बाइबल
29 अगस्त 2024उद्धार
5 सितम्बर 2024ख्रीष्ट
क्रिश्चियैनिटी एण्ड उदारवाद (मसीहियत और उदारवाद) पुस्तक में जे. ग्रेशम मेचन का एक बल यीशु को उचित रीति से समझने की आवश्यकता पर था। एक समर्पित चरवाहा और दक्ष विद्वान के रूप में, मेचन को कलीसिया और अकादमी दोनों में यीशु के विषय में अशास्त्रसम्मत विचारों के विषय में अच्छा ज्ञान था, और इसी प्रकार से यह त्रुटियाँ प्रायः हमारे समय में भी उठती हैं। आज, विद्वत्तापूर्ण साहित्य में यीशु को प्रायः नासरत के एक यहूदी नबी कहा जाता है जो कुछ सन्दर्भों में परमेश्वर का पुत्र था— किन्तु उसे सदैव परमेश्वर के ईश्वरीय पुत्र के रूप में नहीं समझा जाता है। प्रायः यह माना जाता है, कि नासरत का यीशु एक मानवीय व्यक्ति था जिसके विषय में हम बहुत कुछ कह सकते हैं, परन्तु उसके विषय में परमेश्वर के ईश्वरीय पुत्र के रूप में बात करना अधिक अटकलबाजी करनी होगी। किन्तु यहाँ हमें सावधान रहना चाहिए, क्योंकि शास्त्रसम्मत ख्रीष्टविज्ञान चेतावनी देती है कि यीशु को मात्र नासरत के व्यक्ति के रूप में समझना एक बड़ी त्रुटि होगी। इसके साथ ही, यीशु की सच्ची मनुष्यत्व को नकारना भी त्रुटिपूर्ण होगा, जिसके साथ शास्त्रसम्मत ख्रीष्टविज्ञान समझौता नहीं कर सरता है। इन कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए हमें ख्रीष्ट के धर्मसिद्धान्त को उचित रीति से व्यक्त करना अनिवार्य होगा।
हम धन्यवादी हैं, कि हमारे पास कलीसिया के महान विश्वास वचनों के आधार पर सैकड़ों वर्षों का विश्वासयोग्य, बाइबलीय गहन चिन्तन है, जिससे हमें ख्रीष्ट के विषय में उचित रीति से विचार करने में सहायता मिलती है। सर्वप्रथम, हमें यह समझना चाहिए कि ख्रीष्ट के विषय में बात करने का अर्थ है त्रिएकता के दूसरे जन के विषय में बात करना: परमेश्वर का शाश्वत पुत्र। परमेश्वर के इस ईश्वरीय पुत्र से, इस ईश्वरीय जन से, हम देहधारण में मिलते हैं। इसलिए यीशु ख्रीष्ट के विषय में ऐसे बात करना त्रुटिपूर्ण होगा जैसे कि हम नासरत के किसी मानवीय व्यक्ति से मिल रहें हों। देहधारण में दो भिन्न व्यक्तियों के विषय में सोचना भी त्रुटिपूर्ण होगा—जैसे मानो कि देहधारण में हम एक ईश्वरीय जन और एक मानवीय जन से मिले हों। इसके विपरीत, यीशु ख्रीष्ट एक व्यक्ति है— एक ईश्वरीय जन जिसने मानव स्वभाव धारण किया है। यद्यपि उसका जन्म बैथलहम में हुआ था और उसके मानवीय स्वभाव के अनुसार उसका पालन-पोषण नासरत में हुआ था (मत्ती 1:18-23; लूका 2:1-14), उसका वास्तविक उद्गम शाश्वत है (मीका 5:2 देखें), क्योंकि वह परमेश्वर का शाश्वत पुत्र है।
इसके लिए हमें द्विस्वभाविक संयुक्ति (hypostatic union) को उचित रीति से समझना होगा (वेस्टमिंस्टर विश्वास अंगीकार 8.2 देखें)। द्विस्वभाविक संयुक्ति सिखाती है कि देहधारण में, ख्रीष्ट के एक व्यक्ति में दो स्वभाव (ईश्वरीय और मानव) संयुक्त होते हैं। हायपोस्टैसिस (hypostasis: स्वभाव/सारतत्व) शब्द (जिससे द्विस्वभाविक शब्द आता है) एक ईश्वरीय व्यक्ति को सन्दर्भित करता है, और संयुक्ति इस एक व्यक्ति में ईश्वरीय और मानवीय स्वभाव के मिलन को सन्दर्भित करता है। इसका अर्थ यह है कि देहधारण में, ख्रीष्ट अपने ईश्वरीय स्वभाव को बनाए रखने के साथ-साथ एक मानवीय स्वभाव को भी धारण करता है (या ग्रहण करता हैं)। फिर भी ये स्वभाव किसी भी प्रकार से भ्रमित, परिवर्तित, विभाजित या पृथक नहीं होते हैं, किन्तु वे ख्रीष्ट के एक व्यक्ति में संयुक्त होते हैं। और न ही ये स्वभाव अपने आप कार्य करते हैं, परन्तु यह सदैव परमेश्वर के पुत्र का व्यक्ति होता है जो कार्य करता है। यह एक महत्वपूर्ण ख्रीष्टविज्ञान सम्बन्धी सिद्धान्त को दर्शाता है: कि व्यक्ति कार्य करते हैं; स्वभाव कार्य नहीं करते हैं ।
इसके अतिरिक्त, ख्रीष्ट का एक व्यक्ति ऐसे कार्य करता है जो प्रत्येक स्वभाव के लिए उचित है। इस प्रकार, देहधारण में परमेश्वर का पुत्र वही बना रहता है जो वह सदैव से रहा है (ईश्वरीय) किन्तु हमारे और हमारे उद्धार के लिए एक सच्चे मानवीय स्वभाव को धारण करता है। द्विस्वभाविक संयुक्ति में, हम ख्रीष्ट के विषय में बात करते हैं जो वास्तव में परमेश्वर और वास्तव में मनुष्य दोनों है, यद्यपि वह एक ही व्यक्ति बना रहता है।
सम्भवतः यह आश्चर्य की बात नहीं है कि द्विस्वभाविक संयुक्ति की पुष्टि सर्वदा उचित रीति से पुष्टि नहीं की गई है। कई विधर्मताएँ ख्रीष्ट के विषय में सोचने के लिए त्रुटिपूर्ण रीतियाँ प्रस्तुत करते हैं। एरियसवाद (Arianism) ने सिखाया कि परमेश्वर पुत्र का ईश्वरीय होना और पिता का ईश्वरीय होना एक समान नहीं है। किन्तु यह यीशु की पूर्ण ईश्वरीता के विषय में बाइबल की स्पष्ट शिक्षा को खो देता है (उदाहरण के लिए, यूहन्ना 1:1; 20:28; इब्रानियों 1:8; 1 यूहन्ना 5:20)। इसके साथ, जब ईश्वरीय होने की बात आती है तो इसमें कोई बीच का मार्ग नहीं है: या तो यीशु ईश्वरीय है या तो वह नहीं है। अन्य विधर्मी शिक्षाओं ने सिखाया कि यीशु पूर्ण रीति से मनुष्य नहीं है। उदाहरण के लिए, अपोलिनारियनवाद (Apollinarianism) ने सिखाया कि यीशु के पास मनुष्य का मन नहीं था। किन्तु यह यीशु को मनुष्य से कम बना देगा, और इस प्रकार वह मनुष्यों का उद्धारकर्ता होने के लिए योग्य नहीं होगा, क्योंकि हम सभी के पास पापी मन हैं जिन्हें छुटकारे की आवश्यकता है। यूतुखुसवाद (Eutychianism) ने तर्क दिया कि ख्रीष्ट में ईश्वरीय और मानव स्वभाव किसी रीति से मिश्रित होकर एक तीसरा स्वभाव बन जाता है— जो ईश्वरीय और मानवीय का एक प्रकार का संयोजन है। परन्तु इसका भी यह अर्थ होगा कि यीशु के पास हमारे समान मानवीय स्वभाव नहीं होगा, और इसलिए इस दृष्टिकोण को भी अस्वीकार किया जाना चाहिए (देखें इब्रानियों 2:14-18)। एक और विधर्मिता जो अभ भी उठती रहती है, वह नेस्टोरियनवाद (Nestorianism) है । यह त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण, जिसका खण्डन सिकान्दरिया के सिरिल और इफिसुस की परिषद ने 431 ई. में किया था, ख्रीष्ट में दो व्यक्तियों की शिक्षा देता है। परन्तु शास्त्रसम्मत ख्रीष्टविज्ञान सिखाता है कि ख्रीष्ट एक व्यक्ति है।
मेचन समझ गए कि यह इतना अधिक महत्वपूर्ण क्यों है। सुसमाचारों में, यीशु यह चाहते हैं कि उनके शिष्य भीड़ की अटकलों के विपरीत, जाने जो वह वास्तव में कौन है (मत्ती 16:13-17)। यीशु खीष्ट है, और जीवित परमेश्वर के पुत्र है। शिष्यों को स्पष्ट रूप से पता था कि यीशु एक मनुष्य था, किन्तु उन्हें यह भी पहचानना था कि वह मसीहा और परमेश्वर का ईश्वरीय पुत्र दोनों था। अन्य स्थानों पर पौलुस चाहता है कि हम उचित रीति से यीशु का अंगीकार करें (उदाहरण के लिए, फिलिप्पियों 2:6-11; 1 तीमुथियुस 3:16)। ख्रीष्ट के विषय में उचित रीति से सोचना और बोलना सभी मसीहियों के लिए एक बाइबलीय इच्छा है; यह मात्र ईश्वरविज्ञानियों के लिए अमूर्त अटकलें नहीं होना चाहिए। जैसा कि मेचन ने लिखा, “यदि यीशु वही था जैसा नया नियम उसे प्रस्तुत करता है, तो हम निश्चयता के साथ अपने प्राणों को अनन्तकाल के नियति को उसके समर्पित कर सकते हैं।”
यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है: हमें पाप से बचाने के लिए हमारे उद्धारकर्ता को वास्तव में परमेश्वर और वास्तव में मनुष्य दोनों ही होना चाहिए। केवल वही जो परमेश्वर है, पाप के प्रचि परमेश्वर के प्रकोप का सामना कर सकता है और हमें अनन्त जीवन प्रदान कर सकता है (वेस्टमिंस्टर दीर्घ प्रश्नोत्तरी 38 देखें; हेडलबर्ग प्रश्नोत्तरी 17)। फिर भी केवल वही जो मनुष्य है, जिसके पास हमारे समान स्वभाव है, वही हमारे पापों के लिए उसी स्वभाव में प्रकोप को सहन कर सकता है जिस स्वभाव में पाप आरम्भ में हुआ था (वेस्टमिंस्टर दीर्घ प्रश्नोत्तरी 39 देखें; हेडलबर्ग प्रश्नोत्तरी 16)। केवल यीशु ही पूर्ण रूप से आज्ञाकारी दूसरा आदम है जो बिना परमेश्वर का शाश्वत पुत्र होना छोड़े पहले आदम की अनाज्ञाकारिकता पर विजय प्राप्त करता है। स्वर्ग के नीचे कोई दूसरा नाम नहीं है जिसके द्वारा हमें बचाए जाएँ, क्योंकि केवल यीशु ही सभी का पुनरुत्थित और महिमान्वित प्रभु है, जो वास्तव में परमेश्वर और वास्तव में मनुष्य है।
कलीसिया के महान विश्वास वचन ख्रीष्ट को त्रिएकता के दूसरे व्यक्ति के रूप में बताते हैं जो हमें बचाने के लिए उतर आया। वह कोई मनुष्य नहीं है जो परमेश्वर बन गया किन्तु वह परमेश्वर है जो मनुष्य बन गया। यह एक महत्वपूर्ण अन्तर है जिसके साथ बहुत बड़े निहितार्थ सम्मिलित हैं। “यीशु के विषय में इस प्रकार से बात करना जैसे वह प्रथामिक रूप से मनुष्य है या इस रीति से मानवीय व्यक्ति है जो विश्वास वचन के विपरीत है, सुसमाचार की प्रमुख बात को नाकरता है।” मेचन ने स्वयं से देखा कि प्रतिस्थापनीय प्रायश्चित ख्रीष्ट के व्यक्ति की विशिष्टता पर आधारित है। हमारे पाप की स्थिति इतनी बड़ी है कि कोई जन जो केवल मनुष्य ही है, हमें इसके दलदल की गहराई से कभी भी नहीं निकाल सकता। हमें केवल एक आदर्श या शिक्षक की आवश्यकता नहीं है; हमें एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता है। जैसा कि मेचन ने कहा, “यीशु विश्वास के लिए केवल एक उदाहरण नहीं है, किन्तु वह विश्वास की विषय-वस्तु है।” हमें किसी ऐसे जन द्वारा बचाए जाने की आवश्यकता नहीं है को केवल मनुष्य है, किन्तु हमें किसी ऐसे जन द्वारा बचाए जाने की आवश्यकता जो सच्च में मनुष्य है। हमें एक ऐसे जन की आवश्यकता है जो वास्तव में परमेश्वर और वास्तव में मनुष्य हो। हमें यीशु ख्रीष्ट की आवश्यकता है। यह मेचन के दिनों में सच था, और यह हमारे दिनों में भी सच बना रहता है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।