1 कुरिन्थियों 13:13 - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
1 कुरिन्थियों 2:4
9 जून 2022
गलातियों 3:28
16 जून 2022
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1 कुरिन्थियों 13:13

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का सातवा अध्याय है: उस पद का अर्थ वास्तव में क्या है?

स्पष्ट बाइबलीय शिक्षा को क्षीण करने के लिए प्रायः यह आपत्ति उठायी जाती है: “परन्तु यह प्रेममय नहीं है।” “एक प्रेमी परमेश्वर किसी को भी अनन्त न्याय से दण्डित नहीं करेगा,” एक बुरी व्याख्या है जो परमेश्वर के न्याय को शक्तिहीन करने का प्रयास करता है। प्रेम अपने बाइबलीय आधार से पृथक हो गया है, संस्कृति में दिशाहीन हो गया है, और अब सांस्कृतिक अच्छाई के नए धर्म को जाने लगा है। परन्तु जब हम संस्कृति और पवित्रशास्त्र के पृष्ठों से बाहर निकल जाते हैं, तो भी हम प्रेम के बाइबलीय अर्थ की त्रुटिपूर्ण व्याख्या कर सकते हैं। और उन त्रुटिपूर्ण व्याख्याओं में से एक व्याख्या वहाँ से ली गयी है जो विवादस्पद रूप से प्रेम के विषय पर बाइबल में सबसे लोकप्रिय अध्याय है: 1 कुरिन्थियों 13।

1 कुरिन्थियों 13:13 में,  पौलुस लिखता है, “पर अब विश्वास, आशा, प्रेम, ये तीनों स्थायी हैं, परन्तु इनमें सबसे बड़ा प्रेम है,” यह कुछ मसीहियों यह निष्कर्ष निकालने की ओर अग्रसर करता है कि प्रेम विश्वास या आशा से अधिक महत्वपूर्ण है। निश्चित रूप से, यह एक समस्या तब तक नहीं प्रतीत हो सकती, जब तक, यह तीनों विशेषताएँ—विश्वास, आशा, और प्रेम—जिन्हें परमेश्वर द्वारा पारस्परिक रूप से बढ़ावा देने के लिए तैयार है, इस प्रकार से निर्मित हो कि तीनों में से किसी एक को कम करना उन सबकी सम्पूर्णता को क्षीण कर देना हो।  एक बेकर (baker) आपको बताएगा कि ब्रेड के महत्वपूर्ण तत्व खमीर, पानी, आटा, और नमक हैं। यदि हम सहमत होते हैं कि बिना नमक की ब्रेड अपेक्षाकृत बेस्वाद होती है और यह निष्कर्ष निकालते हैं कि नमक इन सबमें श्रेष्ठ है, तो हम अपनी ब्रेड के साथ कुछ समस्याओं का सामना करेंगे क्योंकि हम आटा, खमीर, और पानी डालने पर कम ध्यान देंगे। उसी प्रकार, प्रेम जो विश्वास और आशा के साथ सन्तुलित नहीं है बाइबलीय प्रेम की यथार्थ परिभाषा को क्षीण कर देता है।

प्रेम, विश्वास और आशा के प्रतिसन्तुलन के बिना, प्रेमरहित हो जाता है। जब हम विश्वास पर विचार करते हैं तो, संक्षिप्त और सामान्य रूप से, हम देखते हैं कि बाइबल विश्वास शब्द का उपयोग तीन प्रकार से करती है। विश्वास हमारे उद्धार का साधन (इफिसियों 2:8), परमेश्वर और उसके कार्यों में दृढ़ भरोसा (मत्ती 16:8; 17:20; इब्रानियों 11:1), या शास्त्रसम्मत सिद्धान्त (यहूदा 3) हो सकता है। 1 कुरिन्थियों 13 और पुस्तक के शेष भागों में पौलुस जिस प्रकार से विश्वास का उपयोग करता है उसका सन्दर्भ अत्यन्त शक्तिशाली रूप से इस खण्ड में विश्वास की समझ का समर्थन करता है जैसा कि परमेश्वर के व्यक्ति और कार्य में आत्मा-प्रदत्त भरोसा विशेषकर जैसा यीशु में प्रकट हुआ है (2 कुरिन्थियों 5:7)। बाइबलीय विश्वास, जैसा कि इस अध्याय में उपयोग किया गया है, मसीही के प्रेम—महिमावान परमेश्वर के उद्देश्य को परिभाषित करने के द्वारा प्रेम को सन्तुलित करता है। जब प्रेम को विश्वास के बहिष्करण से अधिक प्राथमिकता दी जाती है, प्रेम अपने पात्र को— जो धन्य परमेश्वर है, खो देता है।

यही समस्या तब भी होती है जब हम आशा पर विचार करते हैं। आशा विश्वास की दृढ़ता है, वह दृढ़ अपेक्षा कि वह परमेश्वर जिस पर भरोसा किया जा सकता है अपनी सारी प्रतिज्ञाओं को पूरा करेगा। तो, अब एक आशाहीन प्रेम की कल्पना कीजिए। यदि परमेश्वर के प्रति हमारे प्रेम की कोई अपेक्षाएँ नहीं है सब बातें अन्त में परमेश्वर की महिमा और हमारी भलाई के लिए होंगी (रोमियों 8:28), तब प्रेम एक अस्थिर और क्षणिक वस्तु बन जाएगा, मात्र एक व्यक्तिपरक मनोभाव, जो कि समर्पण और वाचा के पृथक है, और उथली शुभकामनाओं और सामान्य अच्छाई में हस्तान्तरित हो रहा है।         

तब, समस्या यह है। यदि हम 1 कुरिन्थियों 13:13 को इस प्रकार से पढ़ते हैं जो प्रेम को विश्वास और आशा से अधिक महत्व देता है, तो बाइबलीय प्रेम स्वयं ही खो जाएगा। प्रेम को जीवित रहने और फलने फूलने के लिए विश्वास और आशा की आवश्यकता है। ऐसा हम स्पष्ट रूप से तब देखते हैं जब 1 कुरिन्थियों 13:13 पर पूरे अध्याय के सन्दर्भ में विचार करते हैं। 1 कुरिन्थियों 13 में, पौलुस पहले प्रेम को मसीही जीवन यापन की आवश्यक सामग्री के रूप में दिखाता है (पद 1-3)। फिर बाइबलीय प्रेम की परिभाषा पर विचार करने की ओर बढ़ता है (पद 4-7)। फिर वह विश्वास, आशा, और प्रेम को एक ऐसी समय-रेखा पर रखता है जो वर्तमान मसीही जीवन से लेकर उस समय तक जाती है जब यीशु पुनः आयेगा और सब बातों का समापन करेगा।महत्व की दृष्टि से विचार करने पर विश्वास, आशा, और प्रेम एक समान हैं। आयुकाल की दृष्टि से विचार करें तो, “इनमें सबसे बड़ा प्रेम है।”। सीधी रीति से, विश्वास और आशा की स्वर्ग में आवश्यकता नहीं है। यदि विश्वास परमेश्वर और उसके कार्यों पर वर्तमान भरोसा है, जो कि इस विश्वास-रहित पतित संसार में वर्तमान में प्रायः निकलने वाले निष्कर्ष से विपरीत है (2 कुरिन्थियों  5:7), तब हमें स्वर्ग में विश्वास की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि जैसा परमेश्वर है हम अन्ततः और स्पष्टतः देखेंगे (1 कुरिन्थियों 13:12)। उसी प्रकार से, हमें आशा की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि हम उस पर पूर्ण अधिकार कर लेंगे जिसकी हमने आशा करी थी। हमारे पास वह सब होगा जिसकी कभी हम आशा कर सकते थे  क्योंकि परमेश्वर की सभी प्रतिज्ञाएँ पूरी हो जाएँगी। किन्तु, स्वर्ग में प्रेम निरन्तर बना रहेगा और सदैव से अधिक सामर्थी होगा क्योंकि मसीही अपने महान परमेश्वर को सदैव के लिए पूर्ण रूप से प्रेम करेंगे। एक अनन्त घटनाक्रम पर देखे जाने पर, प्रेम विश्वास और आशा से इस प्रकार से उत्तम है जो कि तीनों के उद्देश्यों का सम्मान करता है।

जबकि हम यीशु के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं, हमें विश्वास, आशा, और प्रेम तीनों की एक समान और बढ़ती हुई मात्रा में आवश्यकता है। हमें तीनों को को बाइबल के आधार पर परिभाषित करने और प्रतिसन्तुलित करने की अनुमति देनी चाहिए। तीनों के विनाश के लिए प्रेम को प्राथमिकता देने के प्रलोभन की अनुमति हम 1 कुरिन्थियों 13:13 की एक त्रुटिपूर्वक व्याख्या को नहीं दे सकते। परन्तु साथ ही हमें, विश्वास और आशा के द्वारा,स्वर्ग की ओर निहारना है जो उन सभी बातों की परिपूर्ति होगा, जब अन्ततः हमारे हृदय की इच्छाएँ हमारे पास होंगी: अनन्त काल तक ख्रीष्ट को पूर्ण रूप से और अन्ततः प्रेम करना।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया
जो हॉलैण्ड
जो हॉलैण्ड
रेव्ह. जो हॉलैण्ड प्रेस्बिटेरियन चर्च इन अमेरिका में एक शिक्षक प्राचीन हैं।