धन्य होना
24 अगस्त 2021धन्य हैं वे जो शोक करते हैं
31 अगस्त 2021धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं
सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का दूसरा अध्याय है: धन्यवाणियाँ
हमारे परिवार ने कुछ ही दिन पहले शिकागो में सुन्दर और भव्य फील्ड संग्रहालय का भ्रमण किया। इसका नव-संस्थापक रूप उस क्षेत्र में छा जाता है।आप इस तक भिन्न भिन्न कोणों से पहुंच तो सकते हैं, परन्तु उसमें एक ही प्रवेश द्वार है। आपको लग सकता है कि आप इसके समीप हैं, फिर भी, इस पर निर्भर करते हुए कि प्रवेश द्वार के सम्बन्ध में आप कहाँ हैं, इसकी अधिक सम्भावना है कि आप अन्दर प्रवेश करने और खज़ाने को देखने से बहुत दूर हैं।
धन्य वाणी ख्रीष्ट के चरित्र की सुन्दर संरचना को प्रस्तुत करती हैं। जो मन के दीन हैं उनके लिए परमेश्वर की आशीषों को जाने बिना उसके धन को जानने और अपनाने के लिए प्रवेश नहीं है। यदि चौथी धन्य वाणी –“धन्य हैं वे जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएंगे” – भवन का केंद्र है, तो यह धन्य वाणी प्रवेश द्वार है। हमें खाली प्रवेश करना है ताकि हम भरे जा सकें।
आत्मिक रूप से खाली होने का अर्थ “मन के दीन” होना है। हम प्रायः “दीन” शब्द पर उलझ जाते हैं क्योंकि हम बहुत ही शीघ्रता से इसे भौतिक कमी से जोड़ देते हैं। परन्तु पवित्रशास्त्र में, पुराने नियम सहित, दीन का अर्थ अनिवार्य रूप से शारीरिक निर्धनता से नहीं है। यह प्राय: एक तकनीकी शब्द है, यह उन लोगों के लिए है, जो यह समझते हैं कि, मूलभूत रूप से, उन्हें शारीरिक और आत्मिक हर बात के लिए परमेश्वर की आवश्यकता है। यही अर्थ यशायाह का था जब उसने घोषणा की थी, “प्रभु यहोवा का आत्मा मुझ पर है, क्योंकि यहोवा ने कंगालों को सुसमाचार सनाने के लिए मेरा अभिषेक किया है” (यशायाह 61:1)।
यह पृष्ठभूमि स्पष्ट करती है कि यह मसीहा ही है जो “दीनों” की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा। शमौन ने यीशु ख्रीष्ट के लिए लूका 2:34 में कहा, “यह बालक बहुतों के पतन व उत्थान का कारण ठहराया गया है”। उत्थान से पहले क्या आता है? पतन—मृत्यु। यीशु ने क्या कहा? “मैं तुमसे सच सच कहता हूँ कि जब तक गेहूं का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है, परन्तु यदि मर जाता है तो बहुत फल लाता है” (यूहन्ना 12:24)। हमारी स्वाभाविक आत्मिक निर्धनता के कारण, यदि हम कभी भी ख्रीष्ट से भरे जाने वाले हैं तो हमारे स्वयं की मृत्यु अवश्य होनी चाहिए।
यह धन्य वाणी झूठी नम्रता को प्रोत्साहित नहीं करती है, डिकेंस के उरिय्याह हीप की निष्ठारहित नम्रता, जो प्राय: यह कहता था कि वह कितना “नम्र” व्यक्ति था। वह ऐसी नम्रता है जो अपनी ओर ध्यान आकर्षित करती है और इसलिए यह नम्रता है ही नहीं। न ही यह धन्य वाणी हमारे व्यक्तित्व को दबाने की मांग करती है। हमें “मन के दीन” बनने के लिए इस संसार से बाहर जाने या अपना नाम परिवर्तित करने की आवश्यकता नहीं है।
मन के दीन होना परमेश्वर का हमें स्वयं के प्रति और उसके प्रति उचित दृष्टिकोण को देने के बारे में है। हमें अपने आप को पाप के ऋण को उठाए हुए देखना है और, परिणामस्वरूप,परमेश्वर के सामने दिवालिया। अपने बारे में यह जानकर, हम दया के लिए केवल उसी एक को पुकारते हैं जो हमारे ऋण को मिटा सकता है और हमारे दिवालियापन में हमारी पूर्ति हो सकता है—हम परमेश्वर को पुकारते हैं।
यह जो कुछ हम देखते हैं उससे बहुत विपरीत प्रतीत होता है। हमारे युग की आत्मा हमें स्वयं को “व्यक्त” करने और स्वयं पर “विश्वास” करने के लिए कहती है। हम आत्म-निर्भरता, आत्म-पर्याप्तता, आत्म-विश्वास इत्यादि के बारे में हैं। धन्य वाणी के संस्कृति-विरोधी सत्य कहते है, “स्वयं को खाली करो ताकि परमेश्वर अन्दर आ सके।“ जब हम स्वयं से भरे होते हैं, हम परमेश्वर की उपस्थिति की आशीषों से चूक जाते हैं। यदि हम सदैव स्वयं से भरे हैं, तो हम मसीही भी नहीं हैं।
हम इस पहली धन्य वाणी से कभी आगे नहीं निकलते हैं। यह आधार है जिससे हम दूसरों पर बढ़ते हैं। यदि हम इसे आगे निकलते हैं, तो हम अपनी मसीहियत से आगे निकल जाते हैं। यीशु ने प्रकाशितवाक्य 3:17-18 में लौदीकिया की कलीसिया के लोगों से कहा कि वे कहते हैं कि वे धनवान हैं, धनी हो गए हैं, और उनको किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। वह उन्हें बताता है कि वे “दरिद्र” हैं और, इसलिए, उन्हें उससे आग में शुद्ध किया सोना मोल लेना चाहिए ताकि वे धनी हो सकें, अर्थात्, उसमें धनी।
इस धन्य वाणी की आधारभूत स्थिति लूका 18:9-14 में चुंगी लेने वाले में पायी जाती है। इस दृष्टान्त में फरीसी परमेश्वर के सम्मुख स्वयं पर और अपने कार्यों पर भरोसा करता है। इसके विपरीत, चुंगी लेने वाला कहता है, “हे परमेश्वर, मुझ पापी पर दया कर !” उसके बाद वायदा आता है:” प्रत्येक जो अपने आप को बड़ा बनाता है, दीन किया जाएगा; और जो अपने को दीन बनाता है, बड़ा किया जाएगा। “यदि हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करते हैं और वहाँ ख्रीष्ट में सन्तुष्ट होना चाहते हैं, हमें सर्वप्रथम “मन के दीन” होना होगा।