
जीवन के लिये सच्चा पश्चात्ताप
10 दिसम्बर 2025तीर्थयात्री प्रजा
घर पर होने में एक अलग ही बात होती है, है न? मैं जब-जब यात्रा करता हूँ, यह बात मुझे फिर से स्मरण आती है। जब मैं यह स्तम्भ लिख रहा हूँ, तब हमें कैरेबियन में लगोनियर (Ligonier) की अध्ययन-समारोह से लौटे कुछ ही सप्ताह हुए हैं। हमारी वह यात्रा अध्ययन और लगोनियर के मित्रों और समर्थकों के साथ सहभागिता के कारण अत्यन्त सुखद थी—जिनमें से बहुत-से लोग सम्भवतः अभी यह लेख पढ़ रहे होंगे। यात्रा के आनन्द के बाद भी, मैं घर लौटकर प्रसन्न हुआ। ऐसा मेरे साथ हर यात्रा में होता है। मुझे अपना देश प्रिय है, और एक धन्य यात्रा के बाद भी संयुक्त राज्य में लौटने में मुझे आनन्द होता है।
यद्यपि अमरिका लौटकर मुझे प्रसन्नता होती है, पर मुझे स्वीकार करना होगा कि जब मैं अपने देश घर लौटता हूँ, तब भी मेरे मन में कहीं और होने की लालसा बनी रहती है। अन्ततः, संयुक्त राज्य मेरे लिये केवल एक सराय के समान है—मेरे वास्तविक घर, अर्थात स्वर्गीय नगर, की यात्रा में विश्राम का एक स्थान। एक मसीही होने के नाते मैं समझता हूँ कि जब तक मैं स्वर्ग में अपने उद्धारकर्ता के साथ नहीं हूँ, तब तक मैं वास्तव में घर नहीं पहुँचूँगा। एक प्राचीन आत्मिक गीत इसे सही रूप से व्यक्त करता है: “यह संसार मेरा घर नहीं है… मैं तो बस यहाँ से गुज़र रहा हूँ।”
परमेश्वर के लोग हमेशा से वे रहे हैं जिन्हें हम “तीर्थयात्री प्रजा” कह सकते हैं। निर्गमन में पुराने वाचा की कलीसिया की व्यवस्था ने प्राचीन इस्राएलियों को “तीर्थयात्री” और “परदेशी” जैसे नाम दिये। वे मरुभूमि में अर्ध-घुमन्तू जीवन व्यतीत कर रहे थे, और उनके पास कोई स्थायी स्थान नहीं था जिसे वे अपना कह सकें। यहाँ तक कि उनका उपासना-स्थान भी एक तम्बू—अर्थात् मण्डप—था, जिसे प्रभु द्वारा आगे बढ़ने की आज्ञा मिलने पर खोलना पड़ता था और नया पड़ाव स्थापित करते समय फिर से खड़ा करना पड़ता था। आगे चल कर, देहधारण का वर्णन करते हुए यूहन्ना इसी विषय को आगे बढ़ाता है। परमेश्वर का वचन जो “देहधारी हुआ और हमारे बीच में निवास किया” (यूहन्ना 1:14), वहाँ “निवास किया” का यूनानी शब्द उसी मूल से आता है जिसका अर्थ “तम्बू” या “मण्डप” होता है। ख्रीष्ट ने सचमुच “अपना तम्बू गाड़कर” या “मण्डप बनाकर” हमारे बीच निवास किया।
इसी कारण, पवित्रशास्त्र में ख्रीष्ट को अंतिम और सर्वोच्च तीर्थयात्री के रूप में प्रकट किया गया है। देह धारण करके उसने हमारे लिये स्वर्ग में अपना घर छोड़कर सर्वोच्च परदेशी का रूप लिया। वह इस संसार में इसलिए आया कि अब्राहम, इसहाक और याकूब की संतानों के साथ उनके स्वर्गीय घर की यात्रा में सहभागी हों।
इब्रानियों 11:13 इसे इस प्रकार कहता है: पुराने वाचा के संतों ने दूर से ही प्रतिज्ञाओं को देखते हुए “यह मान लिया कि वे पृथ्वी पर परदेशी और यात्री हैं।” मूसा, अब्राहम और अन्य लोग अपने सांसारिक घरों से विश्वास में निकल पड़े, उस स्वर्गीय घर की खोज करते हुए जिसे प्रभु ने उनसे प्रतिज्ञा किया था। वे “एक उत्तम देश, अर्थात स्वर्गीय देश” की अभिलाषा करते थे; और इसी कारण “परमेश्वर उनके परमेश्वर कहलाने में नहीं लजाता, क्योंकि उसने उनके लिये एक नगर तैयार किया है” (इब्रानियों 11:16)।
यद्यपि इब्रानियों 11 में गवाहों का बादल पुराने वाचा के विश्वासीयों पर केंद्रित है, फिर भी परमेश्वर की प्रजा की तीर्थयात्रा उस समय समाप्त नहीं हुई जब वे कनान में बस गए, या जब उन्होंने यरूशलेम पर अधिकार किया, या यहाँ तक कि निर्वासन से लौट आने के बाद भी नहीं। नए नियम की मसीही कलीसिया भी एक तीर्थयात्री प्रजा है। प्रेरित पतरस स्पष्ट रूप से कहता है: “हे प्रियों, मैं तुम से बिनती करता हूँ कि तुम शरीर की लालसाओं से, जो आत्मा से लड़ती हैं, परदेशी और यात्रियों के समान बचे रहो” (1 पतरस 2:1)। हम अब भी उस पवित्र नगर, स्वर्गीय यरूशलेम की प्रतीक्षा में हैं। वही हमारा सच्चा घर है जिसके लिये हम बनाए गए हैं। “देख, परमेश्वर का मण्डप मनुष्यों के साथ है, और वह उनके साथ वास करेगा; वे उसकी प्रजा होंगे, और परमेश्वर स्वयं उनके साथ रहेगा और उनका परमेश्वर होगा” (प्रकाशितवाक्य 21:3)।
स्वर्ग के इस पार, प्रभु हमें अनेक प्रकारों से हमारे स्वर्गीय घर की एक झलक देता है, विशेषकर जब हम सामूहिक आराधना के लिए इकट्ठा होते हैं। मैंने इसे अपनी गृह-कलिसिया, सेंट एंड्र्यूज़ चैपल, में अनुभव किया है, जहाँ प्रत्येक प्रभु-के-दिन हम इकट्ठा होकर मानो सांसारिक से पवित्र के द्वार को पार करते हैं। परन्तु मैंने इसे तब भी अनुभव किया है जब मैंने विदेशों में आराधना की है।
लगभग बीस वर्ष पहले, मैं पूर्वी यूरोप की यात्रा पर गया ताकि उन कई क्षेत्रों में प्रचार और शिक्षा दे सकूँ, जो साम्यवादी शासन के समय मसीही मिशनरियों के लिए बंद थे और जहाँ वह शासन कुछ ही वर्ष पहले समाप्त हुआ था। ट्रांसिल्वेनिया की एक कलीसिया में, मुझे एक रविवार सुबह उपदेश देने का अवसर मिला, और जब मैंने मंडली की ओर देखा, तो मैंने कई वृद्ध महिलाओं को देखा, जिनके चेहरे पर वे झुर्रियाँ उकेरी हुई थीं जो वर्षों तक आदिम उपकरणों से भूमि पर कठोर परिश्रम करने से उत्पन्न हुई थीं। यद्यपि वे सिर से पाँव तक काले वस्त्रों में थीं—काली स्कर्ट, काले ब्लाउज़ और काली बाबुष्का—तथापि उनमें एक अद्भुत शांति थी। वे लगभग स्वर्गदूतों जैसी प्रतीत हो रही थीं। ये महिलाएँ मेरे उपदेश को अत्यंत ध्यान से सुन रही थीं, और कभी-कभी मैं उनके गाल पर एक आँसू को लुढ़कते हुए भी देख लेता था।
वहाँ खड़े-खड़े, मैं अपना उपदेश रोमानियाई भाषा में अनूवादित होते सुन रहा था और मैं जो हो रहा था उस पर अचंभित था। मुझे उनके साथ एक वास्तविक आत्मीयता का अनुभव हुआ, एक ऐसा बन्धन जो इस संसार से नहीं आया था। हमारे बीच कुछ भी समान न था । हमरी भाषा, संस्कृति, व रीति-रिवाज सब अलग थे; कोई भी सांसारिक बात हमें एक साथ नहीं बाँधती थी। परन्तु हमारे पास वह धन्य बन्धन था जो सबको बाँधता है — परमेश्वर के वचन के प्रति साझा प्रेम। हम सब स्वर्ग के नागरिक थे, इस संसार से भिन्न-भिन्न मार्गों से गुजरते हुए, किन्तु ख्रीष्ट में साझा एकता के कारण गहन एकजुटता में बँधे हुए। मैं और वे ग्रामीण स्त्रियाँ, हम दोनों एक ही स्वर्गीय देश की ओर तीर्थयात्री थे।
परमेश्वर हमें इस संसार में और हमारे सांसारिक घरों में अनेक आशीषें देता है। फिर भी, “यह संसार हमारा घर नहीं है . . . हम तो बस यहाँ से होकर जा रहे हैं।”
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

