कलीसिया को सुधारने की आवश्यकता पर जॉन कैल्विन - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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कलीसिया को सुधारने की आवश्यकता पर जॉन कैल्विन

450 से अधिक वर्ष पहले, जॉन कैल्विन के पास एक अनुरोध आया कि वह कलीसिया में सुधार के लिए आवश्यकता और चरित्र के विषय में लिखें। परिस्थितियाँ उन समयों से बहुत भिन्न थीं, जिन्होंने कैल्विन के अन्य लेखनों को प्रेरित किया था, और हमें उसके द्वारा धर्मसुधार की रक्षा के अन्य पहलूओं को देखने के लिए सक्षम करती हैं। 1544 में सम्राट चार्ल्स V पवित्र रोमन साम्राज्य की महासभा को बुला रहा था स्पीयर के शहर में मिलने के लिए। मार्टिन ब्यूसर, स्ट्रासबर्ग के महान धर्मसुधारक ने, कैल्विन से निवेदन किया, कि वह धर्मसुधार के सिद्धान्त और उसकी आवश्यकता के विषय में एक कथन को तैयार करे। परिणाम उल्लेखनीय था। थियोडोर बेज़ा, कैल्विन का मित्र और जेनीवा में उसका क्रमानुयायी ने “कलीसिया की सुधार की आवश्यकता” को उसके समय का सबसे अधिक प्रभावशाली कार्य कहा।

कैल्विन इस कार्य को तीन बड़े भागों में संयोजित करता है। पहला भाग कलीसिया में उन बुराइयों के लिए समर्पित है जिन्हें सुधरने की आवश्यकता थी। दूसरा भाग, सुधारकों द्वारा उन बुराइयों के लिए विशेष उपायों का विवरण देता है। तीसरा भाग दिखाता है कि सुधार का विलम्ब क्यों नहीं किया जा सकता है, वरन् कैसे इस परिस्थिति ने  “तत्काल संशोधन” की मांग की।

इन तीनों के प्रत्येक भाग में कैल्विन चार विषयों पर ध्यान केन्द्रित करता है, जिन्हें वह कलीसिया की प्राण और देह कहता है। कलीसिया का प्राण आराधना और उद्धार है। देह कलीसियाई विधियाँ और कलीसियाई प्रशासन है। कैल्विन के लिए सुधार का सबसे बड़ा कारण इन विषयों में केन्द्रित है। बुराइयां, समाधान, और अति शीघ्र कार्य की आवश्यकता सभी आराधना, उद्धार, कलीसियाई विधियों, और कलीसिया प्रशासन से सम्बन्धित हैं।

कैल्विन के लिए सुधार के सबसे बड़ा कारण इन विषयों में केन्द्रित है। कैल्विन के लिए इन विषयों का महत्व चिन्हांकित किया गया है जब हम स्मरण करते हैं कि वह इन चार क्षेत्रों में आलोचना का उत्तर नहीं दे रहा था, किन्तु उसने स्वयं इन्हें धर्मसुधार के सबसे महत्वपूर्ण पहलूओं के रूप में चुना। सही आराधना कैल्विन की पहली चिन्ता है।

आराधना

कैल्विन आराधना के महत्व पर बल देता है क्योंकि मनुष्य बहुत सरलता से परमेश्वर की बुद्धि के अनुसार नहीं, वरन् अपनी बुद्धि के अनुसार आराधना करते हैं। वह कहता है कि आराधना को केवल परमेश्वर के वचन के द्वारा व्यवस्थित किया जाना चाहिए: “मैं जानता हूँ कि कितना कठिन है संसार को यह मनवाना या समझाना कि परमेश्वर आराधना के सभी रीतियों को अस्वीकार करता है जो उसके वचन के द्वारा स्पष्ट रूप से अनुमोदन नहीं किए गए हैं। विपरीत मत जो उनके साथ चिपका हुआ है, मानो कि उनकी हड्डियों और मज्जा में बैठा हुआ है, यह है कि जो कुछ भी वे करते हैं अपने आप में एक पर्याप्त अनुमोदन है, जब तक वह परमेश्वर के सम्मान के लिए किसी प्रकार का उत्साह प्रदर्शित करता है। परन्तु क्योंकि परमेश्वर उसकी आराधना में उत्साह के द्वारा की गईं उन सब बातों को जो उसकी आज्ञा से हटकर हैं, न केवल फलहीन समझता है, वरन् उनसे स्पष्ट रूप से घृणा भी करता है, हमें एक विपरीत दिशा में जाकर क्या प्राप्त होता है? परमेश्वर के वचन स्पष्ट और सुनिश्चित हैं ‘आज्ञाकारिता बलिदान से बेहतर है।’” यह दृढ़ विश्वास एक कारण है कि सुधार की आवश्यकता थी: “… क्योंकि…  परमेश्वर बहुत सारे खण्ड़ों में किसी भी नई आराधना को, जिसकी अनुमति उसके वचन में नहीं दी गई है, अस्वीकृत करता है;  क्योंकि वह घोषणा करता है कि वह उस दुस्साहस से अत्यधिक अपमानित होता है जो ऐसी आराधना का आविष्कार करता है, और इसे गम्भीर दण्ड की चेतावनी देता है, यह स्पष्ट है कि जिस सुधार का परिचय हमने दिया है उसकी मांग एक दृढ़ आवश्यकता के द्वारा की गई थी।” परमेश्वर के वचन के मानक के अनुसार कैल्विन रोमन कैथोलिक कलीसिया के विषय में निष्कर्ष निकालता है कि “परमेश्वरीय आराधना की पूरी विधि जो वर्तमान में सामान्य रीति से प्रयोग में है मात्र भ्रष्टाचार से हटकर कुछ और नहीं है।”

कैल्विन के लिए मध्ययुगीन कलीसिया की आराधना “घोर मूर्ति-पूजा”  बन गई थी। मूर्ति-पूजा का विषय उसके लिए उतना ही गम्भीर था जितना कि धर्मी ठहराए जाने में कार्य की धार्मिकता। दोनों प्रतिनिधित्व करते थे मनुष्य की बुद्धि द्वारा परमेश्वरीय प्रकाशन के स्थान का लिया जाने का। दोनों प्रतिनिधित्व करते थे मानवीय इच्छाओं को पूरा करना, परमेश्वर को प्रसन्न करने और उसकी आज्ञा के स्थान पर। कैल्विन दृढ़ता से कहता है कि मूर्ति पूजकों के साथ आराधना में कोई एकता नहीं हो सकती है: “परन्तु यह कहा जाएगा, कि, यद्यपि नबियों ने और प्रेरितों ने सिद्धान्त में दुष्ट याजकों का विरोध किया, फिर भी उन्होंने बलिदान और प्रार्थना में उनके साथ सहभागिता बनाए रखा। मैं मानता हूँ कि उन्होंने किया, जब तक उन पर मूर्ति-पूजा के लिए दबाव नहीं डाला गया। परन्तु बेत-एल में बलिदान करते हुए हम किन नबियों के विषय में पढ़ते हैं?”

धर्मसुधारकों को, पुराने नबियों के समान, अपने समय के मूर्ति-पूजा और “बाहरी प्रदर्शन” पर धावा बोलने की आवश्यकता थी। कैल्विन के दिनों में कलीसिया के दिखावे के लिए समाधान आराधना की एक भक्तिपूर्ण सादगी थी—जैसे जेनीवा की कलीसिया के आराधना के क्रम में प्रतिबिम्बित था। इस प्रकार की सादगी आराधकों को आराधना में मन के साथ साथ देह भी देने के लिए प्रोत्साहित करती थी: “क्योंकि यह सच्चे आराधकों के लिए हृदय और मन देना अनिवार्य है, मनुष्य सर्वदा इच्छुक होते हैं एक ऐसी विधि का आविष्कार करने के लिए जो पूरी रीति से अलग विवरण की है, इस उद्देश्य के साथ कि कुछ शारीरिक विधियों का प्रदर्शित किया जाए, और मन को स्वयं के पास रहने दिया जाए।”

धर्मी ठहराया जाना

कैल्विन उसके बाद धर्मी ठहराए जाने के विषय की ओर मुड़ता है। यहाँ वह मानता है कि असहमतियां तीव्र रही हैं: “ऐसा कोई बिन्दु नहीं है कि जो अधिक तीव्रता से विवादित है, कोई ऐसा नहीं जिसमें हमारे विरोधी उनके विरोध में अधिक हठी है, धर्मी ठहराए जाने की तुलना में, अर्थात्, कि क्या हम इसे विश्वास के द्वारा या कार्य के द्वारा प्राप्त करते हैं।” इस सिद्धान्त पर “कलीसिया की सुरक्षा” निर्भर है और इस सिद्धान्त में त्रुटियों के कारण से कलीसिया को “एक घातक चोट” लगी है और “विनाश के कगार तक लाई गई है।”

कैल्विन दृढ़ता से कहता है कि धर्मी ठहराया जाना केवल विश्वास ही के द्वारा है: “. . . हम बनाए रखते हैं, मनुष्य के कार्यों का चाहे कोई सा भी विवरण क्यों न हो, उसे परमेश्वर के समक्ष धर्मी गिना जाता है, केवल अनुग्रहपूर्ण दया के आधार पर; क्योंकि परमेश्वर, किसी कार्य के आधार पर नहीं, स्वतंत्र रूप से ख्रीष्ट में उसे अपनाता है, उस में ख्रीष्ट की धार्मिकता का अभ्यारोपण के द्वारा, जैसे कि वह उसके स्वयं का था।” 

इस सिद्धान्त का ख्रीष्टिय के जीवन और अनुभव पर गहरा प्रभाव है: “. . . मनुष्य को उसकी दरिद्रता और सामर्थ्यहीनता का विश्वास दिलाने के द्वारा, हम उसे अधिक प्रभावी रीति से प्रशिक्षित करते हैं सच्ची विनम्रता के लिए, जिससे वह सब आत्म-विश्वास को त्यागे, और स्वयं को पूरी रीति से परमेश्वर को सौंप दे; और कि, उसी रीति से, हम उसे और अधिक प्रभावी रीति से प्रशिक्षित करते हैं कृतज्ञता के लिए, उसकी अगुवाई करने दे द्वारा कि वह प्रत्येक भली वस्तु के लिए, परमेश्वर की दयालुता को श्रेय दे, जैसा कि वास्तव में उसका करना चाहिए।”

कलीसियाई विधियाँ

कैल्विन का तीसरा विषय कलीसियाई विधियाँ हैं जिनकी जाँच पड़ताल वह विस्तार से करता है। वह असंतुष्टता प्रकट करता है कि “मनुष्य के द्वारा अविष्कार की गई विधियों को ख्रीष्ट के द्वारा स्थापित रहस्यों के साथ एक ही श्रेणी में रखा गया था” और कि प्रभु-भोज को विशेष रूप से “नाटकीय प्रदर्शनी” में बदल दिया गया था। परमेश्वर के कलीसियाई विधियों का ऐसा दुरुपयोग असहनीय है। “पहली बात जिसके विषय में हम यहाँ असंतुष्टता प्रकट करते हैं यह है, कि दिखावटी रीति विधियों के साथ लोगों का मनोरंजन किया जाता है, जबकि एक शब्द भी उनके महत्व और सच्चाई के बारे में नहीं कहा जा रहा है। क्योंकि इन कलीसियाई विधियों का तब तक कोई उपयोग नहीं होता जब तक कि उस बात को परमेश्वर के वचन के अनुसार समझाया न जाए जिसका प्रतिनिधित्व चिह्न प्रत्यक्ष रूप से करता है।”

कैल्विन विलाप करता है कि कलीसियाई विधियों का सिद्धान्त और परम्परा की सादगी जो आरम्भिक कलीसिया में प्रचलित थी वह खो चुकी थी। यह सबसे स्पष्ट रूप से दिखता है प्रभु-भोज में। परमप्रसादीय बलिदान, तत्व परिवर्तन और पवित्र किए गए रोटी और दाखरस की आराधना अबाइबलीय हैं और इस कलीसियाई विधि के वास्तविक अभिप्राय को मिटा देते हैं। “जबकि इस कलीसियाई विधि को भक्तिपूर्ण मनों को स्वर्ग की ओर उठाने का एक साधन होना चाहिए था, प्रभु-भोज के पवित्र प्रतीकों को पूरी तरह से एक अलग उद्देश्य के लिए दुरुपयोग किया गया था, और मनुष्यों ने, उनकी ओर देखने और उनकी आराधना करने से सन्तुष्ट हुए, एक बार भी ख्रीष्ट के बारे में नहीं सोचा।” ख्रीष्ट के कार्यों को मिटाया जाता है, जैसे कि यह परमप्रसादीय बलिदान के विचार में देखा जा सकता है, जहाँ “. . . ख्रीष्ट को एक दिन में एक हज़ार बार बलिदान किया गया, जैसे कि हमारे लिए एक बार मरने में उसने पर्याप्त नहीं किया था।”

भोज के सही अर्थ को कैल्विन द्वारा सरलता से सारांशित किया गया है: “. . . हम सब विश्वास के साथ आने के लिए आग्रह करते हैं . . . हम . . . प्रचार करते हैं कि ख्रीष्ट की देह और लहू दोनों प्रभु-भोज में प्रभु के द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं; और हमारे द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। न ही हम सिखाते हैं कि रोटी और दाखरस प्रतीक हैं, बिना शीघ्रता से जोड़े कि इसमें एक सच्चाई है जो उसके साथ संयुक्त है, और जिसे वे प्रतिनिधित्व करते हैं।” ख्रीष्ट वास्तव में स्वयं को और उसके सभी उद्धार के लाभ उन्हें देता है जो विश्वास से प्रभु-भोज में भाग लेते हैं।

कलीसियाई विधियों का कैल्विन के विचार का यह संक्षिप्त विवरण इस महत्वपूर्ण विषय का उसके व्यवहार का एक स्वाद मात्र देता है। वह बपतिस्मा को बहुत देता है और साथ ही साथ यह रोम के उस  दृष्टिकोण का खण्डन करता है कि पाँच अतिरिक्त कलीसियाई विधियाँ हैं।           

कलीसियाई प्रशासन

अन्त में कैल्विन कलीसियाई प्रशासन के विषय की ओर फिरता है। वह उल्लेख करता है कि यह सम्भवतः एक विशाल विषय हैं: “यदि मैं विस्तार से कलीसियाई प्रशासन के त्रुटियों को विस्तार से देखता, मैं कभी समाप्त नहीं करने पाता। वह अपने पास्टर के कार्यभार के महत्व पर ध्यान देता है। शिक्षा देने का अवसर और उत्तरदायित्व इस कार्य भार के केन्द्र में हैं। “. . . कोई भी व्यक्ति कलीसिया का सच्चा पास्टर नहीं है जो शिक्षा देने के कार्यभार को पूरा न करे।” धर्मसुधार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है प्रचार को उसके उचित स्थान पर पुनःस्थापित करना परमेश्वर के लोगों के जीवन में। “. . . हमारी कोई कलीसिया नहीं देखी जाती है वचन के सामान्य प्रचार के बिना।” पास्टर का कार्य-भार को पवित्रता को शिक्षा से जोड़ना चाहिए: “. . . उन लोगों को, जो कलीसिया में अध्यक्षता करते हैं, दूसरों से उत्तम होने चाहिए, और उन्हें एक पवित्र जीवन के उदाहरण से चमकना चाहिए . . .।”

कैल्विन असंतुष्टि व्यक्त करता है कि शिक्षा देना और पवित्रता का अनुसरण करने के स्थान पर रोम की कलीसिया “एक अति क्रूर अत्याचार” करती है परमेश्वर के लोगों के प्राणों के ऊपर, ऐसी शक्ति और अधिकार का दावा करते हुए जिसे परमेश्वर ने उन्हें नहीं दिए। धर्मसुधार एक महिमामय स्वतंत्रता लाया अबाइबलीय ऐसे परम्पराओं से जिन्होंने कलीसिया को बाँध के रखी थी। “अतः क्योंकि हमारा कर्तव्य था विश्वसनीय लोगों के विवेकों को मुक्त करना उस अनावश्यक दासत्व से जिसमें वे जकड़े हुए थे, इसलिए हमने सिखाया है कि वे स्वतंत्र हैं और मनुष्यों की व्यवस्थाओं से बन्धे हुए नहीं हैं, और कि इस स्वतंत्रता का, जिसको ख्रीष्ट के लहू द्वारा मोल लिया गया, उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।

रोमन कलीसिया ने अपनी प्रेरिताई उत्तराधिकार को बहुत महत्व दिया, विशेष रूप से पुरोहिताभिषेक के लिए। कैल्विन दृढ़ता से कहता है कि सुधारवादी अभिषेक ख्रीष्ट, प्रेरितों और आरम्भिक कलीसिया की वास्तविक शिक्षा और परम्परा का अनुकरण करती है। वह कहता है, “इसलिए, कोई भी अभिषिक्त करने के अधिकार को अपना नहीं कह सकता, जो कि शुद्ध शिक्षा के द्वारा, कलीसिया की एकता को नहीं सम्भालता है।”

धर्मसुधार 

कैल्विन इस लेख की समाप्ति करता है धर्मसुधार के प्रगति के विषय में मनन करने के साथ। वह आरम्भ के लिए श्रेय देता है मार्टिन लूथर को जिसने “एक कोमल हाथ” के साथ धर्मसुधार के लिए आह्वान दिया। रोम का प्रतिउत्तर “सत्य को क्रूरता और हिंसा के साथ दबाने का” एक प्रयास था। इस युद्ध ने कैल्विन को आश्चर्यचकित नहीं किया, क्योंकि “. . . सुसमाचार के एकरूप नियति, इसके पहले आरम्भ से, रही है, और सदैव रहेगी, अन्त तक भी, संसार में अधिक प्रतिद्वंदिता के मध्य में भी प्रचार किया जाना।”

कैल्विन कलीसिया के जीवन में इस समस्या को सही ठहराता है, उन विवादित विषयों के महत्व के कारण। वह इस तत्व के सत्य को घटाने की अनुमति नहीं देता है कि “ख्रीष्टिय धर्म की पूरी सार” दाँव पर है। क्योंकि धर्मसुधारकों ने बाइबल के आज्ञानुसार कार्य किए, वह किसी भी सुझाव को निरस्त किया कि वे भेदमूलक हैं: “. . . इस बात को देने की आवश्यकता है, सबसे पहले, कि कलीसिया को ख्रीष्ट से, अर्थात् उसके सिर से, अलग करने से सावधान रहें। जब मैं ख्रीष्ट कहता हूँ, मैं उसके सुसमाचार के सिद्धान्त को सम्मिलित करता हूँ, जिसे उसने अपने लहू से छाप लगाई . . . इसलिए, इसे एक दृढ़ विषय रहने दें, कि हमारे मध्य एक पवित्र एकता बनी रहे, जब, पवित्र सिद्धान्त में सहमत होते हुए, हम केवल ख्रीष्ट में एक किए जाते हैं।” कलीसिया नाम नहीं है जो एकता प्रदान करता है, परन्तु सच्ची कलीसिया की वास्तविकता जो परमेश्वर के वचन में बनी रहती है।

फिर कैल्विन व्यावहारिक प्रश्न की ओर फिरता है कि उचित रूप से कौन नेतृत्व कर सकता है कलीसिया में धर्मसुधार के अभियान का। वह इस विचार को अस्वीकार करता है कि पोप कलीसिया की या धर्मसुधार की अगुवाई कर सकता है सशक्त भाषा में: “मैं उसके अधिकार-क्षेत्र को प्रेरित-सम्बन्धित देखने से नकारता हूँ, जिसमें धर्मत्याग को छोड़ और कुछ नहीं दिखाई  देता है—मैं उसे ख्रीष्ट का प्रतिनिधित्व होने से भी नकारता हूँ, जो, क्रोधावेश में सुसमाचार को सता रहा है, अपने व्यवहार से दिखाता है कि वह ख्रीष्ट विरोधी है—मैं उसे पतरस का उत्तराधिकारी होने से भी नकारता हूँ, जो प्रत्येक भवन को चकना-चूर करने के लिए अपनी भरसक प्रयास कर रहा है जिसे पतरस ने बनाया था और मैं उसे कलीसिया का सिर होने से भी नकारता हूँ, जो अपने तानाशाही कलीसिया को फाड़ता है और खण्डित करता है, उसे ख्रीष्ट से विभाजित करने के बाद, जो उसका सच्चा एवं एकमात्र सिर है।” वह जानता है कि कलीसिया की समस्या को समाधान करने के लिए बहुत लोग एक विश्वव्यापी सभा के लिए आह्वान करते हैं, परन्तु डरता है कि इस प्रकार की सभा कभी भी हो नहीं सकती है और कि यदि वह होती भी हैं, तो यह पोप के द्वारा नियंत्रित होगी। वह सुझाव देता है कि कलीसिया को प्राचीन कलीसिया की परम्परा का अनुकरण करना चाहिए और विभिन्न स्थानीय या प्रान्तीय सभाओं में विषयों का समाधान करना चाहिए। किसी भी बात में आन्दोलन को अन्ततः परमेश्वर पर छोड़ दिया जाना चाहिए जो सभी धर्मसुधार प्रयासों को आशिष प्रदान करेगा जो उसे उपयुक्त लगता है: “हम, सचमुच, इच्छुक हैं, जैसे हमें होना भी चाहिए, कि हमारी सेवा संसार के लिए लाभकारी प्रमाणित हो सके; परन्तु इसे ऐसा प्रभावशाली बनाना परमेश्वर के वश में है, हमारे नहीं।”

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डॉ. डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के एक सह शिक्षक हैं और कैलिफ़ोर्निया के वेस्टमिन्सटर सेमिनरी में ससम्मान सेवामुक्त अध्यक्ष और प्रोफेसर हैं। वह कलीसिया के इतिहास के सर्वेक्षण के छह-भाग लिग्निएर शिक्षण श्रृंखला के लिए विशेष रूप से शिक्षक हैं और कई पुस्तकों के लेखक, जिसमें सेविंग रिफॉर्मेशन भी सम्मिलित है।