पवित्र आत्मा
3 जून 2024इतिहास की पुस्तकें और भजन
7 जून 2024क्यों ख्रीष्टविज्ञान महत्वपूर्ण है?
“तुम क्या कहते हो मैं कौन हूँ?” यह वह प्रश्न था जिसे यीशु ने इस पृथ्वी पर रहते हुए अपनी सेवा के अन्तिम भाग के आरम्भ में अपने शिष्यों से पूछा।
उसके प्रश्न के उत्तर में पतरस का प्रतिउत्तर बहुत ही प्रसिद्ध है: “तू ख्रीष्ट है।” पतरस इस बात को स्वीकृत कर रहा है कि यीशु ही लम्बे समय से प्रतीक्षित मसीहा है, सम्पूर्ण पुराने नियम में ख्रीष्ट की प्रतिज्ञा हो रही है। निस्सन्देह पतरस अभी तक अपने मन में इस बात को समझ नहीं पाया था कि प्रतिज्ञात मसीहा भी कैसे दुख उठा सकता है और मर सकता है। उसको अभी भी इस बात का अनुभव करना शेष था कि दानिय्येल 7 का यह उनन्त जन और यशायाह 53 का दुख उठाने वाला जन एक ही है। यह सत्य उसको पूर्ण रीति से ख्रीष्ट के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के पश्चात ही स्पष्ट होगा।
एक बात जो शिष्यों ने बहुत ही शीघ्र समझ ली थी कि यीशु कोई साधरण जन नहीं है। उन्होंने उसे ऐसी बातें करते देखा और सुना जिन्होंने यह संकेत किया कि वह पूर्णतः और वास्तव में मनुष्य था। वह भूखा और प्यासा हुआ। वह थका और सोया। उसने दुख उठाया और मर गया। परन्तु उन्होंने उसे कुछ ऐसे कार्य करते हुए भी देखा जो केवल परमेश्वर ही कर सकता है। उन्होंने उसे उन बातों को कहते हुए सुना जिसे केवल परमेश्वर को ही कहनी चाहिए थी। थोमा के साथ-साथ, उन सब ने भी अंगीकार किया कि यीशु ही प्रभु है और यीशु ही परमेश्वर है (यूहन्ना 20:28)।
आरम्भिक शिष्यों के लिए, जो पुराने नियम में गहरी जड़ पकड़े हुए यहूदी थे, यह विचार महत्वपूर्ण प्रश्नों को खड़ा करेगा। प्रत्येक यहूदी को बचपन से ही विश्वास की आधारभूत शिक्षा दी जाती थी:
हे इस्राएल सुन! यहोवा हमारा परमेश्वर है, यहोवा एक ही है। तू अपने यहोवा परमेश्वर से अपने सारे मन, अपने सारे प्राण, था अपनी सारी शक्ति से प्रेम कर। (व्यवस्थाविरण 6:4-5)
केवल एक ही परमेश्वर है। फिर भी यह यीशु उन कार्यों को कर रहा था और उन बातों को कह रहा था जो केवल परमेश्वर कर सकता है या कह सकता है। और वह ऐसी बातें कर रहा था और कह रहा था जो केवल मनुष्यों के लिए करना उचित है।
इन दोनों बातों को हम कैसे समझे?
फरीसियों ने इसे यह सरांशित करते हुए समझा कि यीशु एक झूठ बोलने वाला ईश-निदक है, और उन्होंने उसको दोषी ठहराया। दूसरी ओर उसके अनुयायियों ने यह सरांशित करते हुए समझा कि वह वही था जो उसने कहाँ की वह है – वचन जो परमेश्वर के साथ था और जो परमेश्वर था (यूहन्ना 1:1), वचन जिसने देहधारण किया और हमारे बीच में निवास किया (यूहन्ना 1:14)।
किन्तु अधिक समय नहीं हुआ था कि कुछ शिक्षक उठ खड़े हुए जिन्होंने अनेक तत्थों को इस प्रकार समझा कि उन्होंने या तो सत्य को तोड़-मरोड़ दिया या खण्डित कर दिया। उदाहरण के लिए, इससे पूर्व कि नया नियम पूरा लिखा जाता, कुछ ऐसे लोग थे जो इस बात का इन्कार कर रहे थे कि ख्रीष्ट देह में आया था (1 यूहन्ना 4:3)। ख्रीष्टविज्ञान कितना महत्वपूर्ण है? … यूहन्ना इस विशेष प्रकार की ख्रीष्टविज्ञान में त्रुटि को “मसीह- विरोधी की आत्मा” के रूप में उल्लेखित करता है। इससे बढ़कर बातें और अधिक गम्भीर नहीं हो सकती हैं।
नए नियम के पूर्ण होने के सैकड़ों वर्ष पश्चात्, बहुत से इस बात को समझाने का प्रयास करेंगे कि हम कैसे इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि परमेश्वर एक है और इस बात को भी स्वीकार सकते हैं ना कि यीशु परमेश्वर है। बहुत से इस बात को समझाने का प्रयास करेंगे कि कैसे इस एक जन को जिसे हम परमेश्वर के रूप में स्वीकार करते हैं, दुख उठा सकता है और मर सकता है इस तत्थ को जानते हुए कि परमेश्वर न तो दुख उठ सकता है न ही मर सकता है। बहुत से इस बात को समझाने का प्रयास करेंगे कि कैसे यह एक जन परमेश्वर और मनुष्य दोनों की विशेषताओं को प्रदर्शित कर सकता है।
इन और अन्य प्रश्नों के बाइबल आधारित उत्तर पाने का संर्घष त्रिएकता और ख्रीष्टविज्ञान से सम्बन्धित तर्क-वितर्क के इतिहास में है।
किसी व्यक्ति द्वारा इन प्रश्नों के उत्तर इस बात को निर्धारित करते हैं कि यदि वह जन वचन में प्रकट त्रिएक परमेश्वर की आराधना कर रहा है या स्वयं की कल्पना के आधार पर एक मूर्ती की। उस व्यक्ति का उत्तर इस बात को निर्धारित करता है कि यदि वह जन परमेश्वर के पुत्र यीशु ख्रीष्ट का अनुयायी है या झूठे ख्रीष्टों में से किसी एक का।
आने वाले अन्य लेखों में हम बाइबल आधारित ख्रीष्ट सिद्धान्त के ऐतिहासिक संघर्षों का परिक्षण करेंगे। हम उन विश्वासवचनों को ध्यानपूर्वक देखेंगे जिनको वचन की शिक्षा के अधार पर अधिकारीक अभिव्यक्ति माना गया है। साथ ही हम उन त्रुटिपूर्ण विचारों को भी देखेंगे जिनको अबाइबलिय मानकर अस्वीकृत कर दिया गया है।
हमारा लक्ष्य है कि मनुष्य स्पष्ट रीति से उस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर दे सकें जिसका वह सामना करेगा: “आप क्या कहते हैं कि यीशु कौन है?”
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।