मसीहियत और संसारिक दर्शनशास्त्र
20 अगस्त 2024परमेश्वर और मनुष्य
27 अगस्त 2024धर्मसिद्धान्त
आज पश्चिमी जगत में सामने आ रहे नैतिक संकट की तीव्रता को देखते हुए, कलीसिया को धर्मसिद्धान्त सीखने के अपने प्रयासों को दोगुना करना चाहिए। निःसन्देह, हमें मसीहियों को मसीही जीवन जीने और परमेश्वर के विवाह के उपहार और परमेश्वर द्वारा अपने स्वरूप में पुरुषों और महिलाओं की रचना के पक्ष में बोलने के लिए प्रोत्साहित करना जारी रखना चाहिए। हमें इस दुखद तथ्य को सोच-समझकर सम्बोधित करना चाहिए कि मनुष्य के जीवन का मुख्य लक्ष्य के सार्वजनिक ज्ञान को ऐसे संसार में व्यवस्थित रूप से दबा दिया जाता है जहाँ लोगों पर आक्रमण किया जाता है, गर्भपात किया जाता है, और बढ़िया भोजन, अस्वास्थ्यकर भोजन, अधिक संभोग, उत्तम स्क्रीन, निःशुल्क मादक पदार्थ और सांसारिक सपनों से उन्हें भरा जाता है। परन्तु हमें विशिष्ट रूप से धर्मसिद्धान्त की आवश्यकता है।
जे. ग्रेशम मेचन ने अपनी उत्कृष्ट पुस्तक एक शताब्दी पहले लिखी थी जब कलीसिया अन्य बातों के साथ साथ भारी नैतिक चुनौतियों का सामना कर रही थी, उनमें से कुछ तो उनकी कल्पना से भी अधिक बड़ी थीं। उनके समय में, भविष्यवक्ता होने का दावा करने वाले सेवकों ने बल देकर कहा कि कलीसिया का वास्तविक कार्य अच्छा लोकतन्त्र, सभ्यता और नैतिक सुधार की तत्काल आवश्यकता को सम्बोधित करना था। उन्होंने स्वयं इस बात पर बल दिया कि एक विश्वासयोग्य कलीसिया को, विशेष रूप से उस कलीसिया को जो संकट में है, अवश्य धर्मसिद्धान्त पर विश्वास करना चाहिए और उसे सिखाना चाहिए।
परन्तु धर्मसिद्धान्त क्यों? मेचन के समय से पहले और उसके बाद से, कलीसिया, विशेष रूप से सामाजिक उथल-पुथल और नैतिक अस्पष्टता के सामने, प्रायः मसीही धर्मसिद्धान्त की तुलना में अधिक स्वादिष्ट दिखने वाले विकल्पों के प्रलोभन में पड़ी है। कुछ शिक्षक इस बात पर बल देते हैं कि कलीसिया के पास बाइबल को छोड़कर कोई विश्वास वचन नहीं है। वे कहते हैं कि साधारण विश्वासियों को सत्रहवीं शताब्दी के अंगीकार या धर्मप्रश्नोत्तरी की सूक्ष्मता की धर्मसैद्धान्तिक अधिकता की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सुनने में तो ठीक प्रतीत होता है। और जैसा कि मेचन, कलीसिया में बैठे सामन्य व्यक्ति के विषय में बात करते हुए कहते हैं, “क्योंकि ईश्वरविज्ञानियों की सूक्ष्मताओं पर ध्यान देने का विचार उसके मन में कभी नहीं आया, वह उस आराम का अनुभव करता है जो कलीसिया जाने वाले को सर्वदा तब आती है जब किसी और के पापों पर आक्रमण किया जा रहा हो।” परन्तु जैसा मेचन समझाते हैं, जब कोई व्यक्ति विश्वास वचन या शुद्धतावादीयों की मृत शास्त्रसम्मतता के विषय में सुनता है, और फिर वेस्टमिंनिस्टर विश्वास अंगीकार या जॉन बनियन की द पिलग्रिम्स प्रोग्रेस को पढ़ने लगता है, “तो वह उथले आधुनिक वाक्यांशों से ‘मृत शास्त्रसम्मतता’ की ओर मुड़ा है जिसके हर शब्द में जीवन धड़क रहा है।” इससे भी अधिक, माकेन बताते हैं, पुराने अंगीकार की आलोचना करने की आड़ में, जो लोग धर्मसिद्धान्त का विरोध करते हैं, वे प्रायः बाइबल और इसकी सबसे मूल शिक्षाओं का विरोध करते हैं। और, हम जोड़ सकते हैं कि जो शिक्षक धर्मसिद्धान्त का सबसे अधिक विरोध करते हैं वे प्रायः स्वयं को अनुसरण करने के लिए मानक के रूप में स्थापित करते हैं।
मेचन मुख्यतः उन लोगों से निपट रहे थे जो कुटिल मनसाओं के साथ धर्मसिद्धान्त का विरोध कर रहे थे। उन्होंने बड़े स्तर से धर्मसिद्धान्त का विरोध करने का दावा किया क्योंकि लोगों को यह बात मनाना अधिक सरलता यह स्वीकार करने की तुलना में कि उन्हें विशेष रूप से कुछ धर्मसिद्धान्तों से समस्या थी: ख्रीष्ट का कुँवारी से जन्म, उसका दैहिक पुनरुत्थान, और बहुत कुछ। परन्तु अन्य लोगों ने धर्मसिद्धान्त का विरोध किया है क्योंकि वे यीशु का अनुसरण करने का प्रयास कर रहे हैं, और स्वयं यीशु ने “केवल कहानियाँ सुनाई थी।” कुछ विद्वानों ने जोड़ा है कि यह सम्पूर्ण बाइबल का मुख्य दृष्टिकोण है: यह वृतान्त और कविता प्रस्तुत करती है, न की विधिवत् ईश्वरविज्ञान। निश्चित रूप से वृतान्त—जो वास्तव में इतिहास है—मसीहियों के लिए महत्वपूर्ण है। हमारा धर्म ऐतिहासिक है: यीशु ने इसे उसी रीति से सिखाया जैसे उन्होंने पुराने नियम के विषय में बात की थी; आरम्भिक मसीहियों ने इसे महत्व दिया, जैसा कि हम लूका के अपने शोध के व्याख्या में देख सकते हैं; और प्रेरित पौलुस ने इसकी घोषणा तब की जब उन्होंने कुरिन्थियों को ख्रीष्ट के जीवन, मृत्यु और पुनरुत्थान की ऐतिहासिकता का स्मरण दिलाया (1 कुरिन्थियों 15:1-8)।
फिर भी, जैसा कि मेचन ने कहा, बाइबल हमें केवल वृतान्त प्रस्तुत करने से सन्तुष्ट नहीं है, क्योंकि ऐतिहासिक वृतान्त में उस वृतान्त की व्याख्या जुड़ी हुई है—एक व्याख्या जो इसका अर्थ जोड़ती है, जो तथ्यों को धर्मसिद्धान्तों में बदल देती है। “ख्रीष्ट मरा,” मेचन कहते—“यह इतिहास है।” परन्तु “‘ख्रीष्ट हमारे पापों के लिए मरा’—यह धर्मसिद्धान्त है” (देखें 1 कुरिन्थियों 15:3)। धर्मसिद्धान्त के प्रति यह समर्पण पौलुस के लेखन, प्रथम मसीहियों के मूल्यों और यीशु की शिक्षाओं में देखी जाती है।
ऐसे लोग हैं, उनमें से कई ईश्वरविज्ञानीय उदारवादी हैं, जो मानते हैं कि बाइबल केवल एक वृतान्त है। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं कि मसीहियत केवल एक जीवन है; यह करने के विषय में है, न की विश्वास करने के विषय में। यहाँ फिर से मेचन सहायक हैं। वह हमें स्मरण दिलाते हैं कि “मसीहियत . . . है” शब्दों से आरम्भ होने वाले कथन ऐसे कथन हैं जिन्हें सत्यापित किया जा सकता है। यह देखने के लिए कि क्या यह बात ऐसी ही है, हमें केवल बाइबल की शिक्षाओं, प्रारम्भिक मसीही, या यहाँ तक कि मसीहियत के लम्बे इतिहास को देखने की आवश्यकता है। यह कहने में भी सत्यता भी हो सकती है कि मसीहियत को एक जीवन होना चाहिए, न कि केवल एक धर्मसिद्धान्त। परन्तु “यह दावा कि मसीहियत एक जीवन है, ऐतिहासिक जाँच के अधीन होना चाहिए है, ठीक वैसे ही जैसे यह दावा है कि नीरो के अधीन रोमन साम्राज्य एक स्वतन्त्र लोकतन्त्र था।” और जब हम इस दावे की जाँच करते हैं, तो हम पाते हैं, जैसा कि ऊपर कहा गया है, आरम्भ से ही धर्मसिद्धान्त मसीही विश्वास का एक अनिवार्य भाग रहा है।
मेचन ने अपनी पुस्तक में इस बात का बलपूर्वक दावा किया है कि मसीहियत अपने मूल में एक धर्मसैद्धान्तिक विश्वास है। परन्तु हमें धर्मसिद्धान्त की आवश्यकता क्यों है, विशेषकर जब हमें पश्चिमी जगत को नैतिक पतन की तत्काल समस्या का सामना करना पड़ रहा है? इस पतन के आरम्भ में, मेचन ने एक महत्वपूर्ण अन्तर्दृष्टि प्रदान की जो आज भी प्रासंगिक है: उदारवाद आदेशात्मक भाव में है, जो हमें बता रहा है कि हमें क्या करना चाहिए, “जबकि मसीहियत एक विजयी निश्चयार्थक भाव के साथ आरम्भ होता है,” और हमें बताता है कि परमेश्वर कौन है और उसने क्या किया है। वर्तमान क्षण में, हम “मसीही” उदारवाद और आक्रामक धर्म-निरपेक्षता दोनों को अत्यधिक निर्देशात्मक और प्रचारात्मक पा रहे हैं। अब सार्वजनिक सहभागिता और यहाँ तक कि सामान्य वार्तालाप के लिए भी अन्तहीन नियम हैं, जो बताते हैं कि किसी को क्या अवश्य करना चाहिए, कहना चाहिए या क्या नहीं कहना चाहिए। उदार सामाजिक और राजनीतिक जीवन अब पहले से कहीं अधिक आदेशात्मक हो गया है।
निस्सन्देह, हमें अवश्य ही सांसारिक आदेशों को ईश्वरभरक्त आदेशों से चुनौती देनी है। परन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें अपनी आदेशों को मसीही विश्वास के “विजयी निश्यार्थक बातों” पर आधारित करना चाहिए। कुछ दिन पहले एक प्रिय मित्र के साथ बातचीत में, जिसने उन्हें यह बताकर आश्चर्यचकित कर दिया था कि वह समलैंगिक है, एक मसीही परिवार से पूछा गया था कि वे मानव यौनिकता के विषय में क्या विश्वास करते हैं, और समय पर उन्होंने कुछ मसीही आदेश साझा किए: यदि हम मानते हैं कि परमेश्वर ने संसार को बनाया है और अब इस पर शासन करता हैं, हमारे पास अधिकार नहीं है कि हम अपने ही नियम बनाएँ। जीवन जीने की ऐसी रीतियों हैं जो परमेश्वर का सम्मान करता हैं, और वे सदैव हमारी भलाई के लिए बनाए गए हैं। उन्होंने परमेश्वर के उपहार विवाह के विषय में बात की और बताया कि परमेश्वर ने हमें पुरुष और महिला तथा अपने स्वरूप और समानता के रूप में बनाया है।
यह सब कहना आवश्यक था। परन्तु सम्भवतः शाम का सबसे प्रभावशाली क्षण तब आया जब एक सत्रह वर्षीय विश्वासी ने रोना आरम्भ कर दिया, अपने अ-मसीही मित्र को समझाते हुए कि मसीही विश्वास सुन्दर है, और वह इसलिए रो रही थी क्योंकि उसकी प्रिय मित्र यह नहीं देख पा रही थी। इस मित्र ने मसीही विश्वास को आदेशाों के संग्रह के रूप में समझा—जो उस मित्र के अनुसार घृणित आदेशा थे। दूसरी ओर, यह युवा महिला जानती थी कि मसीही विश्वास एक ऐसा जीवन है जो एक धर्मसिद्धान्त से प्रवाहित होता है, ऐसा धर्मसिद्धान्त जो जीवन, शान्ति, आशा और महिमा प्रदान करता है। और इसलिए उसने अपने मित्र के साथ विजयी निश्चयार्थक बातों के रूप में कुछ धर्मसिद्धान्त साझा किए।
हमें मसीहियों को और स्वयं को भी परमेश्वर की व्यवस्था को उसकी सम्पूर्णता में जानने— और बचाव करने—के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। परन्तु हमें यह भी समझना चाहिए कि परमेश्वर के वचन के निश्चयार्थक बातें कैसे उन आदेशों को आधार देते और सूचित करते हैं, कहीं ऐसा न हो कि जो सन्देश हम मरते हुए जगत में लाते हैं वह उतना सम्मोहक या सुन्दर न लगे जितना होना चाहिए।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।