व्यवस्थावाद के 3 प्रकार - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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व्यवस्थावाद के 3 प्रकार

क्या आप पर, एक मसीही के रूप में, कभी व्यवस्थावाद (legalism) का आरोप लगाया गया है? वह शब्द प्रायः मसीही समाज में त्रुटिपूर्वक रीति से उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जयन्त भाई को व्यवस्थावादी कह सकते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वह संकीर्ण मानसिकता रखता है। परन्तु व्यवस्थावाद का अर्थ संकीर्ण मानसिकता नहीं है। वास्तव में, व्यवस्थावाद अनेक रीतियों से स्वयं को प्रकट करता है।

मूलतः, व्यवस्थावाद में परमेश्वर की व्यवस्था को उसके मूल सन्दर्भ से बाहर निकाला जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोग मसीही जीवन में नियमों को पालन करने के विषय में चिन्तित रहते हैं, और वे सोचते हैं कि मसीहियत केवल एक शिथिल तथा घातक नैतिक सिद्धान्तों की श्रृंखला है जिसमें कुछ बातों के लिए अनुमति है और कुछ बातें मना हैं। वह व्यवस्थावाद का एक रूप है, जहाँ व्यक्ति बिना कोई अन्य कारण केवल परमेश्वर की व्यवस्था को मानने का प्रयास करता रहता है।

अब यह सच है कि परमेश्वर इस बात में रुचि रखता है कि हम उसकी आज्ञाओं को मानें। फिर भी बात इससे बढ़कर है, और हमें इसे नहीं भूलना चाहिए। परमेश्वर ने वाचा के संदर्भ मे दस आज्ञा जैसे नियम दिए। पहले, परमेश्वर ने अनुग्रह दिखाया। उसने अपने लोगों को मिस्र के दासत्व से छुड़ाया और फिर उसने उनके साथ एक प्रेमी, पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित किया। केवल उस अनुग्रह-पर-आधारित सम्बन्ध की स्थापना के बाद ही परमेश्वर ने ऐसी विशिष्ट आज्ञाओं को परिभाषित करना आरम्भ किया जो उसे भाती हैं। जब मैं स्नातक का विद्यार्थी था, तो एक प्रध्यापक थे जो कहते थे, “मसीही ईश्वरविज्ञान का सारत्तत्व अनुग्रह है, और मसीही नैतिकता का  सारत्तत्व कृतज्ञता है।” व्यवस्थावादी व्यवस्था को व्यवस्था देने वाले परमेश्वर से अलग कर देता है। वह परमेश्वर की आज्ञा मानने या ख्रीष्ट का आदर करने की खोज नहीं कर रहा है, वरन व्यक्तिगत सम्बन्ध से पृथक नियम मानने की खोज कर रहा है।

कोई प्रेम, आनन्द, जीवन, या उत्साह नहीं है। यह रटा हुआ, बुद्धिरहित व्यवस्था का पालन है जिसे हम बाह्यवाद (externalism) कहते हैं। व्यवस्थावादी परमेश्वर के प्रेम और छुटकारे के उस बड़े सन्दर्भ को नाश करते हुए जिसमें होकर उसने आरम्भ में व्यवस्था दी थी, केवल नियमों को मानने पर ध्यान लगाता है।

व्यवस्थावाद के दूसरे प्रकार को समझने के लिए, हमें स्मरण रखना चाहिए कि नया नियम व्यवस्था के अक्षर (उसकी बाहरी प्रकटीकरण) और व्यवस्था की आत्मा में भेद करता है। व्यवस्थावाद का दूसरा रूप व्यवस्था के अक्षर को व्यवस्था की आत्मा से पृथक कर देता है। यह अक्षर का पालन करता है परन्तु उसकी आत्मा का उल्लंघन करता है। इस व्यवस्थावाद के रूप में और पिछले वाले में बहुत ही छोटा अन्तर है।

व्यक्ति कैसे व्यवस्था के अक्षर को मानते हुए उसकी आत्मा का उल्लंघन करता है? कल्पना करें कि एक व्यक्ति है जिसे अच्छा लगता है कि वह अपनी गाड़ी को न्यूनतम गति सीमा पर चलाए भले ही परिस्थिति कुछ भी हो । यदि वह राष्ट्रीय राजमार्ग पर गाड़ी चला रहा है और न्यूनतम गति सीमा साठ कि.मी. प्रति घण्टा है, वह साठ पर ही चलाता है और उससे कम पर नहीं। वह ऐसा तब भी करता है जब बारिश हो रही है, जब न्यूनतम गति सीमा पर गाड़ी चलाना वास्तव में दूसरों को खतरे की स्थिति में डालता है क्योंकि दूसरों के पास सद्बुद्धि है कि वे फिसलने से बचने के लिए तीस की गति  से गाड़ी चलायें । जो व्यक्ति इस स्थिति में भी साठ की गति पर ही चलाता है, वह गाड़ी को स्वयं को प्रसन्न करने के लिए चलाता है। यद्यपि बाहर से देखने वाले के लिए वह एक नियम का पालन करने वाला व्यक्ति प्रतीत होता है, पर उसकी आज्ञाकारिता केवल बाह्य है, और उसको चिन्ता नहीं है कि व्यवस्था वास्तव में किस विषय में है। इस प्रकार का व्यवस्थावाद बाह्य बातों का पालन करता है जबकि उसका हृदय परमेश्वर का, उसकी व्यवस्था के उद्देश्य का, या उसके ख्रीष्ट का आदर करने की इच्छा से बहुत दूर है।

दूसरे प्रकार के व्यवस्थावाद का उदाहरण वे फरीसी थे जिन्होंने यीशु पर आपत्ति जताया जब उसने सब्त के दिन चंगा किया था (मत्ती 12:9-14)। वे केवल व्यवस्था के अक्षर में रुचि रखते थे और प्रत्येक उस बात से बचते थे जो कार्य जैसा दिखता था। ये शिक्षक व्यवस्था की आत्मा से भटक गए थे, जो उस सामान्य परिश्रम के विरुद्ध थी जो जीवन को बनाए रखने के लिए आवश्यक नहीं है और रोगियों को चंगा करने के विरुद्ध नहीं थी।

तीसरे प्रकार का व्यवस्थावाद हमारे स्वयं के नियमों को परमेश्वर की व्यवस्था में जोड़ता है और उससे ऐसा व्यवहार करता हैं मानो वे ईश्वरीय हैं। यह व्यवस्थावाद  का सबसे सामान्य और घातक रूप है। यीशु ने फरीसियों को इसी बिन्दु पर डाँटा था, “तुम मनुष्यों की परम्पराओं को ऐसे सिखाते हो मानो वे परमेश्वर के वचन थे।” हमारे पास कोई अधिकार नहीं है कि हम लोगों पर ऐसे प्रतिबन्ध लगाएँ जहोँ परमेश्वर ने कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया है।

प्रत्येक कलीसिया के पास अधिकार है कि वह कुछ क्षेत्रों में अपने नियम बनाए। उदाहरण के लिए, बाइबल कलीसिया के भवन में खान-पान के विषय में कुछ नहीं कहती है, परन्तु कलिसीया के पास अधिकार है कि ऐसी बातों के विषय में नियम बनाए। परन्तु जब हम इन मानव-निर्मित  नियमों को मौलिक रीति से विवेक को बाध्य करने के लिए उपयोग करते हैं और इन्हें उद्धार के लिए आवश्यक बनाते हैं, तो हम उस क्षेत्र में जाने के जोखिम में हैं जो केवल परमेश्वर का है।

बहुत लोग सोचते हैं कि मसीहियत का सारत्तत्व है सही नियमों का पालन करना, भले ही नियम बाइबल के बाहर के  हों। उदाहरण के लिए, बाइबल नहीं कहती है कि हम ताश नहीं खेल सकते हैं या भोजन के साथ दाखरस नहीं पी सकते हैं। हम इन बातों को वास्तविक मसीहियत के बाह्य चिन्ह नहीं बना सकते हैं। ऐसा करना सुसमाचार का बड़ा उल्लंघन होगा क्योंकि यह आत्मा के वास्तविक फल के स्थान पर मानव परम्परा को रखेगा। जहाँ परमेश्वर ने स्वतन्त्रता दी है, हमें कभी भी लोगों के मानव-निर्मित नियमों द्वारा दास नहीं बनाना चाहिए। हमें व्यवस्थावाद के इस रूप का सामना करने के लिए सावधान होना चाहिए।

सुसमाचार मनुष्यों को पश्चात्ताप, पवित्रता, और भक्ति के लिए बुलाता है। इसलिए, संसार सुसमाचार के कारण ठोकर खाता है। परन्तु हम पर हाय यदि हम मसीहियत के साथ व्यवस्थावाद जोड़कर उसके  सच्चे  स्वाभाव को विकृत करने के द्वारा उस ठोकर को बढ़ाते हैं। क्योंकि मसीहियत के लिए नैतिकता, धार्मिकता, और नीति महत्वपूर्ण हैं, यदि हम सावधान नहीं होते हैं, तो बहुत सरलता से हम भक्तिपूर्ण नैतिकता के लिए अपने धुन से व्यवस्थावाद की ओर जा सकते हैं।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।