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1. अभी प्रभु की आज्ञाकारिकता को प्राथमिकता देने का समय है।
हाग्गै की पुस्तक बहुत निरूत्साहित लोगों को लिखी गई थी। बेबीलोन से यहूदा लौटकर आए हुए लोगों ने घर लौटकर अपने जीवन को बहुत ही कठिन पाया। चारों ओर से शत्रुओं से घिरे होने के कारण उन्हें अपने मूल-देश और अपने पिछले जीवन का पुनर्निर्माण करना उनकी कल्पना से कहीं अधिक कठिन प्रमाणित हो रहा था, और उनके लिए यशायाह 40-66 की महिमामय प्रतिज्ञाओं का अनुभव करना बहुत दूर लग रहा था। परिणामस्वरूप, उन्होंने मन्दिर-पुनर्निर्माण परियोजना को तब तक के लिए रोक दिया जब तक कि उनका जीवन सरल न हो जाए। यह स्वतः स्पष्ट लग रहा था कि अब यह समय ऐसी महत्वाकांक्षी योजनाओं के लिए नहीं था (हाग्गै 1:2)।
परन्तु, प्रभु का दृष्टिकोण अलग था। प्रभु ने बताया कि उन लोगों ने तो स्वयं के लिए सुन्दर दिखने वाले लकड़ी के मकान बनाने के लिए संसाधन ढूँढ लिया है (हाग्गै 1:4; 1 राजा 6:9; 7:3, 7 को भी देखें)। इस बीच, उनकी अन्य गतिविधियाँ उनकी अवज्ञा के कारण परमेश्वर के शाप के अधीन थीं (हाग्गै 1:5–6)। उन्हें अपने मार्गों पर विचार करना चाहिए, बहाने बनाना समाप्त करना चाहिए और प्रभु की आज्ञाकारिता को प्राथमिकता देनी चाहिए (हाग्गै 1:8)। राज्यपाल जरुब्बाबेल और महायाजक यहोशू के नेतृत्व में, लोगों ने हाग्गै के वचनों को सुना और परिश्रम करने में लग गए (हाग्गै 1:12)। प्रभु उनके साथ था, और उसने उनकी आत्माओं को उत्तेजित किया कि वे एक साथ मिलकर मन्दिर जो उसके लोगों के साथ प्रभु की उपस्थिति का दृश्यमान प्रतीक था के पुनर्निर्माण के कार्य में लगें(हाग्गै 1:14)।
2. उत्तम बातों का आना अभी शेष है।
जब लोग यरूशलेम में मन्दिर के पुनर्निर्माण का कार्य करने लगे, तो सम्भवतः उनको निरूत्साहित करने वाली एक और बात सामने आयी। इस नए मन्दिर में वह महिमा नहीं थी जो इसके पूर्ववर्ती में थी (हाग्गै 2:2–3)। यद्यपि यह सुलैमान के मन्दिर के समान आकार था, परन्तु इसमें न केवल भारी मात्रा में चाँदी और सोने की कमी थी, यह अब किसी महान् राज्य और साम्राज्य का केन्द्रीय प्रतीक भी नहीं था, जैसा कि सुलैमान के दिनों में था। इससे भी अधिक बुरी बात यह है कि बेबीलोनियों द्वारा नाश किए जाने से पहले ही प्रभु की महिमा भवन से चली गई थी (यहेजकेल 10)। परमेश्वर की उपस्थिति की लौटकर आने की प्रतिज्ञा के बिना (देखें यहेजकेल 43), मन्दिर एक मूल्यहीन और खोखला ढाँचा ही बनकर रह जाता। फिर भी नबियों के द्वारा प्रभु के वचन ने लोगों को यह देखने के लिए उत्साहित किया कि परमेश्वर वास्तव में उनके मध्य में लौट आया है, यद्यपि उसके लौटने के फल अभी तक दिखाई नहीं दे रहे थे (हाग्गै 2:4–5)। लोगों को दृढ़ होना चाहिए और कार्य करना चाहिए – यही आज्ञा जो पहले यहोशू और फिर स्वयं सुलैमान के दिनों में दी गयी थी (यहोशू 1:6; 1 राजा 2:2)। वही परमेश्वर जो इस्राएलियों के साथ तब था जब वे म्रिस से निकले थे, और वही अब भी उनके साथ है, और वह यह सुनिश्चित करेगा कि उनका परिश्रम व्यर्थ न जाए (हाग्गै 1:13)।
फिर भी जो वे अपनी आँखों से देख सकते थे वह प्रभु के कार्य का अन्तिम माप नहीं था। वे पीछे मुड़कर देख सकते थे और अतीत में जो उसने उनके लिए किया है उससे प्रोत्साहन प्राप्त कर सकते थे, परन्तु उन्हें यह भी स्मरण रखने की आवश्कता थी कि प्रभु भविष्य में क्या करने जा रहा था (हाग्गै 2:6–9)। एक दिन आने वाला था जब प्रभु इस वर्तमान संसार की व्यवस्था को परिवर्तित कर देगा, वह इसे उलट-पलट देगा और राष्ट्रों को उनके उचित स्थान पर रखेगा, जबकि अपने लोगों के लिए वह आशीष प्रदान करेगा और उसके मन्दिर से शान्ति (शालोम) प्रवाहित होगी।
3. प्रभु की प्रतिज्ञाएँ वर्तमान और भविष्य को जोड़ती हैं।
यरूशलेम के मन्दिर में सन्निहित परमेश्वर की अपने लोगों के साथ रहने की प्रतिज्ञा, दाऊदीय वंश में सन्निहित आने वाले मसीहा की प्रतिज्ञा, हाग्गै की नबूवत में ये दोनों बातें कड़ियों के समान आपस में जुड़ी हुई हैं (देखें 2 शमूएल 7)। नबी के कार्य के आरम्भ में ये दोनों बातें ही संदेह के घेरे में दिखती हैं: यरूशलेम का मन्दिर अभी भी खण्डहर है, प्रभु की महिमा द्वारा त्याग दिया गया है, और दाऊदीय वंश कटा हुआ प्रतीत होता है, वह त्यागी गई मुहरबद्ध अँगूठी के समान प्रभु द्वारा अस्वीकार कर दिया गया है (देखें यिर्मयाह 22:24-26)। पुस्तक के अन्त में पुनर्स्थापन के कुछ वास्तविक प्रमाण मिलते हैं– मन्दिर का पुनर्निर्माण हो गया है और राज्यपाल जरुब्बाबेल, जो दाऊद का वंशज था, को परमेश्वर की चुनी हुई मुहरबद्ध अँगूठी के रूप में पुष्टि की जाती है (हाग्गै 2:23)। मन्दिर अभी भी महिमा से रहित था, और राज्यपाल कोई राजा नहीं था, न ही वह प्रतिज्ञा किया गया मसीहा था। लोगों को विश्वास से जीना होगा, यह मानते हुए कि परमेश्वर उनके मध्य जो अच्छे कार्य कर रहा था, वे अन्तिम दिन में पूरे होंगे।
दोनों ही प्रतिज्ञाऐं आगे को यीशु ख्रीष्ट की ओर संकेत करती हैं । वह परमेश्वर का सच्चा मन्दिर है (यूहन्ना 2:19), वह जिसमें परमेश्वर की महिमा हमारे मध्य में निवास करने के लिए आ गई (यूहन्ना 1:14)। इम्मानुएल (“परमेश्वर हमारे साथ”) के रूप में, यीशु ने शारीरिक रूप से अपने लोगों के मध्य परमेश्वर की उपस्थिति का प्रतिनिधित्व किया। अब जब यीशु स्वर्ग पर चढ़ गया है और उसने अपनी आत्मा को कलीसिया पर उण्डेल दिया है, तो अब संसार में परमेश्वर की उपस्थिति का प्रतिनिधित्व हमारे द्वारा, उसके लोगों के द्वारा होता है। ख्रीष्ट की देह के रूप में, कलीसिया नया मन्दिर है, जो यहूदियों और अन्यजातियों से मिलकर बना है, जिसे परमेश्वर का निवास्थान होने के लिए एक साथ बनाया गया है। (इफिसियों 2:16-22; 2 कुरिन्थियों 6:16-7:1 देखें)।
हम भी जरूब्बाबेल के महान् पुत्र यीशु ख्रीष्ट की ओर ही देखते हैं, जिस में हमारी आशा पायी जाती है (मत्ती 1:13)। लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उसके पास भी कोई रूप या प्रताप नहीं था, उसने दास का स्वरूप धारण किया, और क्रूस पर मृत्यु के स्थान तक और भी नीचे गया (फिलिप्पियों 2:5–8)। उसकी आज्ञाकारिता के कार्य के परिणामस्वरूप, परमेश्वर ने अपने अभिषिक्त के नाम को प्रत्येक नामों के ऊपर स्थापित किया है (फिलिप्पियों 2:9–11)। वर्तमान में, जब हम स्वर्ग और पृथ्वी के अन्तिम हिलाये जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो हमारी बुलाहट को विश्वायोग्य होना है, यह जानते हुए कि ख्रीष्ट की मृत्यु और पुनरुत्थान के प्रकाश में, प्रभु में हमारा श्रम व्यर्थ नहीं है (1 कुरिन्थियों 15:58)।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।