धार्मिकता को आत्मिकता के साथ भ्रमित न करें - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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धार्मिकता को आत्मिकता के साथ भ्रमित न करें

जब मैं पहली बार एक ख्रीष्टीय बना तो मेरा परिचय किया गया ख्रीष्टिय समाज की प्राथमिकताओं से। मैंने शीघ्र सीख लिया कि मुझ से यह अपेक्षा रखी जाती है कि मैं हर दिन शान्त मनन करूँ, एक समय जो बाइबल पढ़ने और प्रार्थना करने के लिए अलग रखा गया था। मुझसे कलीसिया में जाने की अपेक्षा की जाती थी। मुझसे  एक प्रकार की भक्ति की अपेक्षा की जा रही थी जो प्रकट होती थी श्राप न देने, शराब न पीने, धूम्रपान न  करने और ऐसी ही बातों से। मुझे यह नहीं पता था कि बाइबल पर आधारित धार्मिकता इन बातों  से कहीं अधिक बढ़कर है। फिर भी, अधिकतर नए ख्रीष्टियों के जैसे, मैंने इन बातों पर बल देना सीखा। मेरे व्यक्तिगत पत्रों ने भाषा का एक नया रूप अपनाया। वे नए नियम की पत्रियों के पृष्टों के जैसे सुनाई देने लगे। मैंने शीघ्र अपने प्रतिदिन की बातचीत में ख्रीष्टिय शब्दावली का उपयोग करना सीख लिया । मैंने किसी को कुछ भी नहीं “बताया”, मैंने इसे उनके साथ “बाँटा” । प्रत्येक सौभाग्य एक “आशीष” थी, और मैंने पाया कि मैं बात कर ही नहीं पा रहा था बिना वाक्यों में आत्मिक बातों को मिलाए।

शीघ्र ही मैंने पाया कि ख्रीष्टिय जीवन प्रतिदिन की शांत मनन और पवित्र शब्दों से कहीं बढ़कर है। मुझे यह समझ में आया कि परमेश्वर इससे कहीं अधिक चाहता था। वह मुझसे चाहता था कि मैं अपने विश्वास और आज्ञाकारिता में बढ़ूँ, मैं दूध से मांस की ओर बढ़ूँ। मैंने यह भी पाया कि ख्रीष्टिय शब्दावली संचार का लगभग अर्थहीन रूप था— गैर-ख्रीष्टियों और ख्रीष्टियों दोनों के लिए।। मैंने स्वयं को पाया एक उप-संस्कृति की भाषा को सुनाने के लिए अधिक रुचिकर होते हुए सच्ची ईश्वर भक्ति की खोज करने से।

मेरी गलती यह थी: मैं धार्मिकता को आत्मिकता के साथ भ्रमित कर रहा था। मैंने यह भी पाया कि मैं इसमें अकेला नहीं था। मैं एक ऐसी भीड़ में पड़ गया था जो साधनों को परिणाम समझने में भ्रमित थी। आत्मिकता एक सस्ता विकल्प हो सकता है धार्मिकता के लिए।

कई वर्षों में मुझसे कई नए ख्रीष्टियों ने पूछा कि कैसे और अधिक आत्मिक या भक्तिपूर्ण हों। विरल ही किसी सत्यनिष्ठ विद्यार्थी ने कहा, “मुझे सिखाओ कि धर्मी कैसे बनूँ।” क्यों, मैं सोचता था, कोई व्यक्ति आत्मिक बनना चाहेगा? आत्मिकता का उद्देश्य क्या है? भक्ति में है क्या लाभ? 

आत्मिकता और भक्ति स्वयं में लक्ष्य नहीं हैं। वास्तव में वे सब व्यर्थ हैं जब तक कि वे किसी बड़े लक्ष्य के लिए साधन न हो। लक्ष्य को आत्मिकता से बढ़कर धार्मिकता की ओर जाना चाहिए।

आत्मिक अनुशासन अत्यन्त आवश्यक हैं धार्मिकता पाने के लिए। बाइबल अध्ययन, प्रार्थना, नियमित रूप से कलीसिया में उपस्थित होना, सुसमाचार प्रचार, ख्रीष्टिय जीवन की वृद्धि के लिए आवश्यक हैं, परन्तु ये अन्तिम लक्ष्य नहीं हो सकते हैं। मैं धार्मिकता को नहीं प्राप्त कर सकता हूँ बिना आत्मिकता के। परन्तु “आत्मिक” होना सम्भव है, कम से कम सतह पर, बिना धार्मिकता प्राप्त किए।

यीशु प्रार्थना करने वाला पुरुष था। उसके प्रार्थना का जीवन गहरा और सामर्थी था। वह पवित्रशास्त्र को गहराई से जानने वाला पुरुष था। स्पष्ट रूप से उसने परमेश्वर के वचन में महारथ प्राप्त किया था। वह आत्मिक था। परन्तु उसकी आत्मिकता केवल सतह की बात नहीं थी। उसका आन्तरिक जीवन आप ही  प्रकट हुआ बाहरी आज्ञाकारिता में, यहां तक कि मृत्यु तक की आज्ञाकारिता में।धार्मिकता क्या है? इस प्रश्न का सबसे सरल उत्तर यह है: धार्मिकता है वह करना जो परमेश्वर की दृष्टि में सही है।  यह एक सरल परिभाषा है जो कहीं अधिक जटिल है भीतरी रीति से। धर्मी होने का अर्थ है कि वह सभी कार्य करना जिसे परमेश्वर हमें करने के लिए बुलाता है। सच्ची धार्मिकता की मांग इतनी महान और इतनी अधिक हैं कि हम में से कोई इन्हें सिद्धता से प्राप्त नहीं कर सकता है इस संसार में। इसमें परमेश्वर की सम्पूर्ण इच्छा का पालन करना सम्मिलित है।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।
आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।