धर्मसिद्धान्त
22 अगस्त 2024बाइबल
29 अगस्त 2024परमेश्वर और मनुष्य
जे. ग्रेशम मेचन ने आधुनिक मन पर परमेश्वर की अवधारणा और पाप की जागरूकता लुप्त होने पर शोक व्यक्त किया। मेचन के अनुसार, आधुनिक उदारवाद ने सबसे पहले, परमेश्वर की अवधारणा या ज्ञान की आवश्यकता को भी चुनौती दी थी। यह तर्क दिया जाता था कि परमेश्वर के ज्ञान की खोज करना धर्म की मृत्यु है। हमें परमेश्वर को जानना नहीं, वरन् उसे अनुभव करना चाहिए; और यदि हमें उसके विषय में विचार करनी है तो हमें अस्पष्ट और सामान्य शब्दों में ऐसा करना चाहिए। परमेश्वर पिता है, परन्तु इसका अर्थ सभी सृष्टि के लिए उसके सम्प्रभु पितृत्व से अधिक कोई और अर्थ नहीं है, जो कि सब लोगों के मध्य में विश्वव्यापी भाईचारे को प्रोत्साहित करता है।
निःसन्देह, मेचन यह स्वीकार करने के लिए तैयार थे कि पवित्रशास्त्र परमेश्वर के सम्प्रभुत्व पितृत्व की बात करता है (प्रेरितों के काम 17:28, इब्रानियों 12:9 देखें)। परन्तु केवल कुछ कुछ ही स्थल इस विचार का करते हैं; पवित्रशास्त्र में पिता के रूप में परमेश्वर की प्रमुख समझ उसके छुड़ाए हुए लोगों के सम्बन्ध में है। परन्तु मेचन के लिए परमेश्वर का पितृत्व, परमेश्वर के विषय में मसीही धर्मसिद्धान्त का केन्द्र या मुख्य सार था। परन्तु एक ही गुण “शेष सभी को समझने योग्य बनाती है”: परमेश्वर की भयानक पारलौकिकता (awful transcendence)। मेचन, परमेश्वर की अद्भुत पवित्रता के विषय में बात कर रहे थे—उसकी विशिष्टता और शेष सभी से भिन्नता। यह मेचन के लिए वह सत्य था0 जिसे आधुनिक उदारवाद ने अनदेखा कर दिया था। परिणामस्वरूप, उदारवाद ने सृष्टिकर्ता और सृष्टि के बीच के अन्तर को मिटा दिया जो सच्चे मसीहियत के लिए आधारभूत है। इसके स्थान पर इसने एक सर्वेश्वरवादी परमेश्वर को उत्पादित किया जो केवल “विश्व प्रक्रिया” का भाग है। परमेश्वर अब कोई अलग अस्तित्व नहीं रहा; उसका जीवन हमारे जीवन में था और हमारा जीवन उसके जीवन में था। मेचन के शब्दों में,
जब आधुनिक उदारवाद निरन्तर सर्वेश्वरवादी भी नहीं है, वह सर्वेश्वरवाद की ओर जाता है। यह प्रत्येक स्थान पर परमेश्वर और संसार के बीच अलगाव को तोड़ने और परमेश्वर और मनुष्य के बीच स्पष्ट अन्तर को समाप्त करने का प्रयास करता है।
परमेश्वर के विषय में यह त्रुटिपूर्ण धारणा का एक परिणाम मनुष्य के विषय में त्रुटिपूर्ण धारणा थी और विशेष रूप से, “पाप की चेतना की हानि।” क्योंकि अब परमेश्वर को पवित्र और पारलौकिक नहीं माना जा रहा है, इसलिए आधुनिक विचार में उसका महत्व न्यूनतम है और इस कारण से पाप का महत्व भी न्यूनतम हैं। मेचन ने आधुनिक विचार में बदलाव के कारणों को समझने का प्रयास किया। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के बाद में लिखते हुए, उनका मानना था कि युद्ध में दूसरों के पापों पर अत्यधिक ध्यान और स्वयं के पापों के अनदेखा को उत्पन्न किया। युद्ध में, जहाँ एक पक्ष को बुराई के अवतार के रूप में देखा जाता है, यह सरल है कि आप स्वयं के हृदय की दुष्टता को न देखें। आधुनिक राज्य की सामूहिकता की भी समस्या थी, जिसमें प्रत्येक जन परिस्थितियों में पीड़ित होता है, जिसके कारण “अपराध के व्यक्तिगत और वैयक्तिक चरित्र” अस्पष्ट हो गए। परन्तु, पाप के आधुनिक सिद्धान्त में बदलाव के पीछे मेचन ने एक अत्याधिक भयावह और महत्वपूर्ण कारण देखा: मूर्तिपूजावाद (Paganism)। मूर्तिपूजावाद से मेचन का अर्थ बर्बरता नहीं था। यूनानी साम्राज्य के चरम पर मूर्तिपूजावाद विचित्र नहीं परन्तु महिमामय थी। यह एक ऐसा विश्व-और-जीवन का दृष्टिकोण था जो वर्तमान में मानवीय क्षमताओं के स्वस्थ और सम्मान और आनन्दमय वृद्धि में मानव अस्तित्व का सर्वोच्च लक्ष्य पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मानवता वास्तव में अच्छी है और अपने मन और देह के उचित जुड़ाव और अनुशासन के माध्यम से अच्छाई प्राप्त कर सकती है। मेचन के लिए ऐसा दृष्टिकोण रखना उन दिनों में प्रमुख हो गया था, जिसने पवित्र परमेश्वर के सामने पाप और व्यक्तिगत अपराध के मसीही दृष्टिकोण की स्थान ले ली थी।
इसका परिणाम मानवता के विषय में पूर्णतः विपरीत विचार थे। “मूर्तिपूजावाद मानव प्रकृति के सम्बन्ध में आशावादी है, जबकि मसीहियत टूटे हुए हृदय का धर्म है।” मेचन के अनुसार, मूर्तिपूजावाद की समस्या यह है कि यह हृदय में पाप को छिपाती है, और इसलिए स्वयं के भीतर से समाधान की खोज करता है। मसीहियत भिन्न है, यह हृदय के पाप को उजागर करती है, और इसलिए स्वयं के भीतर नहीं वरन् बाहरी समाधान की खोज करती है। मूर्तिपूजावाद मसीहियत से शुभ सन्देश छीन लेती है और उसके स्थान पर अच्छी सम्मत्ति या अच्छा प्रोत्साहन ले लेती है। हमें क्षमा की आवश्यकता नहीं है, हमें केवल धैर्य की आवश्यकता है। हमें ईश्वरीय पश्चाताप की आवश्यकता नहीं है, हमें केवल एक अच्छी प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। मेचन ने आधुनिक उदारवादी प्रचारक के सुसमाचार को इस प्रकार से व्यक्त किया: “आप लोग बहुत अच्छे हैं, आप समुदाय के भलाई की ओर देखने वाली प्रत्येक विनती को सुनते हैं और प्रतिउत्तर करते हैं। अब हमारे पास बाइबल में—विशेषकर यीशु के जीवन में—कुछ ऐसा अच्छा है कि हम विश्वास करते हैं कि यह आप जैसे अच्छे लोगों के लिए भी अच्छा है।” मेचन के दिनों में, स्वयं के भले कार्यों ने उद्धारकर्ता के सुसमाचार का स्थान छीन लिया।
आधुनिक उदारवाद की मेचन की दक्ष और अनुबोधक आलोचना आज भी सत्य है। और कलीसिया की प्रतिउत्तर वैसा ही होना चाहिए जैसे मेचन के दिनों में लोगों ने प्रतिउत्तर दिया: साहसी और बिना संकोच किए परमेश्वर और मनुष्य के बीच के अन्तर की पुनः पुष्टि करना। कलीसिया को परमेश्वर और मनुष्य को परमेश्वर के अनुसार समझना चाहिए न कि अपने अनुसार। इस सम्बन्ध में, पवित्रशास्त्र परमेश्वर और मनुष्य के बीच विद्यमान खाई के दो प्रमुख पहलू प्रदान करता है।
सबसे पहले, सृष्टिकर्ता-सृष्टि में भेद है। उत्पत्ति परमेश्वर की पारलौकिकता की पुष्टि के साथ आरम्भ होती है: “आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथवी की सृष्टि की” (1:1)। उचित और आवश्यक परिणाम के रूप में पवित्रशास्त्र के इस आरम्भिक वाक्या से परमेश्वर के विषय में कई सत्य निकाले जा सकते हैं: परमेश्वर एक है, अनेक नहीं; वह सरल है, मिश्रित नहीं; वह अनन्त है, अस्थायी नहींं; वह आत्मा है, प्रदार्थ नहीं; वह अनन्त है, सीमित नहीं; वह अपरिवर्तनीय है, परिवर्तनशील नहीं; वह स्वयं-अस्तित्ववान है, आश्रित नहीं; उसके पास स्वयं में जीवन है, किसी अन्य आत्मा से नहीं; वह अमर है, नश्वर नहीं। संक्षेप में कहे तो, परमेश्वर पारलौकिक सृष्टिकर्ता है जो सृष्टि से अलग है। और क्योंकि मनुष्य की सृष्टि की गई है, न कि सृष्टिकर्ता की इसलिए उसे सृष्टिकर्ता परमेश्वर की महिमा करने और अनन्तकाल तक उसका आनन्द उठाने के लिए बुलाया गया है। यह वही है जो स्वर्ग में स्वर्गदूत सृष्टि के आरम्भ से करते आ रहे हैं: “सेनाओं का यहोवा पवित्र, पवित्र, पवित्र है! सम्पूर्ण पृथ्वी उसके तेज से भरपूर है!” (यशायाह 6:3)।
दूसरा, परमेश्वर और मनुष्य के बीच पवित्रता-पाप का भेद है, जो पतन के कारण से आया। पतन से पहले, मनुष्य सृष्टि-सृष्टिकर्ता के सम्बन्ध में परमेश्वर से अलग था, परन्तु उसके पास एक मौलिक धार्मिकता थी जो उसे परमेश्वर के साथ संगति का आनन्द उठाने में सक्षम बनाती थी। परन्तु यह धार्मिकता परिवीक्षा (probation) के अधीन थी और इसलिए संगाति खोई जी सकती थी। जब मनुष्य आदम के अपराध के द्वारा पाप की स्थिति में गिर गया तो संगति टूट गई और परमेश्वर और मनुष्य के बीच एक अलगाव बन गई जो सृष्टिकर्ता-सृष्टि के बीच भेद के जैसे असीम रूप से बड़ी थी और अब असीम रूप से अधिक गम्भीर है। यशायाह नबी ने जब मन्दिर का दर्शन देखा, उसने इस पवित्र-पापी भेद के महत्व को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। परमेश्वर के तीन बार पवित्र स्वभाव को देखने और सुनने पर उसकी “वाह” प्रतिक्रिया के तुरन्त बाद परमेश्वर की पवित्रता के उजागर करने वाले प्रकाश में अपने स्वयं के पापी स्वभाव को समझने पर उसकी “हाय” प्रतिक्रिया होती है (यशायाह 6:1-5)।
यदि परमेश्वर और मनुष्य के बीच सृष्टिकर्ता-सृष्टि का भेद मूल सृष्टि वास्तविकता को दर्शाता है, तो पवित्र-पापी भेद वर्तमान अस्तित्वगत वास्तविकता को दर्शाता है। इस प्रकार, यह मानवजाति के लिए बड़ी संकट की स्थिति को प्रकट करता है: पवित्र सृष्टिकर्ता और पापी मनुष्य के बीच संगति कैसे पुनःस्थापित की जा सकती है? मसीहियत का सन्देश यह है कि परमेश्वर ने अपने पुत्र, यीशु ख्रीष्ट—पवित्र परमेश्वर-मनुष्य में ऐसा समाधान प्रदान किया है। यीशु वह सब कुछ था जो परमेश्वर था और साथ ही वह सब भी था जो हम हैं, और इस प्रकार अपने छुटकारा दिलाने वाले कार्य के माध्यम से, वह परमेश्वर और मनुष्य के बीच मेल-मिलाप कराने में सक्षम है। यह मसीहियत की सरल परन्तु गम्भीर सुसमाचार है: परमेश्वर और मनुष्य का मेल, यीशु ख्रीष्ट के द्वारा से हो सकता है जो परमेश्वर-मनुष्य है। यह शास्त्रसम्मत मसीहियत है, वह मसीहियत जिसका बचाव करने के लिए मेचन ने इतनी निडरता से कार्य किया और जिसका आधुनिक उदारवाद अभी भी इतनी तीव्रता से विरोध करने के लिए कार्य करता है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।