पतरस और यहूदा में आशा - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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पतरस और यहूदा में आशा

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का चौवथा अध्याय है: नए नियम की पत्रियाँ

कलीसिया के आरम्भिक दिनों से ही, मसीहियों ने कठिनाईयों का सामना किया है। पाप के इस जीवन में अन्तर्निहित प्रलोभनों और दुखों से लेकर झूठे शिक्षकों द्वारा लाई चुनौतियों तक, एक मसीही के रूप में जीवन कठिन है। पतरस और यहूदा के पत्र हमें प्रोत्साहित करते हैं। पतरस का पहला पत्र हमें सच्चे अनुग्रह के अर्थ को दिखाता है—वर्तमान के दुख और आने वाली महिमा का रहस्यपूर्ण मिलन। पतरस का दूसरा पत्र हमें परमेश्वर के ज्ञान में दृढ़ता से स्थापित होने की बात करता है जो कि उसके साथ हमारे सम्बन्ध के द्वारा आता है। और यहूदा का पत्र हमें बिना भय के विश्वास के लिए संघर्ष करना है।

पहला पतरस

1 पतरस का विषय—जिसको सच्चे अनुग्रह के रूप में अन्तिम कुछ पदों में प्रकट किया गया है—दो महत्वपूर्ण विचारों के मध्य परस्पर प्रभाव से उभरता है: वह महिमा जो यीशु ख्रीष्ट के द्वितीय आगमन में हम पर प्रकट होगी और पाप के संसार में इस वर्तमान जीवन की कठिनाई। पतरस इस पत्र के आरम्भ से ही हमारे भविष्य के उत्तराधिकार और विश्वासी के रूप में उन्नयन के विचार को सन्दर्भित करता है। वह यह निष्कर्ष निकालता है कि क्योंकि ख्रीष्ट ने दुख उठाया और तत्पश्चात् महिमावान हुआ (1 पतरस 1:11), हमारी आशा उस अनुग्रह पर होनी चाहिए जो ख्रीष्ट द्वारा प्रकट की जाएगी (1:13; 2:12; 4:13; 5:1, 4, 10)। परन्तु वह प्रतिज्ञा किया हुआ अनुग्रह केवल दुख उठाने की इस वर्तमान अवधि के पश्चात् ही आता है। जैसा कि वह परमेश्वर के पुत्र के लिए था, वैसा ही हम सभी के लिए होगा जो उसमें हैं। पतरस अपने पत्र के अन्त में इन विषयों को लेकर आता है: “तुम्हारी थोड़ी देर यातना सहने के पश्चात् सारे अनुग्रह का परमेश्वर जिसने तुम्हे ख्रीष्ट में अपनी अनन्त महिमा के लिए बुलाया वह स्वयं ही तुम्हे सिद्ध, दृढ़, बलवन्त, और स्थिर करेगा” (5:10)। दीन होने से ही ऊँचा उठाए जाते हैं। पुनः स्थापना परीक्षाओं के पश्चात् होती है। यह “परमेश्वर का सच्चा अनुग्रह” है जिसमें हमें दृढ़ रहना है (पद 12)।

इन दों असंगत प्रतीत होने वाले सत्यों—ख्रीष्ट में हमारी ऊँची स्थिति और पृथ्वी पर हमारे वर्तमान दुख— को एक साथ लाना मसीहियों के लिए सदैव से कठिन रहा है। हमारे लिए परमेश्वर की भली योजना के साथ इस जीवन की कठिनाईयों में सामन्जस्य स्थापित करना हमें कठिन लगता हैं। हम सोचते हैं कि यदि परमेश्वर हमें अभी दुख उठाने दे रहा है, भले अपने विश्वास के लिए (जैसा कि कई मसीही संसार में दुख उठाते हैं) या केवल इसलिए कि हम हम निर्बल मनुष्य हैं (जो कि कष्ट और मृत्यु की पीड़ा कभी स्वतन्त्र नहीं है) तो क्या वास्तव में उसके पास एक भली योजना है। परन्तु पतरस अपने पत्र के आरम्भिक शब्दों से ही यह दिखाने में सावधानी रखता है, कि यह “पिता परमेश्वर के पूर्व-ज्ञान के अनुसार” परमेश्वर की योजना का महिमावान रूप है और रहा है (1:2a)। अगले पदों में, हम देखते हैं अनन्त उत्तराधिकार वर्तमान की परीक्षाओं के साथ साथ अतीत की महिमाओं पर निर्मित है (पद 3-12‌)।

यदि ऐसा है, तो हम क्या करें? पद 15 से आरम्भ करते हुए, पतरस उत्तर देता है, “मसीहियों के रूप में यह हमारे आचरण पर निर्भर करता है।” इस पद में “आचरण” के लिए शब्द नए नियम में इक्कीस बार उपयोग किया गया है, जिसमें से दस पतरस से आए हैं (1 पतरस 1:15, 17, 18, 2:12; 3:1, 2, 16; 2 पतरस 2:7, 18; 3:11)। मसीही आचरण के लिए पतरस की रणनीति, आशा में जड़वत्, कुछ विचारों पर केन्द्रित है: पवित्रीकरण (या पवित्र होना, 1:13-21‌); कलीसिया के भीतर और बाहर दोनों ही स्थान पर, अन्य लोगों के लिए निष्कपट प्रेम (1:22-2:12‌); अन्यायी और न्यायी अगुवों के प्रति हमारे समर्पण में ख्रीष्ट यीशु के बलिदान का प्रदर्शन; दुख उठाने के लिए हमारी तत्परता (2:13-4:6‌); और परमेश्वर के नए परिवार के लिए हमारी नम्र और प्रेमपूर्ण सेवा (4:7-5:11‌)।

पूरे समय, पतरस हमें मृत्यु और पाप सहित असाधारण परीक्षाओं पर विजय पाने वाले ख्रीष्ट के उदाहरण से प्रोत्साहित करता है। और उसका निष्कर्ष अत्यन्त साधारण है: परमेश्वर ने हमारे उद्धार को स्थिर किया है, हमें हमारी पहचान दी है, हमारी वर्तमान की बुलाहट की पुष्टि की है, और हमारे भविष्य के उत्तराधिकार को सुरक्षित किया है, एक गहन विडम्बना के द्वारा —ख्रीष्ट की मृत्यु, पुनरुत्थान, और स्वर्गारोहण के माध्यम से। यह विडम्बना—दुख उठाने और महिमा का यह रहस्यपूर्ण मिलन—ही सच्चा अनुग्रह है।

दूसरा पतरस

अपने दूसरे पत्र में, पतरस हमें परमेश्वर के ज्ञान के विषय पर निर्देश देता है। पतरस हमें परमेश्वर को मात्र ज्ञानात्मक रीति से नहीं, परन्तु घनिष्ठता के साथ जानने का आग्रह करता है। वह हमें उस ज्ञान में दृढ़ता के साथ स्थापित होने का आग्रह करता है जो कि केवल परमेश्वर के साथ सम्बन्ध से मिल सकती है। वह “परमेश्वर और हमारे प्रभु यीशु के पूर्णज्ञान के द्वारा तुम में अनुग्रह और शान्ति बहुतायत से बढ़ती जाए” (2 पतरस 1:2) के साथ आरम्भ करता है, और “परन्तु हमारे उद्धारकर्ता प्रभु यीशु ख्रीष्ट के अनुग्रह और ज्ञान में बढ़ते जाओ” (3:18a) के साथ समाप्त करता है। यह दोहराव दिखाता है कि पतरस ख्रीष्ट के ज्ञान के माध्यम से यीशु में परमेश्वर के अनुग्रह में अपनी निश्चितता को आधार बनाता है। यही ज्ञान पत्र को एक साथ थामे रखता है। ज्ञान शब्द या “जानना” क्रिया का कोई रूप 2 पतरस 1:3, 5, 6, 8, 12, 14, 16; 2:20, 21; और 3:18 में प्रकट होता है (1:20; 3:1-3, 17 में “यह जानना” भी देखें)। यह एक विशिष्ट प्रकार का ज्ञान है। इस ज्ञान का पवित्रशास्त्रीय या प्रेरिताई उद्गम है (1:16; 2:1; 3:2), और यह यीशु ख्रीष्ट के द्वितीय आगमन से सम्बन्धित है (3:1-4, 12)। पुराने नियम और प्रेरिताई साक्षी पर आधारित, पौलुस हमें अपने उद्धारकर्ता की वापसी को स्मरण रखने का आग्रह करता है। क्योंकि यदि हम भूल जाएँ —यदि हम उसकी निकटस्थ वापसी के ज्ञान के प्रकाश में नहीं जी रहे हैं—हम उन ठट्ठा करने वालों के समान हो जाते हैं जो केवल वर्तमान युग के लिए जीते हैं, जो केवल कामुकता और लालच के लिए दिए जाते हैं (जो यथार्थः वही है जिसे पतरस अध्याय 2 में सम्बोधित करता है)।

इस ज्ञान के होने का क्या परिणाम है? पतरस आशा करता है कि हम अपने विश्वास में दृढ़ता से बने रहेंगे या स्थिर होंगे (2 पतरस 1:12; 1 पतरस 5:10)। वास्तव में, यह पतरस का एक घनिष्ठ व्यक्तिगत लक्ष्य है, क्योंकि पत्र की भाषा और लक्ष्य पतरस के जीवन में केन्द्रीय, फिर भी कष्टदायी स्मृति को उत्प्रेरित करती है। इसकी शब्दावली ठोकर खाने और स्थिर करने की है।

यीशु के पकड़ाए जाने की रात्रि को, यीशु ने कहा था, “आज रात तुम सब मेरे कारण ठोकर खाओगे, क्योंकि लिखा है, ‘मैं चरवाहे को मारूँगा और झुण्ड की भेड़ें तितर बितर हो जाएँगी’” (मत्ती 26:31)। इन शब्दों को सुनने के पश्चात्, पतरस ने प्रत्युत्तर दिया: “चाहे सब के सब तेरे कारण ठोकर खाएँ तो खाएँ, पर मैं कभी न खाऊँगा…। चाहे मुझे तेरे साथ मरना भी पड़े, मैं तेरा इनकार नहीं करूँगा” (पद 33-35)। फिर भी, पतरस ने ठोकर खायी। उसने एक बार ठोकर खायी। उसने दो बार ठोकर खायी। और अपमानजनक रीति से, उसने तीसरी बार महायाजक के आँगन में दास के चरणों में ठोकर खायी। जैसा कि वह इस पत्र को लिखता है, पतरस उस रात्रि की भाषा पर वापस आ जाता है। वह लिखता है: “अतः हे भाइयों, अपने बुलाए जाने और चुने जाने की निश्चयता का और भी अधिक प्रयत्न करते जाओ, क्योंकि इन बातों के प्रयत्न में जब तक रहोगे, तुम कभी ठोकर न खाओगे” (2 पतरस 1:10)। पतरस के जीवन में उसी रात्रि को, यीशु ने स्थिर होने की भाषा का भी उपयोग किया था। यीशु ने पतरस से कहा, “शमौन, हे शमौन, देख! शैतान ने तुम लोगों को गेहूँ के समान फटकने के लिए आज्ञा मांग ली है, परन्तु मैंने तेरे लिए प्रार्थना की है कि तेरा विश्वास चला न जाए। अतः जब तू फिरे तो अपने भाइयों को स्थिर करना” (लूका 22:31-32‌)। स्थिर (strengthen) शब्द 2 पतरस 1:12 के वही शब्द स्थिर (established) से है: “यद्यपि तुम इन बातों को पहिले से ही जानते हो तथा उस सत्य में जो तुम्हारा है स्थिर भी किए गए हो, तथापि मैं तुम्हें इनका स्मरण दिलाने के लिए सदैव तैयार रहूँगा।” अन्य शब्दों में, इस पत्र में हमारे लिए पतरस की महान आशा—अपने स्वयं में प्रेरिताई मिशन के अनुसार—यह है कि हम यीशु ख्रीष्ट के विषय में अपने ज्ञान से स्थिर हो जाएँ।

यहूदा

यहूदा का पत्र मसीहीयों के रूप में हमें अपने विश्वास के लिए संघर्ष करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यहूदा के पत्र का मुख्य विषय पद 3 से आता है। संघर्ष की यह बुलाहट यहूदा की कायलता में निहित है कि विश्वास को विरोधियों द्वारा चुनौती दी जा रही है (पद 4, 8, 10, 12, 16, 19 में “कुछ लोग”)। पूरे पत्र की संरचना इन्हीं दो विचारों से प्रवाहित होती है। पद 3 में विश्वास के लिए संघर्ष की माँग की व्याख्या पद 17-23 में पाई जाती है। और यहूदा पद 5-16 में मसीहियत के सामने आने वाली चुनैतियों के विषय में किए गए पद 4 के निष्कर्षों का समर्थन करता है। सर्वप्रथम, पद 17-23 में हम देखते हैं कि विश्वास के लिए संघर्ष: मसीहियों की बुलाहट को बनाए रखना से जुड़ा है—विशेष रूप में, हमें प्रेरितों के शब्दों को स्मरण रखना चाहिए (पद 17-19) और “अपने आपको परमेश्वर के प्रेम में बनाए रखना है” (पद 20-21‌); जो समर्पण मसीही करते हैं—हमें ”एक दूसरे का अति पवित्र विश्वास में निर्माण करना है”, “पवित्र आत्मा में प्रार्थना करना है” (पद 20), और अनन्त जीवन के लिए उत्सुकता से हमारे प्रभु यीशु ख्रीष्ट की दया की बाट जोहना है” (पद 21); और वह आचरण जिसमें हम जीते हैं—हमें “जो सन्देह करते हैं उन पर दया करने” वालों (पद 22); नरक की आग से औरों को निकालने वाले, और अपश्चातापी लोगों पर भी दया दिखाने वालों के रूप में जाना जाता है (पद 23)।

यहूदा के पत्र का तर्क है कि हमें इसी रीति से संघर्ष के लिए बुलाया गया है क्योंकि कुछ लोग विश्वास को चुनौती दे रहे हैं (पद 4)। पद 5-10 में, यहूदा तीन ऐतिहासिक घटनाओं का चुनाव करता है (जंगल के विरोधियों का धर्मत्याग, कुछ स्वर्गीय प्राणियों का स्वशासन, और कुछ प्राचीन नगरों की अनैतिकता) अपने पाठकों के यह समझने में सहायता के लिए कि विश्वास के प्रति चुनौती सदैव से उपस्थित रहीं हैं और यह कि परमेश्वर उनसे सदैव ईश्वरीय न्याय के साथ मिला है। और पद 11-16 में, यहूदा पुराने नियम के तीन लोगों के उदाहरणों का अनुसरण करता है जिन्होंने विश्वास को चुनौती दी और अपने ऊपर न्याय ले कर आए (कैन, बिलाम, और कोरह)।

जबकि यहूदा हमें अपने विश्वास के लिए संघर्ष करने की चुनौती देता है, वह ऐसा इस ज्ञान के साथ करता है कि ख्रीष्ट यीशु में, हम ठोकर खाने के भय के बिना संघर्ष कर सकते हैं। वह एक सुन्दर स्तुतिगान के साथ समाप्त करता है जो कि इस बिन्दु को यथार्थः बताता है: “अब जो ठोकर खाने से तुम्हारी रक्षा कर सकता है, और अपनी महिमा की उपस्थिति में तुम्हें निर्दोष और आनन्दित करके खड़ा कर सकता है, उस अद्वैत परमेश्वर हमारे उद्धारकर्ता की महिमा, गौरव, पराक्रम एवं अधिकार, हमारे प्रभु यीशु ख्रीष्ट के द्वारा जैसा सनातन काल से है, अब भी हो और युगानुयुग रहे। आमीन” (पद 24-25)।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया

डेविड हेल्म
डेविड हेल्म
डेविड हेल्म शिकागो, इल्लनोई में होली ट्रिनिटी चर्च के एक पास्टर हैं।