
महिमा की खोज
16 अक्टूबर 2025प्रार्थना-जीवन को उत्तम बनाने के तीन उपाय

मुझे नहीं लगता कि मैं कभी किसी ऐसे ख्रीष्टीय से मिला हूँ जो अपने प्रार्थना-जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हो। आप कदाचित् इन अनुभवों से परिचित होंगे कि: आप प्रार्थना करने का प्रयास करते हैं, परन्तु ऐसा लगता है जैसे शब्द छत से टकराने से पहले ही बिखर जाते हैं, और आप सोचना आरम्भ करते हैं, “क्या परमेश्वर सुन रहा है, या मैं स्वयं से बात कर रहा हूँ?” फिर वह घोर आलस्य आता है। हम जागते रहने और प्रार्थना करने का प्रयास करते हैं, परन्तु शिष्यों के समान, जैसे हीहम आँखें बंद करके कहते हैं, “हे प्रभु,” और शब्द मानो निद्राजनक औषधि बन जाते हैं। या फिर हमारे विचार अगले दिन की चिंताओं में उलझ जाते हैं, और जो एक प्रार्थना के रूप में आरम्भ होता है वह मन ही मन किसी सहकर्मी से बातचीत बन जाती है। अंततः निराशा घर कर लेती है: मैं प्रार्थना करने में इतना बुरा क्यों हूँ?
सत्य तो यह है कि हम प्रायः बातों को आवश्यकता से अधिक जटिल बना देते हैं। प्रार्थना को एक व्यायाम के समान सोचें। आपको सदैव प्रार्थना करने का मन नहीं करेगा, और व्यायाम के कुछ सत्र दूसरे सत्रों की तुलना में अधिक संतोषजनक होते हैं। व्यायाम में, निरंतरता से परिणाम मिलते हैं, परन्तु आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि व्यायाम करने का आपका रूप ठीक हो और आपकी अपेक्षाएँ वास्तविक हों। प्रार्थना को सुदृढ़ करने के लिए यहाँ कुछ सरल उपाय दिए गए हैं।
1. पश्चाताप करें।
सबसे पहले, पश्चाताप करें। परमेश्वर उन दिखावटी प्रार्थनाओं में रुचि नहीं रखता जो विद्रोही हृदयों को ढकने का प्रयास करती हैं। यह कोई संयोग नहीं है कि यीशु ने अपने शिष्यों को पहाड़ी उपदेश में प्रभु की प्रार्थना सिखाने से पहले, कई निर्देश दिए कि प्रार्थना कैसे नहीं करनी है। संक्षेप में, यीशु ने पाखण्डी और अन्धविश्वासी होने के विरुद्ध चेतावनी दी थी (मत्ती 6:5-8)।
कभी-कभी हम प्रार्थना को पीछे छिपने के लिए एक मुखौटे की तरह उपयोग करते हैं। हम सही तो शब्द कहते हैं पर हमारा हृदय गलत स्थान पर होता है। प्रार्थना कभी भी परमेश्वर के सामने स्वयं को धर्मी ठहराने का साधन नहीं है, न ही यह अन्य ख्रीष्टियों के सामने दिखावा करने का माध्यम है। परमेश्वर कपटी प्रार्थनाओं को पहचान लेता है। परमेश्वर ने यशायाह की पुस्तक में अपने वाचा के लोगों से कहा,
अतः जब तुम अपने हाथ फैलाओगे,
तो मैं अपनी दृष्टि तुमसे छिपा लूंगा,
हां, चाहे तुम कितनी भी प्रार्थना क्यों न करो,
मैं नहीं सुनूंगा;
तुम्हारे हाथ खून से सने हैं।” (यशायाह 1:15, नीतिवचन 15:29 भी देखें)
पाप में जीने से अधिक प्रार्थना की धारा को कुछ और नहीं सुखा सकता। प्रार्थना में परमेश्वर के साथ सम्वाद करने से पहले, अपने पापों को उसके सामने अंगीकार करने के लिए समय निकालें। हो सकता है आपको पता चले कि आप जिस प्रार्थना-अवरोध का अनुभव कर रहे हैं, उसका कारण आपके अपने ही हाथों में है।
2. स्मरण रखें कि परमेश्वर कौन है।
इसके बाद स्मरण रखें कि परमेश्वर कौन है। प्रभु की प्रार्थना इन शब्दों से आरम्भ होती है, “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है।” यूनानी नए नियम में, “पिता” शब्द पहले आता है। परमेश्वर को “पिता” कहने का अधिकार सभी लोगों को नहीं है, परन्तु केवल उन्हीं को है जिन्हें यीशु ख्रीष्ट के कार्य के द्वारा परमेश्वर के परिवार में गोद लिया गया है। पौलुस ने कहा, “तुम ने दासत्व का आत्मा नहीं पाया है कि फिर भयभीत हो, परन्तु पुत्रों के समान लेपालकपन का *आत्मा पाया है, जिसे हम ‘हे अब्बा! हे पिता!’ कह कर पुकारते हैं।” (रोमियों 8:15)।
स्मरण रखें कि पिता तक पहुँचने का जो विशेषाधिकार आपको मिला है, वह पुत्र यीशु के माध्यम से है। यीशु ने पापियों के लिए पवित्र परमेश्वर को विश्वास के साथ पुकारने का कितना अद्भुत मार्ग प्रशस्त किया है (देखें इब्रानियों 4:16)। परमेश्वर ने जो किया है उसे स्मरण करने से हमें उसकी प्रिय संतान के रूप में अपनी पहचान में स्थिर होने में सहायता मिलती है और हमें यह आश्वासन मिलता है कि वह न केवल हमारी प्रार्थनाओं को सहन करता है, परन्तु वह उन्हें ध्यानपूर्वक सुनना भी चाहता है जैसे एक अच्छा पिता अपने बच्चों की पुकार सुनता है (मत्ती 7:11)।
3. दोहराते रहें।
अंततः, दोहराते रहें। यदि आप केवल तभी प्रार्थना करते हैं जब आप बाध्य होते है, या जब आपका मन करे, तो आप कभी भी एक निरंतर प्रार्थना जीवन विकसित नहीं कर पाएँगे। नियमित प्रार्थना-जीवन विकसित करने का अर्थ है कि आप प्रतिदिन सम्भवतः निश्चित समय पर प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सम्मुख आने का निश्चय करें। जबकि यीशु ने व्यर्थ दोहराव को मना किया है, परन्तु नियमित दोहराव स्वयं में दण्डित नही है। आपको स्मरण होगा कि यीशु ने उस हठी विधवा की प्रशंसा की, जो अपने ‘लगातार आते रहने’ के कारण न्याय पाती है (लूका 18:5)। अपनी प्रार्थनाओं से स्वर्ग के द्वारों को ऐसे खटखटाएँ मानो आप उन्हें तोड़ कर गिरा देने की सोच रहे हों। जब आप निराश हो जाएँ, तो स्मरण करें कि यूहन्ना ने क्या कहा था: “और जो साहस हमें उसके सम्मुख होता है वह यह है: कि यदि हम उसकी इच्छा के अनुसार कुछ माँगे, तो वह हमारी सुनता है” (1 यूहन्ना 5:14)।
क्या आप अपने जीवन में परमेश्वर की इच्छा पूरी होने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं, कि वह आपको पवित्र करे, और आपको यीशु के स्वरूप में और भी अधिक रूपांतरित करे? तो हिम्मत रखें—आपका खटखटाना व्यर्थ नहीं जाएगा, आपकी विनतियाँ अनसुनी नहीं की जाएँगी। यीशु ने जब अपने शिष्यों को “आज की रोटी” के लिए प्रार्थना करना सिखाया, तो इसका अर्थ यही था कि वह आज, और प्रत्येक दिन आपसे सुनना चाहता है (मत्ती 6:11)।
यह लेख मसीही शिष्यत्व की मूल बात संग्रह का हिस्सा है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।