
यीशु मार्ग, सत्य और जीवन कैसे है?
1 जुलाई 2025यीशु सच्ची दाखलता कैसे है?

—मार्क जॉनस्टन
यीशु के “मैं हूँ” कथनों में से सातवाँ और अन्तिम कथन—“मैं ही सच्ची दाखलता हूँ” (यूहन्ना 15:1)—सम्भवतः उन सभी कथनों में सबसे अधिक रहस्यपूर्ण है (कम से कम गैर-यहूदी पाठकों के लिए)। कई पाठकों (और प्रचारकों) के लिए यह प्रलोभन का विषय हो सकता है कि वे इस तरह की भाषा को विशुद्ध रूप से एक रूपक के रूप में देखें कि कैसे हमें मसीहियों के रूप में व्यक्तिगत रूप से फलना-फूलना है और फलदायी होना है, परन्तु यीशु के मूल श्रोताओं का जो सभी यहूदी थे, इसका ऐसा अर्थ नहीं था।
इस कथन ने यहूदी श्रोताओं के ध्यान को उनकी इब्रानी बाइबल की ओर ले गया होगा, जहाँ दाखलाता की कल्पना परमेश्वर के इस्राएल के साथ व्यवहार में छुटकारे के प्रकट इतिहास के माध्यम से चली आ रही है। इसलिए, जैसे-जैसे यीशु की भाषा का प्रभाव उन पर पड़ने लगा, वे इस बात से चकित होने लगे थे कि यीशु पूर्ति के सन्दर्भ में अपने विषय में यह कहने का साहस कैसे कर रहा था।
भजन संहिता की पुस्तक में, भजनकार इस विषय में बात करता है कि इस्राएल एक राष्ट्र के रूप में कैसे अस्तित्व में आया, यह कहते हुए,
“तू मिस्र से एक दाखलता ले लाया;
तूने जाति-जाति को निकाल कर उसे लगा दिया।” (भजन 80:8)
नबी यशायाह इस्राएल को उसके आत्मिक पतन के विषय में चेतावनी देते हुए, एक दाख की बारी की भाषा का उपयोग करता है जिसे परमेश्वर ने रोपा और उसकी देखभाल की, परन्तु आगे चलकर वह दाख की बारी जंगली और निष्फल हो गई (यशायाह 5:1–6)। यिर्मयाह भी उसी भाषा का उपयोग करता है (यिर्मयाह 2:21)। यह सुन्दर परन्तु मार्मिक कल्पना थी।
परमेश्वर के लोगों के रूप में इस्राएल की पूरी कहानी उनके प्रति परमेश्वर के प्रेम और देखभाल के प्रमाणों से भरी हुई है। परमेश्वर ने उन्हें अनन्त काल से चुना, उन्हे दासत्व से छुड़ाया, उन्हे बियावन से बाहर निकाला, और उन्हें अपनी भूमि प्रदान की। परमेश्वर ने उसे वह सब दिया जिसकी उन्हें न केवल एक राष्ट्र के रूप में आत्मिक रूप से समृद्ध होने के लिए वरन् संसार के सभी राष्ट्रों के लिए उसके आशिष का साधन बनने के लिए आवश्यकता थी (उत्पत्ति 12:3)। परन्तु इस्राएल ने परमेश्वर के उपहार को नष्ट कर दिया और उसी परमेश्वर से दूर हो गया जो उसके अस्तित्व का कारण था।
जब यीशु ने स्वयं के सम्बन्ध में दाखलता की बात की तो उसके शिष्यों पर इसका अर्थ स्पष्ट था। जिस प्रकार इस्राएल में परमेश्वर के लोगों की सामूहिक पहचान उनके उद्धारकर्ता परमेश्वर में निहित थी, और उनका आत्मिक जीवन और फलदायीता उनके प्रभु और उद्धारकर्ता के साथ उनके मिलन और संगति में निहित थी, उसी प्रकार, अब और भी महिमामय रीति से, परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ ख्रीष्ट में पूर्ण हुई है।
आज बहुत से मसीहियों की मानसिकता बहुधा प्रबुद्धता के बाद के व्यक्तिवाद से आकार लेती है, जो मुख्य रूप से स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करती है और अपनी कहानी को सर्वोपरि मानती है। परन्तु यह मानसिकता बाइबल की शिक्षा के विपरीत है। पवित्रशास्त्र का प्रभाव केवल इस बात पर नहीं है कि हम अपने आप में क्या हैं, अपितु इस बात पर है कि हम उद्धार में अपने नए जीवन में सामूहिक रूप से क्या हैं। यीशु दाखलाता और उसकी शाखाओं की कल्पना का उपयोग अपने और अपने लोगों के बीच के सम्बन्ध को चित्रित करने के लिए करता है। उसके शिष्यों को ठीक-ठीक पता था कि वह क्या कह रहा था—कम से कम उस आत्मिक फलदायीता के सम्बन्ध में वो जानते ही थे जिसकी ओर यीशु के साथ मिलन को अनिवार्य रूप से ले जाना चाहिए।
यह ध्यान देने योग्य है कि यीशु द्वारा अपनी सच्ची दाखलता की छवि का पहला लागूकरण उन लोगों से सम्बन्धित है जो उनके अनुयायी होने का दिखावा करते हैं परन्तु वास्तव में हैं नहीं: “प्रत्येक डाली जो मुझ में है और नहीं फलती, उसे वह (परमेश्वर) काट डालता है” (यूहन्ना 15:2)। वह उन लोगों के विषय में बात कर रहा है जो कलीसिया में बाहरी भागीदारी के माध्यम से मसीही होने का दिखावा करते हैं परन्तु जिनका विश्वास का अंगीकार वास्तविक नहीं है। उनके पास उस बात का प्रमाण नहीं है जिसे बाद में पौलुस “आत्मा का फल” कहता है (गलातियों 5:22-23)।
यीशु आगे उन आधारों के विषय में बात करता हैं जिन पर लोगोंं को सच्ची दाखलता के रूप में उसमें समाविष्ट होते हैं जब वह कहता हैं, “तुम उस वचन के कारण जो मैंने तुमसे कहा है शुद्ध हो चुके हो” (यूहन्ना 15:3)। सुसमाचार में बोले गए उसके शब्द, सर्वप्रथम घोषणात्मक वचन हैं। यह विश्वास करने वालों को न केवल क्षमा का वरन् उसके धर्मी ठहराने वाले अनुग्रह के माध्यम से मिलने वाले शुद्धिकरण का भी आश्वासन देता है। यह परमेश्वर के साथ एक नए सम्बन्ध का, एक ही बार में सर्वदा के लिए घोषणा है।
तथापि, जैसा कि ईश्वरविज्ञानियों द्वारा बहुधा बताया जाता है, “अकेले विश्वास ही हमें धर्मी ठहराता है, परन्तु जो विश्वास धर्मी ठहराता है वह कभी अकेला नहीं होता है।” विश्वास पवित्रीकरण से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। परमेश्वर द्वारा हमारी क्षमा और स्वीकृति के माध्यम से परमेश्वर के सामने हमारी नई वैधिक स्थिति को हमारे जीवन में उसके परिवर्तनकारी अनुग्रह के प्रमाण में प्रकट होना चाहिए। वह हमें धीरे-धीरे अपने पुत्र, हमारे उद्धारकर्ता यीशु की छवि के अनुरूप बनाता है।
परन्तु बहुधा, जैसा कि पवित्रशास्त्र की शिक्षा में कहीं और प्रतिध्वनित होता है, हमारे नए जीवन की इस वृद्धि और फलदायीता के लिए हमें मूल्य चुकाना पड़ता है। पिता शाखाओं को अधिक फलदायी बनाने के लिए “छाँटता” है (यूहन्ना 15:2)। ईश्वरीय प्रावधान की कठोरताओं और जीवन के संघर्षों के माध्यम से, परमेश्वर हमें आत्म-निर्भरता से दूर करता है और हमें अपने पुत्र में और अधिक पूर्ण रूप से “बने रहना” सिखाता है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि यीशु उसमें “बने रहने” के अर्थ को व्यावहारिक रूप से समझने की कुँजी स्वयं प्रदान करता है: हमें उसमें बने रहना है और उसके वचनों को हममें बने रहना है (यूहन्ना 15:7)। इसका प्रमाण हमारे प्रार्थना जीवन में प्रकट होता है जब हम अपनी आवश्यकताओं को परमेश्वर के सामने रखते हैं और उसके उत्तर देने की विश्वासयोग्यता को अनुभव करते हैं।
मुख्य बात यह है कि ख्रीष्ट के शिष्यों के रूप में हमें उसके प्रेम में बने रहना है (यूहन्ना 15:9)। इसी एक सत्य ने पौलुस के मन में गहराई से घर कर लिया था, जो उसने गलातियों को लिखते हुए मार्मिक रूप से व्यक्त किया था, “जिसने [ख्रीष्ट ने] मुझ से प्रेम किया और मेरे लिए अपने आपको दे दिया” (गलातियों 2:20)। ख्रीष्ट का उसके प्रति प्रेम ही वह भूमि थी जिसमें ख्रीष्ट के प्रति पौलुस का प्रेम पनपा और बढ़ा। यही हमारे लिए भी सत्य हो, जो ख्रीष्ट, सच्ची दाखलता, से जुड़े हुए हैं।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।