंकि उसका मुख्य ध्यान उत्तम स्वर्गीय देश पर था (इब्रानियों 11:16)। एक अर्थ में अब्राहम का अनुभव कलीसिया के अनुभव के जैसा है: जब उसने “अभी” देश को प्राप्त किया यह आने वाले “अभी नहीं” वास्तविकता के तुल्य नहीं था। देश के विषय में यह ईश्वरविज्ञान परमेश्वर के राज्य के विषय में शिक्षा देता है।
पहला, देश की प्रतिज्ञा की गई थी। यद्यप प्रतिज्ञा निश्चित थी, प्रतिज्ञा का एक भौगोलिक भाग था जो न केवल अब्राहम वरन् उसकी सन्तानों ने भी प्राप्त नहीं किया। चार सौ से अधिक वर्षों के लिए अब्राहम के वंश एक अन्य देश के अधीन थे और उनके पास कोई आशा नहीं थी के वे उस प्राचीन प्रतिज्ञा को उत्तराधिकार में प्राप्त करेंगे। परन्तु परमेश्वर ने पुनः वह प्रतिज्ञा की (निर्गमन 6:8; 13:5, 11), और देश उस उत्तराधिकार की ओर धीरे से बढ़ा। उनके पिता अब्राहम के समान, उन्होंने बिना पूर्ति को देखे प्रतिज्ञा पर भरोसा किया, क्योंकि मिस्र से निकलने वाली पीढ़ी ने यरदन नदी को पार नहीं किया। कलीसिया के साथ भी अब ऐसा ही है। विश्वास के द्वारा हम जानते हैं कि नम्र लोग पृथ्वी के उत्तराधिकारी होंगे (मत्ती 5:5) और अब्राहम की आत्मिक सान्तानें जगत के उत्तराधिकारी होंगा (रोमियों 4:13)। यह हमारे “अभी” के अनुभव से बढ़कर है, परन्तु यह परमेश्वर की प्रतिज्ञा है। एस बात निश्चित है: ख्रीष्ट ने अपने लोगों के लिए एक स्थान तैयार किया है (यूहन्ना 14:2; इब्रानियों 6:19-20)।
दूसरा, देश सम्पन्न था। प्रभु ने देश का वर्णन करते हुए कहा कि वह अच्छा और विस्तृत था, और उस में दूध और मधु की धाराएँ थीं (निर्गमन 3:8)। यह एक मुहावरा है जो देश की बहुतायत को समझाता है। देश की सम्पन्नता छुड़ाए गए लोगों की आशिषों का स्पष्ट चित्रण था। परमेश्वर द्वारा छुड़ाए गए लोगों में से एक होना आत्मिक रीति से धनी होने का स्थान है। पौलुस की भाषा में, परमेश्वर ने हमें ख्रीष्ट में स्वर्गीय स्थानों में सभी आत्मिक आशिषों से आशिषित किया है (इफिसियों 1:3)। मसीही के लिए “दूध और मधू” वाले देश का अर्थ स्वर्गीय स्थानों में होना है।
तीसरा, देश बसी हुआ था। जब इस्पाएल के लौग मिस्र के दासत्व में थे, तो जिस देश को इस्राएल को देने की प्रतिज्ञा परमेश्वर ने की थी वह खाली नहीं थी। प्रभु ने कहा कि उस देश में इस्राएल से महान और सामर्थी लोग रहते थे (व्यवस्थाविवरण 7:1)। वहाँ के मूल निवासियों की उपस्थिति विश्वास के लिए और विश्वासयोग्यता के लिए भी एक सम्भावित समस्या की बात थी। इस सम्भावित संकट को सम्बोधित करने के लिए परमेश्वर ने इस्राएल को चेतावनी दी कि वे मूल निवासियों के साथ न रहें और न ही उनके साथ ऐसी वाचाओं में प्रवेश करें जो उन्हें परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने के लिए बाध्य करेगा (निर्गमन 23:32-33)। इसके विपरीत उन्हें वहाँ के लोगों की मूर्तियों को “पूरी रीतु स् नष्ट” करना था और उन्हें “टुकड़े टुकड़े” करना था (24 पद)। इसी चेतावनी को मानने में विफलता के कारण इस्राएल को देश से निकाला गया।
विश्वास के लिए समस्या भी उतना ही वास्तविक था। जबकि कनानी लोग इतने सामर्थी और सक्षम योद्धा थे और इस्राएल इतना निर्बल और अनुभवहीन था, यह प्रश्न बड़ा था कि वे देश को कैसे प्राप्त करेंगे। यह बात तो सत्य थी कि देश परमेश्वर की ओर से एक वरदान था, परन्तु उस वरदान को वश में करना एक अलग ही बात थी। यह तो असम्भाव्य था कि वहाँ के लोग स्वेच्छा से चले जाते; वे अपने देश में बने रहने के लिए अवश्य लड़ते। इस प्रकार की लड़ाई में इस्राएल का जीतना बहुत असम्भाव्य था। जब हम इस बात को देखते हैं कि प्रभु कैसे समझाता है कि देश को वश में कैसे लिया जाना चाहिए, हम पाप की प्रभुता पर विश्वासी के विजय के विशय में एक महत्वपूर्ण शिक्षा को देखते हैं।
कनानियों के साथ व्यवहार करने के लिए दोहरा प्रक्रिया थी: परमेश्वर इस्राएल के लिए लड़ेगा, और इस्राएल को स्वयं के लिए लड़ना होगा। प्रभु ने लोगों को आश्वासन दिया कि वह कनानियों को काटेगा, नाश करेगा, और भगाएगा (निर्गमन 23:23, 27)। वह अपने दूत को भेजने के द्वारा ऐसा करेगा, जिनकी आज्ञाओं को इस्राएलियों को मानना था (20, 23 पद)। अगुवाई करने वाले दूत के साथ, परमेश्वर इस्राएलियों से पहले कनानियों के पास अपना भय और बर्रों को भेजेगा (27-28 पद)। यह दोनों मुहावरे हैं जो बताते हैं कि उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाएगा जो आतंक उत्पन्न करेगा।
कनान पर विजय परमेश्वर और लोगों के मध्य सहयोग को दिखाता है। परमेश्वर ने अपनी प्रतिज्ञाओं के अनुसार विजय प्राप्त किया और उन्हें आश्वासन दिया क्योंकि उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह उन कनीनियों को निकाल देगा जो प्रतिज्ञा की प्राप्ति के मार्ग में बाधा थे। फिर भी, इस्राएलियों को यरदन पार करके युद्ध करके शत्रुओं को निकालना था (व्यवस्थाविवरण 9:3)। इस विश्वास के साथ कि परमेश्वर ने उन्हें विजय दे दी, उन्होंने देश में प्रवेश किया और उस निश्चित विजय के प्रकाश में युद्ध किया। इस्राएलियों ने परमेश्वर की आज्ञा को मानते हुए तलवार उठाने के द्वारा ही देश को वश में किया। देश को वश में करने के लिए युद्ध एक के बाद एक होते रहे, और नई भूमि को वश में करने का कार्य धीमा था।
देश पर विजय पाने की प्रक्रिया पाप के विरुद्ध विश्वासी के संघर्ष का चित्रण है, अर्थात् उसके प्रगीशील पवित्रीकरण का। यद्यपि ख्रीष्ट ने पाप पर हमारे विजय को अर्जित किया है और हम पर पाप की प्रभुता का विनाश किया है, केवल इसलिए कि हम बचाए गए हैं पाप हम से भाग नहीं जाता है। यदि हम अपनी सामर्थ्य में होकर पाप से युद्ध करने का प्रयास करें, तो पराजय निश्चित है क्योंकि पाप हमसे सामर्थी है। परन्तु यदि हम परमेश्वर द्वारा की गई और ख्रीष्ट द्वारा अर्जित की गई प्रतिज्ञाओं के साथ द्वन्द्व में प्रवेश करें, तो हम विजय का आनन्द उठा सकते हैं। जब हम किसी निश्चित पाप पर विजय का अनुभव करते भी हैं, हम ढीले नहीं पड़ सकते हैं क्योंकि हम एक ऐसे संसार मे रहते हैं जो पाप और प्रलोबन रूपी कनानियों से भरा हुआ है। एक विजय के बाद दूसरा संघर्ष आता जाता है। वर्तमान में परमेश्वर के राज्य में जीवन युद्ध द्वारा चिन्हित है।
चौथा, देश ईश्वरीय उपस्थिति का स्थान था। मूसा के गीत में मूसा ने उस देश से सम्बन्धित भी परमेश्वर की स्तुति की जिसमें परमेश्वर अपने लोगों को ले जाने वाला था: “उस स्थान पर जिसे तू ने अपने निवास के लिए बनाया है, हाँ, उस पवित्रसा्तान में, हे यहोवा, जिसे तेरे हाथों में स्थापित किया है, तू अपनी प्रजा को पौधे के समान रोपेगा” (निर्गमन 15:17)। एक विशेष और आत्मिक अर्थ में, देश में होने का अर्थ था वहाँ होना जहाँ प्रभु है; यह उसकी उपस्थिति का स्थान था। प्रभु ने अनुग्रह में होकर मूसा को आश्वासन दिया था कि उसकी उपस्थिति देश में जाएगी और कि वह लोगों को विश्राम देगा (निर्गमन 33:14)। “विश्राम” का विचार देश और परमेश्वर की उपस्थिति के लिए पर्यायवाची बन गया (भजन 132:13-24)। विश्राम वहाँ था जहाँ परमेश्वर था; यह उसकी उपस्थिति का चिन्ह था। इस अर्थ में, देश उस अन्तिम विश्राम की ओर संकेत करता था जिसे हर विश्वासी परमेश्वर के स्वर्गीय देश में अनुभव करेगा, अर्थात् उसकी महिमामय उपस्थिति का स्थान और विश्वासी का अनन्त निवास में (1 पतरस 1:4)। एक और अर्थ में, यह उस सब्त के विश्राम के समान है जिसका आनन्द प्रत्येक विश्वासी आराधना के स्थान में अनुभव करता है, जहाँ परमेश्वर अपने लोगों से मिलता है। आराधना का स्थान परमेश्वर के राज्य के स्थान का प्रकटीकरण है।
प्रतिज्ञा का देश अर्थपूर्ण रीति से परमेश्वर के राज्य के ईश्वरविज्ञान से सम्बन्धित है। दोनों वास्तविक स्थान हैं। देश परमेश्वर के छुड़ाए गए लोगों के मध्य परमेश्वर की उपस्थिति, सुरक्षा, और प्रावधान का चिन्ह था। एक बड़े अर्थ में, देश परमेश्वर के सार्वभौमिक और अनन्त राज्य का नमूना है (चित्रात्मक नबूवत), अर्थात् उस स्थान का जिसमें ईश्वरीय उपस्थिति और शान्ति का अनुभव किया जाएगा। देश परमेश्वर के लोगों का अन्तिम गन्तव्य और उस गन्तव्य की और दैनिक यात्रा की बात करता है। उस विश्राम के देश में प्रवेश करना विश्वासियों का अन्तिम गन्तव्य है। वह राज्य आ रहा है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।