धर्मसुधार क्यों अभी भी महत्व रखता है? - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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धर्मसुधार क्यों अभी भी महत्व रखता है?

अक्टूबर 31, 2016 को, पोप फ्रांसिस ने यह घोषणा किया कि पाँच सौ वर्ष पश्चात्, प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिक लोगों के पास अब “उन वादविवादों और असहमतियों से हट कर अपने इतिहास के महत्वपूर्ण क्षण को सुधारने का अवसर है जो प्रायः हमें एक दूसरे को समझने से रोकते हैं।“ इससे, ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे धर्मसुधार एक छोटी सी बात पर दुर्भाग्यपूर्ण और अनावश्यक झगड़ा है, एक बचकानी प्रतिक्रिया जिसे अब हम सब पीछे छोड़ सकते हैं क्योंकि हम बड़े हो चुके हैं।

परन्तु ऐसा मार्टिन लूथर को कहें, जिन्होंने केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण की पुनर्खोज पर इतनी स्वतन्त्रता और आनन्द का अनुभव किया कि उन्होंने लिखा, “मुझे लगा कि मैंने पूर्ण रूप से पुनः जन्म पाया है और खुले द्वारों के माध्यम से स्वर्गलोक में प्रवेश कर गया हूँ”। ऐसा विलियम टिन्डेल को कहें, जिन्हे यह इतना “हर्षपूर्ण, सुहावने और आनन्दपूर्ण सन्देश“ लगा कि वे “गाने, नाचने और आनन्द से उछलने लगे”। ऐसा थॉमस बिनले को कहें, जिन्होंने इसे “अद्भुत आश्वासन और शान्ति देने वाला पाया, इस सीमा तक कि मेरी क्षतिग्रस्त हड्डियाँ भी आनन्द से उछल पड़ीं।“ स्पष्टतः, उन आरम्भिक धर्मसुधारकों ने यह नहीं सोचा था कि वे एक बचकानी लड़ाई का चुनाव कर रहे हैं;क्योंकि जब उन्होंने इसे देखा, उन्होंने महान आनन्द के सुहावने सन्देश को पाया।

1517 में शुभ समाचार

सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में, यूरोप सहस्त्र वर्षों तक ऐसी एक बाइबल के बिना था जिसे लोग पढ़ सकते थे। इसलिए थॉमस बिनले का कभी इन शब्दों से आमना-सामना नहीं हुआ “ख्रीष्ट यीशु संसार में पापियों का उद्धार करने आया” (1 तीमुथियुस 1:15)। परमेश्वर के वचन के स्थान पर, उन्हें इस समझ पर छोड़ दिया गया कि परमेश्वर एक ऐसा परमेश्वर है जो लोगों को अपना उद्धार अर्जित करने के योग्य बनाता है। जैसा कि उस समय के एक शिक्षक ने इस प्रकार से बताया, “परमेश्वर उन पर अनुग्रह करने को नकारेगा नहीं जो अपना सर्वोत्तम देते हैं।“ फिर भी वे शब्द जो उत्साहित करने के अभिप्राय से थे उन्होंने उन सबको खिन्न कर दिया जिन्होंने उस बात को गम्भीरता से लिया था। आप कैसे सुनिश्चित हो सकते हैं कि आपने वास्तव में अपना सर्वोत्तम दिया है? यह आप कैसे बता सकेंगे की आप उस प्रकार के व्यक्ति बन गए हैं जिसने उद्धार प्राप्त किया है या नहीं?     

मार्टिन लूथर ने निश्चित रूप से प्रयास किया था। “मैं एक अच्छा मठवासी था,” उन्होंने लिखा, “और मैंने अपने प्रबन्ध को इतनी कड़ाई से रखा है कि मैं कह सकता हूँ कि यदि कोई सन्त आश्रम सम्बन्धी अनुशासन के माध्यम से स्वर्ग जा सकेगा, तो मैँ अवश्य ही उसमें प्रवेश करता।“ और फिर भी, उन्होंने पाया:

मेरा विवेक मुझे निश्चितता नहीं देता था, परन्तु मैं सदैव सन्देह करता था और कहता था, “तुमने यह सही नहीं किया। तुम पर्याप्त रूप से पश्चातापी नहीं थे। तुमने अपने पाप-अंगीकार से इसे निकाल दिया।“ जितना अधिक मैंने मानव परम्पराओं से अनिश्चित, दुर्बल और अशान्त विवेक का उपाय करने का प्रयास किया, उतना ही अधिक प्रतिदिन मैंने इसे अनिश्चित, दुर्बल और अधिक अशान्त पाया।

रोमी कैथोलिकवाद के अनुसार, लूथर का स्वर्ग के विषय में अनिश्चित होना अत्यन्त सही था। स्वर्ग में एक स्थान होने के भरोसे को पथभ्रष्ट अवधारणा माना जाता था और आर्क की जोन (Joan of Arc) पर 1431 में हुई उसकी सुनवाई में उस पर यह भी एक आरोप था। वहाँ, न्यायधीशों ने घोषणा की:

यह स्त्री पाप करती है जब यह कहती है कि यह स्वर्गलोक में ग्रहण होने के लिए ऐसे निश्चित है जैसे कि वह पहले से ही महिमा की सहभागी है, देखा जाए तो इस पृथ्वी की यात्रा पर कोई यात्री यह नहीं जानता कि वह महिमा के योग्य है या दण्ड के, जिसे केवल सम्प्रभु न्यायी ही बता सकता है।

वह न्याय उस व्यवस्था प्रणाली के तर्क के भीतर पूर्ण अर्थ रखता था: यदि हम स्वर्ग में प्रवेश केवल इसलिए कर सकते हैं कि हम (परमेश्वर के सक्षम बनाने वाला अनुग्रह के द्वारा) व्यक्तिगत रूप से इसके योग्य हो गए हैं, तब निस्सन्देह कोई भी निश्चित नहीं हो सकता। उस तर्क के अनुसार, मुझे स्वर्ग में केवल उतना ही भरोसा हो सकता है जितना भरोसा मुझे अपने पापरहित होने पर है।            

यही कारण है कि युवा मार्टिन लूथर भय से चिल्लाए थे जब एक छात्र के रूप में वह आँधी में आकाशीय विद्युत के कारण लगभग मारे जाने वाले थे। वह मृत्यु से भयभीत हो गए थे, क्योंकि ख्रीष्ट के पर्याप्त और अनुग्रहकारी उद्धार के ज्ञान के बिना-केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण के ज्ञान के बिना-उन्हें स्वर्ग की कोई आशा नहीं थी।

और यही कारण था कि पवित्रशास्त्र में केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण की उनकी पुनःखोज खुले द्वार के माध्यम से स्वर्गलोक में प्रवेश करने जैसी अनुभूती हुई थी। इसका अर्थ यह था, उनकी सारी चिन्ता और भय के स्थान पर, वह लिख सकते थे कि:

जब शैतान हमारे पापों को हम पर डाल देता है और यह घोषित कर देता है कि हम मृत्यु और नरक के योग्य हैं, तो हमें इस प्रकार कहना चाहिए: “मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं मृत्यु और नरक के योग्य हूँ। तो क्या हो गया? क्या इसका अर्थ यह हुआ कि मुझे अनन्त नरक का दण्ड दिया जाएगा? निस्सन्देह ही नहीं। क्योंकि मैं ऐसे एक व्यक्ति को जानता हूँ जिसने मेरे स्थान पर दुख उठाया और सन्तुष्ट किया। उसका नाम यीशु ख्रीष्ट है, परमेश्वर का पुत्र। जहाँ वो है, वहाँ मैं भी होऊंगा।।

और यही कारण था कि धर्मसुधार ने लोगों को उपदेश सुनने और बाइबल पढ़ने का ऐसा स्वाद दिया। क्योंकि, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के योग्य होना और उनमें ऐसा सुसमाचार देखना कि परमेश्वर पापियों को बचाता है, इस आधार पर नहीं कि कितने अच्छी रीति से उन्होंने पश्चातप् किया परन्तु पूर्ण रूप से उसके अपने अनुग्रह से, यह धार्मिक दोष-बोध के नीरस संसार में सुन्दर सूर्य के प्रकाश के खिलने के जैसा था।

2017 में शुभ समाचार

पिछले पाँच सौ वर्षों में धर्मसुधार की अन्तर्दृष्टि की कोई भी भलाई और प्रासंगिकता धुंधली नहीं पड़ी है। उन्ही महत्वपूर्ण प्रश्नों  के उत्तर अभी भी मानवीय आशाहीनता और प्रसन्नता के मध्य अन्तर उत्पन्न करते हैं। जब मैं मरुंगा तो मेरे साथ क्या होगा? मुझे कैसे पता चल सकता है? क्या धर्मीकरण धर्मी स्थिति का उपहार है (जैसा कि धर्मसुधारकों ने  तर्क diya), या और अधिक पवित्र बनने की एक प्रक्रिया है (जैसा की रोम दावा करता है)? क्या मैं विश्वासपूर्वक केवल ख्रीष्ट पर अपने उद्धार के लिए भरोसा कर सकता हूँ, या मेरा उद्धार पवित्रता को पाने की ओर मेरे प्रयासों और सफलता पर निर्भर करता है?

लगभग निश्चित रूप से, जो विचार लोगों को यह सोचने की और ले जाता है की धर्मसुधार इतिहास का एक छोटा सा भाग है जिससे अब हम आगे बढ़ सकते हैं, वो यह है कि धर्मसुधार उस समय की किसी समस्या की केवल एक प्रतिक्रिया मात्र थी। परन्तु जितने निकट से देखा जाता है, उतना स्पष्ट होता जाता है: धर्मसुधार मुख्यतः रोम और इसके भ्रष्टाचार से दूर हटने की कोई नकारात्मक गतिविधि नहीं थी; यह सुसमाचार की ओर बढ़ने की, एक सकारात्मक गतिविधि थी। और ठीक यही है जो आज धर्मसुधार की वैधता को संरक्षित रखता है। यदि धर्मसुधार पाँच सौ वर्ष पूर्व ऐतिहासिक परिस्थिति के प्रति मात्र एक प्रतिक्रिया होती, तो लोग इसके समाप्त होने की आशा करते। परन्तु एक कार्यक्रम के रूप में सुसमाचार के और निकट जाने के कारण, इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है।

एक अन्य आपत्ति यह है कि सकारात्मक सोच और आत्मसम्मान की आज की संस्कृति ने पापी को धर्मी ठहाराए जाने की सभी कथित आवश्यकताओं को मिटा डाला है। आज बहुत कम लोग परमेश्वर के अनुग्रह को पाने के लिए स्वयं को बालों से बने कपड़े पहने हुए और कड़ाके की ठण्ड में पूरी रात्रि प्रार्थना करते हुए पाते हैं। कुल मिलाकर, तब, लूथर की समस्या को ईश्वरीय न्यायी के सम्मुख दोष  बोध के कारण प्रताड़ित होने की समस्या को सोलहवीं शताब्दी की समस्या मान कर निरस्त कर दिया गया, और इसलिए उसके समाधान केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण को आज हमारे लिए अनावश्यक मान कर निरस्त कर दिया गया है।               

परन्तु वास्तव में ठीक इसी सन्दर्भ में लूथर का वह समाधान एक सुखद और प्रासंगिक समाचार के रूप में सुनाई देता है। क्योंकि, इस विचार को त्यागकर कि हम कभी परमेश्वर के सम्मुख दोषी होंगे और इसलिए उसके धर्मीकरण की आवश्यकता है, हमारी संस्कृति ने दोष बोध की पुरानी समस्या का कोई समाधान दिए बिना ही उसके आगे सूक्ष्मतर रीति से घुटने टेक दिए हैं। आज, हम सभी पर इस सन्देश की बौछार होती है कि हम से तब अधिक प्रेम किया जाएगा जब हम स्वयं को अधिक आकर्षक बनाएंगे। यह हो सकता है परमेश्वर-सम्बन्धी न हो, और फिर भी अभी भी यह कामों की भक्ति है, और वह जो कि गहराई से अन्तर्निहित है। उसके लिए, धर्मसुधार के पास सबसे उत्कृष्ट शुभ समाचार है। लूथर ऐसे शब्द बोलते हैं जो एक महिमावान और पूर्ण रूप से अप्रत्याक्षित सूर्य की किरण के समान धुंध को काटते हों।

परमेश्वर का प्रेम ढूँढता नहीं, परन्तु सृजन करता है, वह जो उसे भाता है . . . .अपनी भलाई की खोज करने के स्थान पर, परमेश्वर का प्रेम बहता और भलाई प्रदान करता है। इसलिए पापी आकर्षक हैं क्योंकि उनसे प्रेम किया जाता है; न कि उनसे इसलिए प्रेम किया जाता क्योंकि वे आकर्षक हैं। 

एक बार पुनः, समय आ चुका है

पाँच सौ वर्ष पश्चात्, रोमी कैथोलिक कलीसिया में अभी भी धर्मसुधार नहीं हुआ है। जबकि कई सारे प्रोटेस्टेन्ट और रोमी कैथोलिक लोगों द्वारा सार्वभौमिक एकता वाली भाषा का प्रयोग की जाती है, रोम फिर भी केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण का खण्डन करता है। ऐसा लगता है कि वह ऐसा कर सकता है क्योंकि पवित्रशास्त्र को उस सर्वोच्च अधिकार के रूप में नहीं माना जाता जिसके अधीन पोप, महासभाओं/परिषदों, और सिद्धान्त को होना चाहिए। और क्योंकि पवित्रशास्त्र को इतना अधिक बाहर निकाल दिया गया है, बाइबलीय शिक्षा को प्रोत्साहित नहीं किया जाता, और अतः लाखों रोमी कैथोलिक लोगों को अभी भी परमेश्वर के वचन के प्रकाश से दूर रखा जा रहा है।

रोमी कैथोलिकवाद के बाहर, केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण के सिद्धान्त को नियमित रूप से महत्वहीन,  त्रुटिपूर्ण सोच वाले, या भ्रम उत्पन्न करने वाला समझ कर दूर रखा जाता है। प्रेरित पौलुस द्वारा धर्मीकरण के अर्थ पर कुछ नए दृष्टिकोण, विशेषकर जब उन्होंने व्यक्तिगत हृदय परिवर्तन की किसी भी आवश्यकता पर बल को दूर करने का प्रयास करते हैं, तो उस से भ्रमित लोगों ने लूथर ने जिस लेख के बारे मे कहा था की इसे छोड़ा या इससे समझौता नहीं किया जा सकता है, उसी को छोड़ दिया या समझौता कर लिया के कभी हार न मान लेना या समझौता न करने को समझा कि-हार मान लेना या समझौता कर लेना।

अभी का समय धर्मीकरण या इसे घोषित करने वाले पवित्रशास्त्र के सर्वोच्च अधिकार से लजाने का समय नहीं है। केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण इतिहास की पुस्तकों का कोई अवशेष नहीं है; यह आज भी सर्वश्रेष्ठ स्वतन्त्रता का एकमात्र सन्देश बना हुआ है, गहरी सामर्थ्य के साथ मनुष्य को खोलने और फलने-फूलने का सन्देश। यह हमें हमारे पवित्र परमेश्वर के सम्मुख आश्वासन देता है और उन पापियों को जो परमेश्वर से मोल-भाव का प्रयास करते हैं उन्हें पवित्र लोग में परिवर्तित कर देता है जो परमेश्वर से प्रेम करते और उसका भय मानते हैं।

और इस शुभ समाचार को फैलाने के आज कितने ही अवसर हैं हमारे पास। पाँच सौ वर्ष पूर्व, गुटेनबर्ग के प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार का अर्थ था कि सुसमाचार की ज्योति उस गति से फैल सकती है जैसा पहले कभी देखा नहीं गया होगा । टिन्डेल की बाइबल और लूथर की सुसमाचारीय लघु पत्रिकाएँ (tracts) सहस्त्रों लोगों के पास जा सकते हैं। आज, डिजीटल तकनीक ने हमें एक और गुटेनबर्ग जैसा अवसर दिया है, और वही सन्देश अब उस गति से फैलाया जा सकता है जिसकी कभी लूथर ने कल्पना भी नहीं की होगी।

आवश्यकता और अवसर दोनों ही आज भी उतने ही बड़े हैं जितने पाँच सौ वर्ष पूर्व थे-वास्तविकता में, वे आज अधिक बड़े हैं। आइए धर्मसुधारकों की विश्वासयोग्यता से साहस लें और उसी अद्भुत सुसमाचार को ऊँचा रखें, क्योंकि इसने हमारे अन्धकार को दूर करने के लिए अपनी किसी महिमा या अपने सामर्थ्य को नहीं खोया है।        

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

माइकल रीव्ज़
माइकल रीव्ज़
डॉ माइकल रीव्ज़ वेल्स में यूनियन स्कूल ऑफ थियोलॉजी के अध्यक्ष और ईश्वरविज्ञान के प्रोफेसर हैं। वे यूरोपीयन थियॉलोजियन्स नेटवर्क के निर्देशक भी हैं। वे कईं पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें, रिजॉसिंग इन क्रीइस्ट है। वे लिग्निएर शिक्षण श्रृंखला द इंग्लिश रेफर्मेशन ऐण्ड द प्योरिटन्ज़ के मुख्य शिक्षक हैं।