राज्य का राजा और नियम
7 अक्टूबर 2024स्वर्गीय राज्य और संसारिक राज्य
11 अक्टूबर 2024राज्य की व्यक्तिगत ईश्वरभक्ति
ईश्वरभक्ति शब्द गले में अटक-सा जाता है। इसका क्या अर्थ है? कुछ लोगों के लिए ईश्वरभक्त होने का अर्थ है दूसरे लोगों से अधिक पवित्र होने का दिखावा करना, जो दूसरों को अप्रिय प्रतीत होता है और आत्मिक घमण्ड से भरा हुआ है। अन्य लोगों के लिए, ईश्वरभक्त होना मोरावी (Moravians) लोगों के सुसमाचारवादी भक्तिवाद के इतिहास में गहराई से निहित है, जिसने जॉन वेस्ली को प्रभावित किया और इस प्रकार से अठारहवीं शताब्दी और आज हमारे समय तक सम्पूर्ण सुसमाचारवादी जागृति को प्रभावित किया। सम्भवतः अधिकाँश लोग ईश्वरभक्ति को व्यक्तिगत विश्वासी के लिए कुछ व्यावहारिक “आत्मिक अनुशासन” के रूप में सोचते हैं।
मत्ती के सुसमाचार का अध्याय 6, जो प्रसिद्ध पहाड़ी उपदेश का केन्द्र है, हमारी इन पूर्वधारणों के लिए शिक्षाप्रद है कि ईश्वरभक्ति का क्या अर्थ है और इसे विभिन्न रुचिकर रूप से कैसे व्यवहार में लाया जाए। सबसे पहले, उन विषयों की सूची पर ध्यान दें जिन्हें हमारा प्रभु चुनता है। दान देना, प्रार्थना करना, उपवास करना—ये सब ऐसे विषय हैं जिन्हें हम ईश्वरभक्ति के विषय के अन्तर्गत देखने की अपेक्षा करते हैं—उसके पश्चात् फिर से धन, इस बार एक अलग दृष्टिकोण से, जो सम्भवतः अधिक आश्चर्यजनक नहीं है यह देखते हुए कि अधिकाँश मनुष्यों को धन और सम्पत्ति के साथ बहुत कठिनाई होती है। किन्तु इसके पश्चात यीशु चिन्ता या व्यथा पर एक लम्बे खण्ड के साथ अन्त करता है, जो देखा जाए जो एक “आत्मिक अनुशासन” नहीं है, और उसके मध्य में पहाड़ी उपदेश में पहले परमेश्वर के राज्य की खोज करने के विषय में एक प्रसिद्ध कथन भी पाया जाता है।
दूसरी बात परन्तु और भी अधिक महत्वपूर्ण, इस सम्पूर्ण अध्याय में निरन्तर चल रहे तुलना पर ध्यान दें। यीशु बार-बार अपने शिष्यों से कह रहा है कि वे “उनके समान” न बनें, जो ईश्वरभक्ति का दिखावा करते हैं, किन्तु इसके स्थान पर “ऐसे” बनें, जो मात्र परमेश्वर को ही अपना श्रोता मानते हैं। आप इस तुलना को मत्ती 6:1–2 में देख सकते हैं, जहाँ यीशु उस समय दान देने वालों के असाधारण दिखावटी व्यवहार का वर्णन करता है और वह इसके विषय में अपने शिष्यों से कहता है, “अपने आगे तुरही मत बजवा, जैसे पाखण्डी लोग, सभाओं और गलियों में करते हैं कि लोग उनका सम्मान करें।” इसलिए उनके सदृश मत बनो। इसके स्थान पर, ऐसे बनो: “जब तू दान करे तो तेरा बायां हाथ जानने न पाए कि तेरा दाहिना हाथ क्या कर रहा है” (मत्ती 6:3)।
आप इसी प्रकार की तुलना उस समय देख सकते हैं जब वह प्रार्थना के विषय में शिक्षा देता है: “जब तू प्रार्थना करे, तो पाखण्डियों की सदृश न हो” (मत्ती 6:5)। इसलिए उनके समान मत बनो। इसके स्थान पर, ऐसे बनो: “जब तू प्रार्थना करे, तो अपने भीतरी कक्ष में जा..” (मत्ती 6:6)।
हम उपवास के विषय में यीशु की शिक्षा देने में इसी प्रकार की तुलना को देख सकते हैं: “जब कभी तुम उपवास करो, तो पाखण्डियों के समान उदास दिखाई न दो. .” (मत्ती 6:16)। इसके स्थान पर, “जब तू उपवास करे तो अपने सिर पर तेल लगा और अपना मुँह धो . .” (मत्ती 6:17)। उनके सदृश मत बनो; इसके स्थान पर, ऐसे बनो।
इस प्रकार के प्रारूप में एकमात्र अन्तर यीशु की स्वर्ग में धन संग्रह करने की शिक्षा में है। वह इसी प्रकार के शब्दों का उपयोग नहीं करता है, किन्तु तुलना फिर भी निहित है: “अपने लिए पृथ्वी पर धन-संचय मत करो” (मत्ती 6:19), इस बात को अन्तर्निहित करते हुए कि कई लोग ऐसा ही करते हैं। हमें उनके समान नहीं होना है। इसके स्थान पर, “अपने लिए स्वर्ग में धन-संचय करो . .” (मत्ती 6:20)।
इस अध्याय के अन्त में चिन्ता और व्यथा के विषय में यीशु के शिक्षा में एक बार पुनः समान तुलना है। सब प्रकार की चिन्ताओं का वर्णन करने के पश्चात् जो संसार की वस्तुओं के पीछे भागने से होती है वह कहता है, “गैरयहूदी उत्सकता से इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं. .” (मत्ती 6:32)। इसलिए उनके सदृश मत बनो। इसके स्थान पर, ऐसे बनो: “पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करो . . .” (मत्ती 6:33)।
यीशु यहाँ पर जो ईश्वरभक्ति के विषय में कह रहा है, यह समझने के लिए, हमें उन दो समूहों को समझना चाहिए, जिनकी तुलना वह अपनी शिक्षा में कर रहे हैं। वहाँ कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें यीशु हिपोक्रिटाई (hypokriteai ) या “पाखण्डी” (मत्ती 6:2, 5, 16) कहता है और दूसरा समूह वह है जिन्हे वह एथनिकोई (ethnikoi), या “गैर-यहूदी” (मत्ती 6:7,32) कहता है। जब दान देने, प्रार्थना करने और उपवास करने के विषय में बात आती है, तो हमें पाखण्डियों के उदाहरण से बचना चाहिए। जब गैर-यहूदियों के उदाहरण से बचने की बात आती है, तो हमें उनके प्रार्थना के उदाहरण से भी सावधान रहना चाहिए, परन्तु विशेष रूप से केवल उनके उदाहरण से जब चिन्ता की बात आती है। सम्भवतः पाखण्डियों और अ-यहूदियों दोनों को पृथ्वी पर धन संचय करने के सम्बन्ध में समस्या होती है।
यह देखते हुए कि “गैर-यहूदी” का अर्थ प्राचीन संसार की अ-यहूदी धार्मिकता से जुड़ा हुआ है, मुख्य रूप से उस समय की यूनानी-रोमी (Greco-Roman) संस्कृति से, इसका अर्थ यह है कि यीशु जिस धार्मिकता का उल्लेख “पाखण्डी” शब्द से कर रहे हैं, वह उनके दिनों के कुछ यहूदियों की प्रथाओं से सम्बन्धित है। वास्तव में, वह पद 2 और 5 में “आराधनालयों” का उल्लेख करके उस सम्बन्ध को और भी अधिक अखण्डीय बनाता है। हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि मत्ती का अर्थ है कि उसके दिनों में यहूदी जीवन शैली के सभी अनुयायी पाखण्डी थे। क्योंकि उसने पहले ही यूसुफ और मरियम की ईश्वरभक्ति का अच्छा वर्णन किया है, और इसके साथ वह स्वयं भी एक यहूदी था। मुख्य बात यहाँ पर यह है कि यीशु के दिनों में ऐसे धार्मिक अगुवे थे जो पाखण्डी थे, धार्मिकता का कट्टरता से पालन करने का, ईश्वरभक्ति का दिखावा करते थे, किन्तु उनके पास वास्तविक बात नहीं थी। इसके समान, यीशु के दिनों में ऐसे मूर्तिपूजक या गैर-यहूदी थे जो ईश्वरभक्ति के विषय में त्रुटिपूर्ण थे।
बड़े रूप से कहें तो पाखण्डियों के पास परमेश्वर के विषय में सही विचार पाया जाता है, किन्तु उन्हें परमेश्वर को प्रसन्न करने के अपेक्षा दूसरों की दृष्टि में अच्छा दिखने में अधिक रुचि है। दूसरी ओर, गैर-यहूदियों के पास परमेश्वर के विषय में त्रुटिपूर्ण विचार है और ईश्वरभक्ति के विषय में भी त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण हैं। वे सोचते हैं कि उनके बहुत से शब्दों के कारण उनकी प्रार्थना सुनी जाएगी (मत्ती 6:7), जिसका अर्थ है कि उनके पास प्रार्थना के विषय में एक प्रकार का जादुई विचार है, जो परमेश्वर के विषय मूर्तिपूजक दृष्टिकोण से आता है। या तो वे चिन्तित रहते हैं क्योंकि वे यह नहीं समझते हैं कि हमारा स्वर्गीय पिता जानता है कि हमें इन आधारभूत बातों की आवश्यकता है (मत्ती 6:32)। इसके विपरीत, पाखण्डी लोग, परमेश्वर उनके विषय में क्या सोचता है, इससे अधिक इस बात पर—वास्तविकता में—रुचि रखते हैं कि लोग उनके विषय में क्या सोचते हैं ( मत्ती 6:1)। वे अपने दान की घोषणा “तुरही” बजाकर करते हैं, इस स्पष्ट उद्देश्य से कि लोग उनसे प्रभावित हों (मत्ती 6:2)। या पुनः, पाखण्डी लोग बाहर प्रार्थना करते हैं, जहाँ सब उनकी प्रार्थनाशीलता को देख सकें (मत्ती 6:5), और यदि वे उपवास कर रहे हैं, तो वे सुनिश्चित करते हैं कि वे वास्तव में दुःखी दिखें, जिससे कि सब जान सकें कि वे उपवास कर रहे हैं (मत्ती 6:16)।
तो, वास्तविक, ईश्वरीय, बाइबलीय ईश्वरभक्ति की कुंजी है परमेश्वर को जानना और इसके साथ उसे प्रसन्न करने की इच्छा। हमें गैर-यहूदियों की त्रुटि से बचना है, जो सोचते हैं कि परमेश्वर किसी प्रकार की दिव्य स्लॉट मशीन (slot machine) के समान है, कि यदि हम लम्बे समय तक और पर्याप्त रूप से बड़े-बड़े ईश्वरविज्ञानीय शब्दों के साथ प्रार्थना करते हैं तो वह हमारी बात सुनेगा और हमें वह सब देगा जो हम चाहते हैं। इसके साथ, हमें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि परमेश्वर किसी प्रकार संसार से इतना दूर है कि उसे वास्तव में चिन्ता नहीं है कि हमारे साथ क्या होता है, इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम ही स्वयं का ध्यान रखें। “परमेश्वर उन लोगों की सहायता करता है जो स्वयं की सहायता करते हैं” यह एक प्रसिद्ध कहावत हो सकता है, परन्तु यह बाइबल से सम्बन्धित नहीं है।
परन्तु हमें धार्मिक लोगों की त्रुटियों से भी बचना चाहिए जो सैद्धान्तिक रूप से जानते हैं कि परमेश्वर कौन है, किन्तु कार्य में धार्मिक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं जो लोगों को प्रभावित करने के लिए एक मौलिक समर्पण को दिखा देता है। ऐसा होना कितना सरल है, प्रत्येक बात में लोगों की प्रशंसा के लिए कार्य करना, प्रार्थना करना जैसे साधारण ईश्वरभक्ति के कार्य से लेकर पुस्तक और लेख लिखना। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें लोगों के साथ व्यवहार करने में जानबूझकर असभ्य या मुर्खतापूर्ण होना चाहिए। (एक दूसरे लेख का विषय हमारे साथी मनुष्यों के साथ हमारे व्यवहार में ईश्वरीय दयालुता की आवश्यकता है।) किन्तु इसका अर्थ यह है, जैसा कि यीशु ने कहा, हमें पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करनी चाहिए, यह भरोसा करते हुए कि ये सभी अन्य वस्तुएँ भी हमें दी जाऐगी, हमारी आवश्यकता के अनुसार, और हमारे पिता की बुद्धि के अनुसार।
मैंने अब तक जो सबसे प्रभावशाली उपदेश पढ़े हैं, उनमें से एक जोनाथन एडवर्ड्स द्वारा पहले परमेश्वर के राज्य की खोज करने के विषय में इस स्थल पर दिया गया था। उन्होंने विस्तार से यह बात कही कि हमारे सामने वह सबसे अच्छा अवसर है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि हम परमेश्वर के राज्य, उसके विषयों, उसके कार्यों पर ध्यान देने के लिए समर्पित होंगे, तब परमेश्वर हमारे लिए हमारे विषयों पर ध्यान देने के लिए समर्पित होगा। कौन परमेश्वर के साथ जुड़ना नहीं चाहेगा और परमेश्वर को उसकी देखभाल करने नहीं देगा? यही राज्य की ईश्वरभक्ति का सार है। इसका दिन-प्रतिदिन क्या अर्थ है, इसके सभी विवरण सुलझा लिए जाएँगे, क्योंकि हम न केवल यह जानते हैं कि परमेश्वर कौन है, परन्तु वास्तव में उसके राज्य की खोज करने के लिए समर्पित हैं। तब हम वास्तव में दान देंगे, प्रार्थना करेंगे, उपवास करेंगे, और—सम्भवतः सबसे महत्वपूर्ण बात, हमारी चिन्ताओं द्वारा चलित युग में—चिन्ता नहीं करेंगे।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।