“प्रेरितीय” का क्या अर्थ है - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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“प्रेरितीय” का क्या अर्थ है

मेरी आशा है कि यह आपके लिए एक झटके के रूप में नहीं होगा कि मसीही कलीसिया 1960 के दशक में जीजस पीपल (the Jesus People) के द्वारा स्थापित नहीं की गई थी। न ही एक शताब्दी पहले कलीसिया की स्थापना बिली ग्राहम या यहाँ तक चार्ल्स फिन्नी के द्वारा भी नहीं हुई है। कलीसिया की स्थापना प्रथम महान जागृति के समय जोनाथन एडवर्ड्स या जॉर्ज व्हाइटफ़ील्ड द्वारा नहीं की गई थी। धर्मसुधार के समय मार्टिन लूथर और जॉन कैल्विन उसको सुधाराने का प्रयास कर रहे थे उस समय कलीसिया पन्द्रह शताब्दी पुरानी थी। हाँ, एक रीती से कलीसिया आदम और हव्वा एवं सबसे प्रथम परिवार के जितनी ही पुरानी है। कैल्विन इस बात की उचित पुष्टि की कि यीशु ख्रीष्ट के आगमन से पूर्व कलीसिया अपनी आरम्भिक अवस्था में इस्राएल के मध्य अस्तित्व में थी। परन्तु इस बात का सत्य तो यह है कि मसीही कलीसिया की स्थापना यीशु ख्रीष्ट के द्वारा हुई जब उन्होंने अपने प्रेरितों को अपने पीछे आने के लिए बुलाया। जब हम इस बात को मानते हैं कि यीशु ख्रीष्ट की कलीसिया प्रेरितीय है तो हमें यहीं से आरम्भ करना चाहिए।

यद्यपि कुछ आलोचनात्मक बाइबलीय विद्वानों के समूह में कलीसिया के विषय में यह सोच प्रचलित है कि कलीसिया एक आराधना करने वाला ऐसा समुदाय है जो मसीहा की खोज में है (तथाकथित है कि पहले मसीहियों ने एक भ्रमणशील भेदसूचक नबी [यीशु] को मसीहा के स्तर तक ऊपर उठाया था), जबकि बाइबलीय प्रकाशन दूसरा ही वृतान्त बताता है। कलीसिया किसी कट्टरपंथी (zealots) प्रतिभाशाली संगठनात्मक समूह का परिणाम नहीं थी मानो जिन्होंने इस बात पर विश्वास किया हो कि यीशु उनके हृदयों में जी उठा, यद्यपि वे निराशापूर्वक इस बात से संघर्ष कर रहे थे कि यीशु को रोम के द्वारा मृत्यु दी गई और उसका महिमान्वित राज्य, जिसकी प्रतिज्ञा की गई थी प्रकट नहीं हुआ। इसके विपरीत, बाइबलीय आलेख हमें यह बताते हैं कि कलीसिया जी उठे उद्धारकर्ता के द्वारा स्थापित की गई है, जो पहले पुनरुत्थान दिवस के दिन अपनी चुनी हुई साक्षियों के सम्मुख प्रकट हुआ, जो इस बात की पुष्टि है कि शुभ शुक्रवार को उसकी मृत्यु मानव पाप पर उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय थी। कलीसिया यीशु के निराश शिष्यों के द्वारा स्थापित नहीं की गई थी जो अपनी लज्जा बचाने का प्रयास कर रहे थे। कलीसिया तो स्वयं यीशु ख्रीष्ट के द्वारा स्थापित की गई थी।
यह तब स्पष्ट हो जाता है जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि पुनरुत्थान के बाद हमारे प्रभु का अपने शिष्यों के सामने प्रकट होना निर्वात (vacuum) में नहीं हुआ। हमारे प्रभु के पुनरुत्थान का प्रकट होना उसकी तीन-वर्ष की मसीहाई सेवा की पृष्ठभूमि में हुआ जिसमें यीशु ने इस बात को दिखाया कि वही वह जन है जिसकी प्रतिज्ञा पूरे पुराने नियम की गई थी और कि वह अपना राज्य स्थापित करने आया और कलीसिया की स्थापना की। पिन्तेकुस्त (प्रेरितों के काम 2) जिसे कई एक बार कलीसिया के औपचारिक जन्मदिन के रूप में माना जाता है, हमारे प्रभु की सभी प्रतिज्ञाओं की पराकाष्ठा है और जिसे केवल हमारे प्रभु की मसीहाई सेवा की पृष्ठभूमि में ही समझ सकते हैं।

जबकि हो सकता है कि इस्राएल के समयकाल में कलीसिया एक शिशु के समान रही हो, छुटकारे के इतिहास की चल रही प्रगति का अर्थ था कि एक दिन इस शिशु कलीसिया को पूर्ण परिपक्वता तक बढ़ना होगा। वास्तव में, जब समय पूरा हुआ तो परमेश्वर ने अपने पुत्र तो भेजा कि जो लोग व्यवस्था के अधीन हैं उन्हें मूल्य चुकाकर छुड़ा ले (गलातियों 4:4-6)। जब यीशु ने अपने बपतिस्मा और पवित्र आत्मा की प्राप्ति के बाद लोगों के मध्य में अपनी सेवा आरम्भ की, तो हम मत्ती 4:23 में पढ़ते हैं कि यीशु “सारे गलील में फिरता हुआ उनके आराधनालयों में उपदेश करता, राज्य का सुसमाचार प्रचार करता, और लोगों की हर प्रकार की बीमारी और हर प्रकार की दुर्बलता को दूर करता फिरा”। राज्य के शुभ सन्देश की उद्धोषणा और हमारे प्रभु के द्वारा किए गए आश्चर्यकर्मों के द्वारा इसके आगमन की पुष्टि इस बात के गम्भीर संकेत हैं कि अन्तः मसीहाई युग का आरम्भ हो चुका है। छुटकारे के इतिहास में एक नया युग आरम्भ हो चुका है। परमेश्वर के लोग अब आगे के लिए मूसा की व्यवस्था और यहूदी द्वारा राष्ट्रवाद बाध्य नहीं होंगे। सुसमाचार को अब पृथ्वी के छोर तक जाना चाहिए जैसा की परमेश्वर का राज्य स्वर्ग के नीचे प्रत्येक जाति, समस्त कुल, लोग और भाषा तक विस्तृत होगा।
जब हम इस बात का अंगीकार करते हैं कि कलीसिया प्रेरितीय है, तो हम इस बात को भी स्वीकारते हैं कि कलीसिया की स्थापना उसी ही सुसमाचार पर हुई है जो यीशु ने अपने शिष्यों को दिया था।

जैसे ही यीशु के स्वयं की मसीहाई सेवा आरम्भ हुई, तो हम मत्ती 10:1 से सीखते हैं कि यीशु “ने अपने बाहर चेलों को बुलाकर, उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारी तथा सब प्रकार की दुर्बलता को चंगा करें।” इन लोगों को अपने पास बुलाकर, यीशु ने इनको एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य के लिए भेजा। उनको वैसे ही राज्य के सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए जैसा मत्ती 10:5-42 में सुसमाचार को परिभाषित किया गया है, जिसकी आज्ञा यीशु ने दी थी। यह बारह की पुरूष क्यों? और केवल यही विशेष सन्देश ही क्यो?

इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए हमें केवल इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि प्रेरितों को यीशु ख्रीष्ट की साक्षी होने के लिए भेजा गया था, जिससे कि वह इस्राएल के नगरों में जाकर उस सन्देश की उद्घोषणा करें जिसको यीशु ने उन्हें सौंपा था। जिस क्षण उन बराहों को यीशु के पीछे चलने के लिए बुलाया गया था, उन्हें उस सुसमाचार का प्रचारक होने के लिए भी अधिकृत किया गया जिसकी शिक्षा यीशु ने उन्हें व्यक्तिगत रीति से दी थी। यीशु ख्रीष्ट और उसके सुसमाचार के साक्षी होने के कारण, वे यीशु ख्रीष्ट की कलीसिया की नींव बनेंगे। यह हम इफिसियों 2:20 में देखते हैं, जब पौलुस कई दशक पूर्व पीछे मु़ड़कर कलीसिया की स्थापना को देखता है। पौलुस कलीसिया के अस्तित्व के विषय में कहता है “प्रेरितों तथा नबियों की नींव पर, जिसके कोने का पत्थर ख्रीष्ट यीशु स्वयं है, बनाए गए हो। जिसमें सम्पूर्ण रचना एक साथ मिलकर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है, जिसमें तुम भी आत्मा के द्वारा परमेश्वर का निवासस्थान होने के लिए एक साथ बनाए जाते हो।” यीशु ने केवल कलीसिया की नींव ही नहीं रखी है, उसने अपनी कलीसिया की नीवं सुसमाचार के प्रचार पर रखी है, वह सन्देश जिसे बाद में पौलुस यीशु ख्रीष्ट के मरने, गाड़े जाने तथा पवित्रशास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी उठने (1 कुरिन्थियों 15:1-8) के रूप में परिभाषित करेगा। बराहों को बुलाने और सुसमाचार का प्रचार करने के बीच का सम्बन्ध बहुत ही आवश्यक है। जब हम इस बात का अंगीकार करते हैं कि कलीसिया प्रेरितीय है, तो हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि कलीसिया उसी सुसमाचार पर स्थापित हुई है जिससे यीशु ने अपने शिष्यों को दिया था।
मत्ती 16:18 में हम पढ़ते हैं कि यीशु ने अपने शिष्यों से प्रतिज्ञा की, कि अधोलोक के फाटक उसकी कलीसिया पर प्रबल नहीं होंगे। उसी खण्ड में, यीशु अपनी कलीसिया को स्वर्ग के राज्य की कुँजिया देता है (मत्ती 16:13-20)। यीशु को “जीवित परमेश्वर का पुत्र ख्रीष्ट” अंगीकार करके पतरस आरम्भिक कलीसिया का अगुवा बन जाएगा, बाद में और प्रेरित और अगुवें भी इसमें सहभागी होंगे, वे एक साथ एकत्रित होंगे जिससे कि वह यीशु से प्राप्त कुँजिया का उपयोग करें और कलीसिया में लागू किए जाने वाले सिद्धान्त और अभ्यासों पर निर्णय लें (प्रेरितों के काम 15:1-21)। जब हम इस बात का अंगीकार करते हैं कि कलीसिया प्रेरितीय है, तो इसका अर्थ है कि कलीसिया अपने स्थापक के अधिकार का उपयोग करती है, उन अधिकारियों जिनको बुलाया गया और जिन्हें उनके प्रभु के नाम पर शासन करने के लिए अधिकृत किया गया (प्रेरितों के काम 6:1-7; 20:17; इफिसियों 3:2-7; 1 तीमुथियुस 3:1-15)।
अन्ततः अपने स्वार्गरोहण से पहले, यीशु अपने शिष्यों को एक अन्तिम निर्देश देता है, “इसलिए जाओ और सब जातियों के लोगों को चेले बनाओ तथा उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो, और जो जो आज्ञाएँ मैनें तुम्हें दी हैं उनका पालन करना सिखाओ। और देखो, मैं युग के अन्त तक सदैव तुम्हारे साथ हूँ” (मत्ती 28:19-20)। सुसमाचार के प्रचार के द्वारा, शिष्यों को बनाने के द्वारा, और धार्मिक विधियों का संचालन करने के द्वारा यीशु अपनी कलीसिया की रक्षा करेगा। यद्यपि परमेश्वर के लोगों के लिए कई बातें निराशाजनक हो सकती हैं, परन्तु परमेश्वर ही है जो इस पृथ्वी पर अपने लोगों और कलीसिया की रक्षा करेगा। स्मरण करो कि नूह के दिनों में परमेश्वर के लोग घटकर आठ ही रह गए थे! एलिय्याह के दिनों में इस्राएल में जिन विश्वासियों ने बाल देवता के सामने घुटने नहीं टेके थे उनकी संख्या मात्र सात हजार बची थी।
अपनी कलीसिया के लिए यीशु के अन्तिम शब्द हमें बताते हैं कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। जैसा कि हम प्रेरितों के काम 2:41 में पढ़ते हैं, पिन्तेकुस्त के दिन ही लगभग तीन हजार लोग बचाए गए थे। और जल्द ही उसके बाद यह संख्या बढ़कर पाँच हज़ार हो गई थी (प्रेरितों के काम 4:4)। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकाशितवाक्य 7:9 में एक विशाल भीड़ श्वेत वस्त्र पहिने सिंहासन के सामने खड़ी थी जिसे कोई गिन नहीं सकता था। वे लोग प्रत्येक जाति, समस्त कुल, और लोगों से हैं। परन्तु वे सब एक ही बात का अंगीकार कर रहे है: “सिंहासन पर विराजमान हमारे परमेश्वर और मेमने से ही उद्धार है!” यीशु ने अपने प्रेरितों को बुलाने के द्वारा अपनी कलीसिया की स्थापना की है। उसने उन्हें अपना सुसमाचार और अधिकार दिया कि वे खोले और बान्धे (अर्थात् विश्वास की पुष्टि)। अब यीशु प्रतिज्ञा कर रहे हैं कि वह युग के अन्त तक सदैव अपनी कलीसिया के साथ होंगे। यीशु कोई अनुउपस्थित भूस्वामी नहीं है। वह तो अपने पुनः आगमन तक अपने लोगों के मध्य उपस्थित है।

जब हम इस बात का अंगीकार करते हैं कि कलीसिया प्रेरितीय है, तो हम इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि जिन कलीसियाओं के आज हम भाग हैं वह उस कलीसिया से सीधी रीति से जुड़ी हुई है जिसके विषय में हम प्रेरितों के काम की पुस्तक में पाते हैं। यह कलीसिया की औपचारिक संरचना नहीं है जो बनी हुई है, न ही हमको पतरस से लेकर वर्तमान में पोप की अटूट पद्धति का पता लगाने की आवश्यकता है। परन्तु इसका अर्थ यह अवश्य ही है कि वह सुसमाचार जो यीशु ने अपने शिष्यों को दिया था वही है जिसका हम अभी प्रचार करते हैं। यह सुसमाचार पुरुषों और महिलाओं को यीशु ख्रीष्ट में विश्वास करने के लिए बुलाता है। यह सुसमाचार हमें बाँधने और खोलने का अधिकार देता है और हमें अपनी कलीसिया में प्रभु सेवा करने के लिए बुलाता है, वैसे ही जैसे यीशु ने अपने पहले शिष्यों को बुलाया था। और जब हम इस प्रेरितीय सुसमाचार का प्रचार करते हैं, तो हम अपने प्रभु की कृपा, सुरक्षा और उपस्थिति के लिए आश्वस्त हो सकते हैं। जब हम ख्रीष्ट की कलीसिया को प्रेरितीय कहते हैं तो हमारा यही अर्थ होता है।

 यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

किम रिडलबर्गर
किम रिडलबर्गर
डॉ. किम रिडलबर्गर अनाहाइम, कैलिफ़ोर्निया में क्राइस्ट रिफॉर्म्ड चर्च के वरिष्ठ पास्टर और व्हाइट हॉर्स इन रेडियो कार्यक्रम के सह आयोजक हैं। वह लेक्टियो कॉन्टिनुआ ( Lectio Continua) श्रृंखला में सहस्त्रवर्षीयहीनवाद का पक्ष (A Case for Amillennialism) और पहला कुरिन्थियों (First Corinthians) के लेखक हैं।