1 कुरिन्थियों 2:4 - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
मत्ती 18:20
7 जून 2022
1 कुरिन्थियों 13:13
14 जून 2022
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1 कुरिन्थियों 2:4

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का छठवा अध्याय है: उस पद का अर्थ वास्तव में क्या है?

सेवकाई करने की रीति महत्व रखती है। पहला कुरिन्थियों 2:4 हमें बताता है कि पौलुस ने अपनी पूरी सेवकाई के लिए एक ऐसी प्रणाली को निश्चित किया जिसका उसके सन्देश के साथ सामन्जस्य हो। पौलुस का सन्देश था ख्रीष्ट, जो क्रूस पर मरा और जी उठा (1 कुरिन्थियों 15:1-4), इसलिए उसकी प्रणाली को भी दिखावे या स्वयं को बढ़ावा देने के स्थान पर क्रूस अनुरूप होना था। एक प्रचारक कैसे अपने सन्देश को प्रस्तुत करता और स्वयं को रखता है उससे वह या तो परमेश्वर द्वारा सौंपे सन्देश के अर्थ का चित्रण करता है या उससे ध्यान हटा देता है।

यह वह सेवकाई तर्क है जो पौलुस के “ज्ञान के लुभाने वाले शब्दों” पर भरोसा करने की अस्वीकृति के पीछे निहित है। यूनानी-रोमी संसार के समान, कुरिन्थियों का भी मानना था कि सामाजिक स्थिति और सफलता प्राप्त करने के द्वारा महान दिखने के लिए, स्वयं को समाज के प्रख्यात पुरुषों के साथ स्थापित करने, और उनके समान दिखने और उन्हीं के समान बात करने के लिए, बुद्धि ही योग्यता है। सांस्कृतिक बुद्धि उस समय के प्रसिद्ध वक्ताओं, या कुतर्कियों (sophists) में प्रकट थी। ये वे प्रसिद्ध लोग थे जो जानते थे कि स्वयं को कैसे प्रस्तुत करना है और अनुयायियों, समाजिक स्थिति, और सफलता प्राप्त करने के लिए कैसे बोलना है भले ही उनका सन्देश खोखला हो।

तो, जब पौलुस कहता है कि उसने “लुभाने वाले शब्दों” का उपयोग न करने का निर्णय लिया है, तो वह यह नहीं कह रहा था कि वह अपने विचारित दृष्टिकोण को प्रचार और शिक्षा तक नहीं ले जाएगा, या यह कि वह शब्दों का कैसे प्रयोग करता है इसका कोई महत्व नहीं है (2 तीमुथियुस 2:15)। उसने एक महान व्यक्ति के रूप में अपने सन्देश को लुभावनेपन पर आधारित न करने का निर्णय लिया। ऐसा नहीं था कि अपने प्रचार और शिक्षा में उसने सावधानीपूर्वक सोचा या विचारपूर्वक तर्क-वितर्क नहीं किया था (प्रेरितों के काम 18:9)। उसने अपनी निर्बलता को न छिपाने का निर्णय लिया ताकि पवित्र आत्मा की सामर्थ्य उसके सन्देश में प्रकट हो (2 कुरिन्थियों 4:7; 12:9-10)।

पौलुस की पत्री के सन्दर्भ पर एक संक्षिप्त दृष्टि हमें दिखाती है कि यह क्यों महत्व रखता है। कुरिन्थुस की कलीसिया अगुवों को लेकर विभाजित थी (1 कुरिन्थियों 1:12-13; 3:3-5)। यह निश्चित ही ईश्वरविज्ञानी असहमति नहीं थी। पौलुस और पतरस ने, प्रेरितों के रूप में, उसी सिद्धान्त को सिखाया जो ख्रीष्ट ने सिखाया था (हमारा विश्वास इसी पर निर्भर करता है; इफिसियों 2:20)। और यही नहीं, कि पौलुस ने सैद्धान्तिक विभाजन को महत्वहीन नहीं समझा (रोमियों 16:17-18)। यह विभाजन लगभग निश्चित रूप व्यक्तित्वों के प्रति निष्ठा को ले कर था—चाहे अपुल्लोस के प्रति हो या पौलुस के प्रति (1 कुरिन्थियों 4:6)। अपुल्लोस स्पष्टतः एक प्रतिभावान वक्ता था (प्रेरितों के काम 18:24), और कुरिन्थुस ने सोच लिया था कि पौलुस ऐसा नहीं है (2 कुरिन्थियों 10:10)। सांस्कृतिक रूप से प्रभावी मसीही इस बात से भयभीत थे कि पौलुस की “निर्बलताएँ और थरथराहट” (उसके दुख उठाने समेत; 1कुरिनन्थियों 4:9-13) उनके पड़ोसियों की संवेदनशीलता को आकर्षित नहीं करेंगी। तो, पौलुस ने उन्हें यह दिखाना चाहा कि उसकी निर्बलता को ग्रहण करने वाली, सहने वाला दुख, स्वयं का मिटा देने वाली सेवकाई रीति को उसके स्वयं के विषय में नहीं परन्तु ख्रीष्ट, उसके क्रूस के उसके सन्देश को, और कैसे वह सबसे बुरे और निर्बल पापी को बचाता है यह समझाने के लिए तैयार किया गया है (1:17-31)।

सन्दर्भ को समझना हमारी यह देखने में सहायता करता है कि क्यों 1 कुरिन्थियों 2:4 को सुसमाचार की सेवकाई के लिए एक बौद्धि-विरोधी, सुविचारित अशिक्षित दृष्टिकोण के बहाने के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए। पौलुस यहाँ उसका विरोध नहीं करता जिसको उसने अन्य स्थानों पर किया और निर्धारित किया है—दृढ़ता से पवित्रशास्त्र से तर्क करना और समझाना (प्रेरितों के काम 17:16-31‌) और आत्मिक उन्नति के लिए हमारे मनों का भण्डारी बनना (रोमियों 12:2)। फिर भी, वह यह अवश्य सिखाता है कि जो वचन की सेवकाई करते हैं, अपने सांस्कृतिक सन्दर्भ में, उन्हें एक सचेत निर्णय लेना चाहिए, कि कैसे अपनी सेवकाई का ध्यान सन्देश पर रखें जिसको उन्हें सौंपा गया है (पूरे पवित्रशास्त्र से ख्रीष्ट) और वह साधन जिसके द्वारा वह सन्देश प्रभावी बना है (पवित्रशास्त्र के माध्यम से पवित्र आत्मा का सामर्थ्य में कार्य करना)।

लोकप्रिय सफलता को पाने का सेवकों और कलीसियाओं पर संस्कृति की लुभावनी संरचनाओं  पर निर्भर रहने का निरन्तर दबाव है। पौलुस सुसमाचार को विक्रयशील बनाने के लिए इस प्रकार की बुद्धि को प्रयोग में न लाने का सुविचारित निर्णय लेता है। इसके स्थान पर, वह एक सेवक द्वारा प्रदर्शित ख्रीष्ट के आत्मा-सशक्त घोषणा को प्राथमिकता देने और भरोसा करने का निर्णय लेता है, जिसका आचरण परिणामस्वरूप कहता है, “यह सेवकाई मेरे विषय में नहीं है” (देखें 1 कुरिन्थियों 1:31; 2:5)।

एक प्रचारक का आचरण महत्व रखता है। जिस प्रकार से वह चलता है वह या तो उस सन्देश के साथ विश्वासघात करेगा जिसका भण्डारी होने का वह दृढ़ कथन करता है (1:17) या जो उसे सुनते हैं उनके लिए सत्य का प्रमाण देगा (2 कुरिन्थियों 4:2; 7,2 तीमुथियुस 2:21)। वह अपनी अगुवाई के मंच को स्वयं के ज्ञान, उपहारों, और व्यक्तित्व को अधिक समझाने के उपयोग के लिए चुन सकता है, या वह उस मंच के उपयोग का निर्णय परमेश्वर के इच्छित उद्देश्य-ख्रीष्ट को अधिक समझाने के लिए ले सकता है। मसीही अगुवों और प्रचारकों को निरन्तर सचेत निर्णय लेने चाहिए कि वे सेवकाई कैसे करेंगे। वे संस्कृति की बुद्धि का पालन और महान व्यक्ति के पंथ के पीछे चल सकते हैं, या वे उस उद्धारकर्ता की क्रूसरूपी छवि को अपना सकते हैं जिसकी वे सेवा करते हैं (लूका 22:24-27) और उन साधनों की निर्भरता पर जी सकते और सेवा कर सकते हैं जिसे उसने नियुक्त किया है। पहला कुरिन्थियों 2:1-4 हमें स्मरण कराता है कि सबसे सामर्थी सन्देश वह है जो इस प्रकार से दिया जाए जो कि ख्रीष्ट-केन्द्रित, आत्मा-निर्भर, और क्रूस अनुरूप हो।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया
जॉन कर्री
जॉन कर्री
डॉ. जॉन कर्री फिलाडेल्फिया में वेस्टमिन्स्टर थियोलॉजिकल सेमिनेरी में पास्टरीय ईश्वरविज्ञान के विभाग संयोजक और ऑर्थोडॉक्स प्रेस्बिटेरियन चर्य में एक सेवक हैं।