
यीशु पुनरुत्थान और जीवन कैसे है?
26 जून 2025
यीशु मार्ग, सत्य और जीवन कैसे है?
1 जुलाई 2025जब संसार विजयशील प्रतीत हो

जब हमें ऐसा लगे कि संसार की दुष्टता और कलिसिया में व्याप्त समझौता परमेश्वर के राज्य पर प्रबल हो रहे हैं, तो हमें क्या प्रतिक्रिया देनी चाहिए? मत्ती 13:24–43 में, यीशु परमेश्वर के राज्य के स्वरूप के विषय में शिक्षा देता है — जिसे मत्ती अधिक विशिष्ट रूप से “स्वर्ग का राज्य” कहता है। वह हमें तीन दृष्टान्त प्रस्तुत करके यह समझने में सहायता करता है कि इस राज्य की वृद्धि कैसे होती है: जंगली बीज का दृष्टान्त, राई के बीज का दृष्टान्त, और खमीर का दृष्टान्त। और जैसा कि हम आगे देखेंगे, राज्य की वृद्धि कैसे होती है, इस विषय में ये सत्य कठिन दिनों में परमेश्वर के लोगों को प्रोत्साहन और दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
राज्य के विषय में ख्रीष्ट की शिक्षा
राज्य का विषय हमारे प्रभु की शिक्षा और कार्यों में महत्वपूर्ण रूप से पाया जाता है। वास्तव में, उसके सार्वजनिक सेवकाई का पहला कथन था, “मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है” (मत्ती 4:17)। ऐसा कहते हुए, यीशु ने घोषणा की कि राज्य निकट है क्योंकि राजा का आगमन हो गया है। यह राजा ही है जो राज्य को प्रकट करता है और राज्य पर शासन करता है, और यह राजा ही है जो हमें राज्य में प्राप्त होने वाले आशीषों के विषय में स्मरण कराता है।
पहाड़ी उपदेश की धन्य वाणियों में, यीशु दो बार राज्य के विषय में बात करता है: “धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है” और “धन्य हैं वे जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है” (मत्ती 5:3, 10)। इन खण्डों में, यीशु कहता है कि स्वर्ग का राज्य पीड़ितों, संघर्ष करने वालों और दुर्बलों के लिए एक राज्य है। वह लोगों के लिए प्रोत्साहन लाता है, तथा संघर्ष करने वालों के लिए आशीष का वचन लेकर आता है: “राज्य आ रहा है।”
अपनी सम्पूर्ण सेवकाई की अवधि में, यीशु भिन्न-भिन्न कोणों से और भिन्न-भिन्न रीतियों से राज्य के विषय पर शिक्षा देता है। जब यीशु ने अपने शिष्यों को प्रार्थना करना सिखाया, तो उसने उन्हें राज्य के लिए प्रार्थना करने का निर्देश दिया: “तेरा राज्य आए” (मत्ती 6:10)। उसने राज्य के विषय में एक चेतावनी भी दी: “प्रत्येक जो मुझसे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु’ कहता है, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा, परन्तु जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है, वही प्रवेश करेगा” (मत्ती 7:21)। पहाड़ी उपदेश में, उसने सिखाया, “पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो तो यह सब वस्तुएँ तुम्हें दी जाएँगी” (मत्ती 6:33)।
यीशु ने अपने शिष्यों से यह भी कहा, “तुम्हें यह प्रदान किया गया है कि स्वर्ग के राज्य के भेदों को जानो” (मत्ती 13:11)। इसका अर्थ है कि स्वर्ग के राज्य की वास्तविकता हर किसी के लिए तत्काल रूप से स्पष्ट नहीं होती है। हमें इसके विषय में सिखाए जाने की आवश्यकता होती है। हमें इसमें विकसित किया जाना चाहिए। राज्य के विषय में ये सत्य हम पर प्रकट की जानी चाहिए, और मत्ती 13 में दिए गए इन तीनों दृष्टान्तों में, यीशु हमें इस राज्य के विषय में समझाता है और यह भी कि इसकी वृद्धि कैसे होती है।
मसीही होने के नाते, हम परमेश्वर के वचन और ख्रीष्ट के सत्य की वृद्धि होते हुए देखने की लालसा करते हैं। हम प्रायः सोचते हैं कि हम कैसे प्रभु की सेवा करें, हम कैसे उसे और अधिक निकटता से जानें, और हम संसार को उसके वचन की घोषणा करने के प्रसंग में कैसे प्रभावपूर्ण रूप से कार्यरत हों। जब हम इन प्रश्नों पर विचार करते हैं, तो हमें इन दृष्टान्तों के उद्देश्य को समझना चाहिए। उनमें, यीशु सिखाता है कि राज्य उस प्रकार से वृद्धि नहीं करता है जिस प्रकार से हम सोचते हैं कि इसे वृद्धि करना चाहिए।
हम सभी के जीवन में ऐसा अनुभव अवश्य हुआ होगा, जब हमने सोचा होगा, “प्रभु इस प्रकार से क्यों कार्य कर रहा है?” हम भक्ति के चलते इसे ऊँचे स्वर में नहीं कहते हैं, परन्तु हम मन ही मन यह भी सोच सकते हैं, “मेरे पास उनसे उत्तम योजना होती।” यह वही स्थिति है, जिसे यीशु इन दृष्टान्तों में सम्बोधित करते हैं।
गेहूँ और जंगली बीज की योजनाबद्ध अव्यवस्था
मत्ती 13:27 में, दास स्वामी से पूछते हैं: “हे स्वामी, क्या तूने अपनी भूमि में अच्छा बीज नहीं बोया था? फिर उसमें जंगली घास कहाँ से आई?” इस दृष्टान्त में स्वामी यीशु का प्रतिनिधित्व करता है, जो हर वस्तु का प्रभारी है। वह जो चाहता है, वही होगा। उसके पास सम्पूर्ण शक्ति और अधिकार है, और उसने अच्छा बीज, अर्थात् अपना वचन बोया है। यह दृष्टान्त बोने वाले के दृष्टान्त के ठीक पश्चात् आता है, इसलिए बीज, बीजों की बुआई और फल के विचार यीशु के मन में उपस्थित हैं। प्रश्न दासों की ओर से आता है: “यदि आप, शक्तिशाली स्वामी, ने अच्छे बीज बोए हैं, तो हम जंगली घास क्यों उगते हुए देखते हैं?”
दासों के प्रश्न में एक अन्तर्निहित आलोचना है। मानो वे कह रहे हों: “आप इससे अच्छा कर सकते थे। क्या आपको यह बीज कम मूल्य पर मिला? क्या यह अच्छे और बुरे बीज का मिश्रण है? जब हम उपज को देखते हैं तो स्पष्ट रूप से हमें गेहूँ की सुन्दर, सीधी कतारें उगती हुई नहीं दिखती हैं। इसके विपरीत, हम गेहूँ और जंगली घास को एक साथ उगते हुए देखते हैं। स्थिति बहुत अव्यवस्थित है।”
मैं सोचता हूँ कि हम सभी—विभिन्न रीतियों से और विभिन्न समयों में—जीवन को अव्यवस्था की स्थिति में देखते हैं: यह जिस प्रकार घटित हो रहा है, वह क्यों हो रहा है? यह इससे सरल क्यों नहीं हो सकता? यह और अच्छे ढंग से क्यों नहीं हो सकता? यदि यीशु प्रभारी है, तो उसके राज्य की उन्नति में बातें अधिक स्पष्ट रूप से सफल क्यों नहीं हैं? यही इस समस्या का वास्तविक सार है। परन्तु, जो विषय दासों को अव्यवस्थित लगता है, वह यीशु के अनुसार अव्यवस्थित नहीं है।
यदि आप मेरे कार्यालय में आए, तो आपको यहाँ सब कुछ अस्त-व्यस्त मिलेगा। मेरी पत्नी कदाचित् ही द्वार से अन्दर देखती है। वह बस अपना सिर हिलाती है और कहती है, “आप इस अव्यवस्थित परिवेश में कैसे कुछ कर सकते हैं?” मैं उत्तर देता हूँ: “मुझे पता है कि हर ढेर में क्या है। यह मेरी भूल नहीं है कि अलमारियों पर पुस्तकों के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, इसलिए उन्हें चारों ओर ढेर करके रखना पड़ता है। मैं मानता हूँ कि यह अव्यवस्थित है, परन्तु यह अनजाने में हुई अव्यवस्था है।”
इसके विपरीत, यीशु यहाँ कह रहा है कि इस संसार की अव्यवस्था अनजाने में नहीं हुई है; इस संसार की अव्यवस्था के पीछे योजना है। दुष्ट (शैतान) परमेश्वर के राज्य की उन्नति का विरोध कर रहा है। परमेश्वर के राज्य की वृद्धि को दुर्बल करने और उसे नष्ट करने का एक योजनाबद्ध प्रयास किया जा रहा है। जब हम नहीं देख रहे थे, तब शत्रु ने खेत में जंगली बीज बो दी, और हमें इस वास्तविकता को समझने की आवश्यकता है। हम एक आत्मिक युद्ध का सामना कर रहे हैं जिसमें ख्रीष्ट के कार्य का दुष्ट द्वारा विरोध किया जा रहा है। यह एक अव्यवस्था की स्थिति है। यह एक संघर्ष है। परन्तु हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। यीशु जानता था कि ऐसा होगा। वह जानता था कि विरोध होगा।
जब हम अपने उद्धारकर्ता के जीवन को ऊपरी रीति से देखें, तो हम कह सकते हैं कि उसका जीवन अस्त-व्यस्त था। उसे बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने उद्देश्य में विफल रहा क्योंकि उसे बन्धक बनाया गया और मृत्युदण्ड दिया गया। परन्तु यीशु इन दृष्टान्तों में कह रहा है, “मैं अपना उद्देश्य पूरा कर रहा हूँ।”
जंगली घास के लिए ख्रीष्ट की रणनीति
गेहूँ के बीच जंगली घास को देखकर दास एक दिखने में अच्छी रणनीति बनाते हैं: “क्या तुम चाहते हो कि हम जाकर उन्हें इकट्ठा करें?” (मत्ती 13:28)। वे पूछते हैं कि क्या उन्हें जाकर जंगली घास उखाड़नी चाहिए। आखिरकार जब वे अभी छोटे ही हैं, तो क्यों न उन्हें तत्काल ही उखाड़ा जाए? जंगली घास को हटाकर गेहूँ को अधिक प्रभावी ढंग से वृद्धि होने में क्यों न सहायता की जाए?
मेरे विचार से, मेरे बच्चों के पालन-पोषण का सबसे कठिन कार्य शनिवार की सुबह उन्हें खेतों में जंगली घास उखाड़ने के लिए बाहर ले जाना होता था। वे उस कड़े परिश्रम से बचने के लिए विभिन्न उपाय अपनाते थे। उनकी रणनीतिक सोच को देखना अच्छा लगता था, भले ही वे एक के बाद एक कार्य के लिए घर में वापस जाने के कारणों को प्रस्तुत करने के लिए उस सोच का उपयोग करते थे। इसी प्रकार, इस दृष्टान्त में दास तर्क देते हुए जंगली घास को हटाने के लिए रणनीतिक सोच का उपयोग करना चाहते हैं: “जंगली घासों को अभी क्यों नहीं उखाड़ा जाना चाहिए? यीशु को तत्काल रूप से प्रभारी क्यों नहीं होना चाहिए?”
कलिसियाई इतिहास में, ऐसे लोग हुए हैं जो अविश्वास और असत्यता को दबाने के लिए नाटकीय कार्रवाई करके ख्रीष्ट के राज्य का विस्तार करना चाहते थे। मसीहियों को समय-समय पर बल उपयोग करने के लिए भी लुभाया जा सकता है, जबकि उन्हें अनुनय का उपयोग करना चाहिए। कई बार, कलिसिया ने अविश्वास, विधर्म और झूठे धर्म को दबाने के लिए वैधानिक साधनों का उपयोग करके मसीही धर्म का विस्तार करने के लिए लोगों को विवश करने की चेष्ठा की है। इसके विपरीत, हमारा उद्धारकर्ता सदैव लोगों को सत्य देखने में सहायता करने के लिए एक उदारहण होने का उदाहरण देता है।
इस दृष्टान्त के माध्यम से, यीशु हमें बताता है कि यह समय जंगली घास उखाड़ने का नहीं है। जंगली घास उखाड़ना एक जोखिम भरा कार्य है क्योंकि ऐसा करने के लिए खेतों में घूमना पड़ता है, और इस प्रक्रिया में कुछ गेहूँ भी कुचले जा सकते हैं। जब ऐसा होता है, तो मसीही अनजाने में दुष्ट का कार्य कर बैठते हैं: गेहूँ को बढ़ने में सहायता करने के स्थान पर, वे गेहूँ को ही रौंद देते हैं। इसके स्थान में, यीशु की सम्मति है कि जंगली घास को गेहूँ के साथ-साथ बढ़ने दें, और एक दिन यह स्पष्ट हो जाएगा कि गेहूँ जंगली घास से भिन्न है। वह दिन आएगा जब उपज परिपक्व होगी। जब उपज इकट्ठी हो जाती है, तब जंगली घास को गेहूँ से पृथक किया जा सकता है।
इस प्रकार, यीशु के अनुसार, राज्य का विकास एक मिश्रित, अव्यवस्थित, संकटग्रस्त संसार में होता है। और यीशु, वास्तव में, हमसे कहता हैं: “इसके विषय में बहुत अधिक चिन्ता न करो। मैं जानता हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ। सुसमाचार यह है कि अंततः गेहूँ उगेगा।”
अव्यवस्था में भी विश्वसनीयता का आह्वान
मत्ती 13:35 में, मत्ती यह समझाने के लिए कि यीशु दृष्टान्त में क्यों बोलता था, पुराने नियम से उद्धरण देता है। वह विशेष रूप से भजन 78:2 को उद्धृत करते हुए कहता है:
मैं दृष्टान्तों में बोलने को अपना मुँह खोलूँगा;
मैं उन बातों को कहूँगा जो जगत की सृष्टि से गुप्त थीं।
भजन 78 भजन संहिता के सबसे दीर्घ भजनों में से एक है, और यह इस्राएल के इतिहास के विषय में है। इस भजन के आरम्भ से मत्ती का उद्धरण अनिवार्य रूप से यह बताता है कि इस्राएल का इतिहास, अपने प्रकार में, एक दृष्टान्त है। यह एक कथा है जो हमें कुछ दर्शाती है। दृष्टान्त काल्पनिक कथाओं से मिलकर बन सकते हैं, जैसे कि गेहूँ और जंगली बीज की कथा, अथवा वे किसी वास्तविक ऐतिहासिक कथा से प्रेरित हो सकते हैं, जैसा कि हम इस्राएल के इतिहास के साथ भजन 78 में पाते हैं। विषय यह है कि हम इन कथाओं से एक शिक्षा प्राप्त करते हैं जो हमें सत्यता को समझने में सहायता करता है।
भजन 78 परमेश्वर के लोगों के जीवन में एक पुनरावृत्त चक्र को दिखाता है। सबसे पहले, परमेश्वर अपने लोगों को आशीष देता है। परन्तु फिर वे भुलक्कड़, असावधान और अवज्ञाकारी हो जाते हैं। परिणामस्वरूप, परमेश्वर अपने लोगों पर दण्ड की आज्ञा भेजता है। जब वे पश्चाताप करते हैं, तो वह अपनी आशीष भेजता है, और चक्र फिर से आरम्भ होता है: उसके लोग पुन: भुलक्कड़ हो जाते हैं, जिससे पुनः दण्ड की आज्ञा होती है, और इसी प्रकार यह पुनरावृत्त होता रहता है। यह चक्र केवल इस्राएल के इतिहास में ही नहीं वरन् कलिसियाई इतिहास में भी होता है। जब कलिसिया महान आशीष, सफलता और विकास के समय का आनन्द लेती है, तो वह प्रायः असावधान, अवज्ञाकारी और अभिमानी हो जाती है। परिणामस्वरूप, प्रभु अपने लोगों पर किसी प्रकार का न्याय भेजता है जो उन्हें पश्चाताप की ओर ले जाता है।
जंगली बीज के दृष्टान्त के इस सन्दर्भ में भजन 78 का उपयोग कलिसिया को शक्तिशाली रूप से स्मरण कराती है कि यद्यपि राज्य का विकास अव्यवस्थिथ प्रतीत होता है, हमें इस अव्यवस्था में योगदान नहीं देना चाहिए क्योंकि “अच्छे बीज राज्य की सन्तान हैं” (मत्ती 13:38)। अच्छा बीज उन लोगों को दर्शाता है जिन्हें परमेश्वर बचा रहा है। अच्छे बीज के लोग राज्य की धार्मिकता को अपनाएँगे। वे परमेश्वर की इच्छा को जानने और उसके अनुसार अपना जीवन जीने का प्रयास करेंगे। यीशु यही कहना चाहता है। वह हमें इस अव्यवस्था के मध्य जीवन जीने और उस अव्यवस्था में भी विश्वसनीय बने रहने के लिए पुकार रहा है। इससे भी बढ़कर, वह हमें निराश न होने का एक कारण देता है।
राज्य की वृद्धि कैसे होती है
यह रोचक है कि यीशु गेहूँ और जंगली बीज के दृष्टान्त का अर्थ बहुत विस्तार से समझाता है, परन्तु वह राई के बीज अथवा खमीर के दृष्टान्त की व्याख्या नहीं करता। मैं सोचता हूँ कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उन दोनों दृष्टान्तों का अर्थ अत्यधिक स्पष्ट है। उन दोनों दृष्टान्तों में, वह दो बातें कहता है।
पहला, राई के बीज के दृष्टान्त में, यीशु यह कहता है कि भले ही जंगली घास और गेहूँ एक साथ उगते हैं, भले ही राज्य एक मिलावटी संसार में वृद्धि पाता है, हमें स्मरण रखना चाहिए कि वास्तव में राज्य की वृद्धि अवश्य होती है। एक छोटे से बीज के रूप में इसका उदय होता है और अन्ततः यह एक पेड़ बन जाता है जिसमें पक्षी अपने घोंसले बना सकते हैं। हाँ, निस्सन्देह जंगली घास उग रहे हैं, परन्तु इस तथ्य को न भूलें कि राज्य की वृद्धि भी हो रही है। यह राज्य संसार के दृष्टिकोण से एक अस्पष्ट, महत्वहीन स्थान पर क्षुद्र रूप में आरम्भ हुआ था। गलील इस्राएल का केन्द्र भी नहीं था, फिर भी अब यह राज्य इतना वृहद हो गया है कि इसकी शाखाएँ सम्पूर्ण संसार में विकसित हो गई हैं। राज्य क्षुद्रता से वृहदता की ओर अपने पैर पसार रहा है।
दूसरा, खमीर के दृष्टान्त में, हम देखते हैं कि राज्य की वृद्धि बाहर की ओर होती है। रोटी बनाते समय, आटे में थोड़ा सा खमीर मिलाया जा चाहिए। यह आंशिक उपस्थिति के रूप में आरम्भ होता है, परन्तु आगे चलकर यह व्यापक रूप धारण कर लेता है। यहाँ यह विषय नहीं है कि यह व्यापक हो जाता है, वरन् यह है कि यह फैलता है; यह अपने चारों ओर की हर वस्तु में फैलता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सब कुछ राज्य बन जाता है, वरन् यह है कि राज्य का विस्तार चारों ओर होता है। यह उस समय के उत्साह का भाग है जिसमें हम रहते हैं। हमारे पास ऐसे स्थानों तक पहुँचने की तकनीकी क्षमताएँ हैं, जिन्हें हम पहले पूरी रीति से अप्राप्य मानते थे। राज्य का खमीर उन स्थानों तक पहुँच रहा है, जो हमें आश्चर्यचकित करती हैं। और जबकि हम आश्चर्यचकित हो सकते हैं, यीशु ने पहले ही जान लिया था कि ऐसा होगा।
दोनों ही दृष्टान्तों में, यीशु कह रहा है: “अव्यवस्था के मध्य, सफलता को देखना न भूलो। मैं अपना उद्देश्य पूरा कर रहा हूँ।” यीशु का महान् उद्देश्य क्या है? उसके चुने हुए लोगों में से कोई भी नहीं खोएगा। वह राज्य की सभी सन्तानों को अपने पिता के घर में इकट्ठा करेगा। यह हमारे लिए एक प्रोत्साहन है।
राज्य चमकेगा
जब यीशु जंगली बीज के दृष्टान्त की व्याख्या करता है, तो वह अपनी शिक्षा को एक प्रतिज्ञा के साथ मुहरबंद कर देता है: यद्यपि हम मिश्रित विकास के दिनों में जी रहे हैं क्योंकि राज्य मंथर गति से ही सही परन्तु क्षुद्र से वृहद होता जा रहा है और धीमी गति से व्यापक होता जा रहा है, वह दिन आ रहा है जब वह पूर्ण रूप से विकसित हो जाएगा। वह दिन आ रहा है जब उपज परिपक्व हो चुकी होगी और कटनी का समय या जाएगा। वह दिन आ रहा है जब विकास की यह प्रक्रिया अपने अन्तिम स्वरूप में पहुँच जाएगी, और राज्य अपनी पूर्णता में चमकेगा। जब राज्य का विस्तार होता है, तो हमें साहस नहीं खोना चाहिए। इसके स्थान में, हमें उसकी प्रतिज्ञा पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
अन्त में एक न्याय होगा। इसलिए जिस कार्य के लिए ख्रीष्ट ने हमारा आह्वान किया है वह इतना गम्भीर है। बाइबल में किसी और की तुलना में यीशु ने ही नरक के विषय में सबसे अधिक समझाया है। वह आने वाली बातों के विषय में गम्भीर है। वह लोगों को यह बताना चाहता है कि जीवन को अज्ञानता में नहीं जीना चाहिए, कि एक दिन सबका न्याय होगा, और कि जो लोग न्याय का सामना नहीं कर पाएँगे वे रोएँगे और दाँत पीसेंगे। यह एक भयानक चित्रण है। परन्तु हमारे पास प्रोत्साहन भी है कि कटनी के दिन, परमेश्वर की सन्तानें चमकेंगे। जैसा कि यीशु कहता हैं, “धर्मी अपने पिता के राज्य में सूर्य के समान चमकेंगे” (मत्ती 13:43)।
जब हम अव्यवस्था देखते हैं, जब हमें सफलता देखने में कठिनाई होती है, जब हम एक ऐसा संसार को देखते हैं जो इतनी प्रतिरोधी और उदासीन लगती है, तो यीशु की प्रतिज्ञा से हमें प्रोत्साहित होना चाहिए। वह दिन आ रहा है जब राज्य चमकेगा और राज्य के बेटे और बेटियाँ अन्धकार से महिमा की ओर बढ़ेंगे। जो कभी क्षुद्र था वह वृहद हो जाएगा, जो कभी मिलावटी था वह शुद्ध हो जाएगा, जो कभी पक्षपातपूर्ण था वह सर्वव्यापी हो जाएगा, और सबसे महत्वपूर्ण विषय यह है कि जो कभी दुष्ट था वह धर्मी हो जाएगा और पिता के राज्य की महिमा में चमकेगा।
यीशु हमारे ध्यान को राज्य के विस्तार की इस प्रक्रिया में पिता की ओर लाता है। भले ही यह कितना भी अव्यवस्थित क्यों न लगे, हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यह प्रभारी कोई और नहीं वरन् स्वयं हमारा प्रेमी स्वर्गीय पिता है। वह हमारी भलाई के विषय में चिन्तित है और हमारे परम शुभ के लिए अपने उद्देश्यों को पूर्ण करेगा।
ख्रीष्ट अपने राज्य की वृद्धि कर रहा है। वह ऐसी रणनीतियाँ अपना रहा है जो हमें आश्चर्यचकित कर सकती हैं, परन्तु अन्ततः वह अपना उद्देश्य पूरा करेगा जिससे हम अपने पिता के राज्य में धर्मी बनकर चमकें।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।