राज्य का राजा और नियम - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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राज्य का राजा और नियम

The Kingdom’s King and Law

मत्ती का सुसमाचार एक ऐसे कथन से आरम्भ होता है जिसमें क्रिया का अभाव है, इसलिए यह सम्भवतः पुस्तक के शीर्षक के रूप में कार्य कर रहा है: “दाऊद के पुत्र, अब्राहम के पुत्र, यीशु ख्रीष्ट की वंशावली की पुस्तक। ” यहाँ पर संक्षेप में बताया गया है कि यह पुस्तक किस विषय में है। यह यीशु ख्रीष्ट की कहानी है। यह हमें अब्राहम और दाऊद की वंशावली में उसके जन्म के समय (मत्ती 1) से लेकर उस समय तक ले जाती है जब वह स्वर्ग और पृथ्वी के सारे अधिकार को लिए हुए गलील में एक पहाड़ पर खड़ा होता है (मत्ती 28:16-20)। आरम्भ से अन्त तक, यीशु को राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है: पहले अब्राहम और दाऊद के प्रतिज्ञा किए गए पुत्र के रूप में जो “यहूदियों का राजा जिसका जन्म हुआ” (मत्ती 2:2), “एक शासक जो मेरी प्रजा इस्राएल का रखवाला होगा” (मत्ती 2:6); और फिर एक राजा के रूप में जिसने पाप और मृत्यु पर विजय प्राप्त की है और अब आज्ञा देता है कि सभी राष्ट्रों के लोग उसके शिष्य बनाए जाएँ और उन्हें वह सब सिखाया जाए जिसकी उसने आज्ञा दी है (मत्ती 28:19-20)।

मत्ती में सम्मिलित यीशु के पाँच बड़े शिक्षण संग्रहों में से पहला (मत्ती 5-7; 10; 13; 18; 23-25) उसके राज्य के नियम के घोषणापत्र के रूप में और शास्त्रियों और फरीसियों द्वारा दी गई शिक्षा के प्रभावशाली खण्डन के रूप में कार्य करता है। शास्त्रियों और फरीसियों द्वारा परमेश्वर की व्यवस्था की प्रचलित विकृतियों के कारण, यीशु के लिए यह स्पष्ट करना आवश्यक था कि पवित्रशास्त्र के सम्बन्ध में उसकी शिक्षा कैसी है। वह प्रभावशाली ढंग से घोषणा करता है कि वह व्यवस्था या नबियों की पुस्तकों को नष्ट करने नहीं, परन्तु पूर्ण करने आया है (मत्ती 5:17)। वास्तव में, वह उन्हें समाप्त करने से इतना दूर है कि वह अपने कई “सत्य” कथनों में से पहले कथन (मत्ती में तीस से अधिक बार यह कथन पाया जाता है) में इस बिन्दु पर विशेष बल देता है: “क्योंकि मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जब तक आकाश और पृथ्वी टल न जाएँ, व्यवस्था में से एक मात्र या बिन्दु भी, जब तक कि सब कुछ पूरा न हो जाए, नहीं टलेगा” (मत्ती 5:18)।

यीशु की शिक्षा शास्त्रियों और फरीसियों की शिक्षाओं से सबसे विपरीत है, और यह ऐसी धार्मिकता की माँग करती है जो उनकी स्वयं की धार्मिकता से कहीं बढ़कर है (मत्ती 5:20)। हम इसी बल को मत्ती के अन्तिम शिक्षण खण्ड में भी देखते हैं (मत्ती 23–25), जो पहले शिक्षण खण्ड के समानान्तर है और जिनको तुलना करने के द्वारा हम दोनों को अच्छे से समझ सकते हैं। वहाँ, दण्डाज्ञा के सात “शाप” में (जो पहले खण्ड की आरम्भ करने वाले धन्य-वचन के विपरीत हैं), यीशु फिर से शास्त्रियों और फरीसियों की त्रुटियों को उजागर करता है, जिन्हें वह बार-बार “पाखण्डी” कहता है और जिन्होंने बिना लोगों की सहायता किए उन पर भारी बोझ डाला है (मत्ती 23:4)।

मत्ती 5:17-48 में, यीशु शास्त्रियों और फरीसियों द्वारा सिखाई गई व्यवस्था की विकृतियों और त्रुटियों के छह उदाहरण लेता है। प्रत्येक उदाहरण का आरम्भ होता है कि लोगों ने क्या सुना है, और उसके पश्चात् बताया जाता है कि यीशु क्या कहता है (मत्ती 5:21, 27, 31, 33, 38, 43)। यहाँ यीशु पविशास्त्र में लिखी गई बातों के प्रति आपत्ति नहीं उठा रहा है। नहीं, विषय यह है कि शास्त्रियों और फरीसियों ने क्या कहा है। यीशु दिखाएगा कि वह तो लिखी गई बातों से सहमत है (मत्ती 4:4, 7, 10; मत्ती 11:10; 21:13; मत्ती 26:24, 31)।

यदि हम इस श्रृंखला के अन्तिम उदाहरण (मत्ती 5:43-48) से आरम्भ करें और पीछे से आगे की ओर जाएँ, तो हम अधिक स्पष्ट रूप से देख पाएँगे कि क्या हो रहा है: “तुम सुन चुके हो कि कहा गया था, ‘तू अपने पड़ोसी से प्रेम करना और शत्रु से बैर।’ यह पवित्रशास्त्र से उद्धरण नहीं है, यद्यपि बिना सोचे-समझे या भोले-भाले लोग सरलता से सोच सकते हैं कि यह पवित्रशास्त्र से है। वाक्य का पहला भाग पवित्रशास्त्र से है (लैव्यव्यवस्था 19:18), परन्तु दूसरा भाग पवित्रशास्त्र से नहीं है, और परमेश्वर के वचन में इसके जैसा कुछ भी नहीं मिलता है। फिर भी यह कथन वही है जो लोगों ने शास्त्रियों और फरीसियों से सुना है मानो कि यह पवित्रशास्त्र की शिक्षा हो। परन्तु यह व्यवस्था का एक गम्भीर विरूपण है, जो केवल अपने पड़ोसियों तक ही प्रेम करने के दायित्व को सीमित करता है और अपने शत्रुओं से घृणा को वैध बनाता है (या इसकी माँग भी करता है)। व्यवस्था और नबियों से मेल खाते हुए, यीशु पूरी रीति से कुछ अलग करने का आह्वान करता है: अपने शत्रुओं से प्रेम करो और जो तुम्हें सताते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो जिससे कि तुम अपने स्वर्गीय पिता की सन्तान बन सको (मत्ती 5:44-45)। पुराना नियम यही सिखाता है। उदाहरण के लिए, नीतिवचन 25:21 कहता है कि यदि तेरा शत्रु भूखा हो तो उसे खाने के लिए भोजन दे, और यदि वह प्यासा हो तो उसे पीने के लिए पानी दे। शास्त्री और फरीसी परमेश्वर के वचन को निरर्थक बना रहे थे (मत्ती 15:6)।

इसी प्रकार, शास्त्रियों और फरीसियों ने सार्वजनिक न्याय के मूल सिद्धान्त “आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत” को विकृत कर दिया (मत्ती 5:38)। यह सिद्धान्त व्यवस्था में तीन बार प्रकट होता है (निर्गमन 21:23-25; लैव्यव्यवस्था 24:17-23; व्यवस्थाविवरण 19:15-21)। यह एक सिद्धान्त है जो बताता है कि किसी अपराध के लिए दण्ड अपराध की गम्भीरता के अनुपात में होनी चाहिए। प्रत्येक प्रकरण में, ये सार्वजनिक न्याय से सम्बन्धित व्यवस्था हैं, जहाँ विशेष अपराधों के लिए विशेष दण्ड उपयुक्त की गई है। सिद्धान्त दण्ड को भी सीमित करता है जिससे कि कम अपराधों पर अधिक दण्ड लागू न किए जाएँ। परन्तु शास्त्रियों और फरीसियों ने सार्वजनिक न्याय के इस सिद्धान्त को पारस्परिक संघर्षों में दूसरों के प्रति प्रतिशोध के नियम में परिवर्तित कर दिया था। उन्होंने दूसरों को उस स्वतन्त्र रूप से क्षमा करने के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा, जैसा कि उन्हें क्षमा किया गया था। वे स्वर्ग में पिता के पुत्रों के जैसे व्यवहार नहीं कर रहे थे।

अगले उदाहरण में, हम पाते हैं कि शास्त्रियों और फरीसियों को शपथों और प्रतिज्ञाओं की पवित्रता के विषय में बहुत कम ही चिन्ता थी—यहाँ तक की, इस तथ्य के लिए कि वे परमेश्वर के लिए की जाती हैं, भले ही उनमें दूसरों से की गई प्रतिज्ञाएँ सम्मिलित हों। मत्ती 23:16-22 में इस विषय का पूरा विवरण दिखाता है कि शास्त्रियों और फरीसियों ने शपथ और प्रतिज्ञा को योग्य बनाने की एक जटिल और छली योजना विकसित की थी, जिससे कि कोई भी व्यक्ति सरलता से उन कर्तव्यों से बच सके जिनकी प्रतिज्ञा उसने की थी। इस प्रकार से वे मूल प्रतिज्ञा को झूठ में बदल देते थे। वे न तो सत्य के बच्चे थे और न ही सत्य के परमेश्वर के बच्चे।

तलाक के विषय के साथ भी ऐसा ही है (मत्ती 5:31-32)। इस विषय पर और अधिक जानकारी मत्ती के अन्य भागों में मिलती है (मत्ती 19:1-11), परन्तु यहाँ हमें केवल संक्षिप्त प्रतिपक्षता दी गई है जो यीशु शास्त्रियों और फरीसियों की स्थिति के लिए प्रस्तुत करता है। हो सकता है इस रूप में, यद्यपि, विपरीतता सबसे तीव्र है। शास्त्रियों और फरीसियों के अनुसार, जो कोई भी अपनी पत्नी को तलाक देता है, वह उसे तलाक का प्रमाण पत्र देता है—मानो कि यही पूरा विषय इतनी ही हो। उनकी शिक्षा मूसा की व्यवस्था (व्यवस्थाविवरण 24:1-4) में एक लम्बे और जटिल कथन को बहुत संक्षिप्त कर देती है और उसे गम्भीर रूप से विकृत कर देती है। यद्यपि रब्बियों (यहूदी शिक्षकों) के बीच इस बात पर विवाद था कि तलाक को किस अपराध के लिए उचित ठहराया जा सकता है, परन्तु प्रचलित प्रथा ने सामान्यतः पतियों को अपनी पत्नियों को तलाक देने की व्यापक अनुमति दी। यह केवल उसे तलाक का प्रमाण पत्र देने का विषय बन गया। यीशु ने चेतावनी दी कि यह प्रायः दूसरे विवाह को व्यभिचार की ओर ले जाएगा (जब तक कि तलाक का आधार यौन अनैतिकता न हो)। यह स्थिति उत्पत्ति 2:24 में बताए गए विवाह के लिए परमेश्वर के मूलभूत उद्देश्य के प्रति लापरवाह उपेक्षा दिखाती है (देखें मत्ती 19:4-6)। शास्त्री और फरीसी मुख्य रूप से इस बात से चिन्तित थे कि एक पुरुष को अपनी पत्नी को तलाक देने में कितनी स्वतन्त्रता मिल सकती है, परन्तु यीशु ने उनसे कहा कि उन्हें पहले इस बात की चिन्ता करनी चाहिए कि वह अपनी पत्नी से जुड़े रहने और विवाह को बनाए रखने के लिए क्या कर सकता है।

हम अन्त में पहले दो प्रतिपादनों पर आते हैं जिनसे यीशु ने आरम्भ की थी। वे दस आज्ञाओं में से दो से व्यवहार करते हैं, पहली हत्या और दूसरी व्यभिचार से। प्रत्येक में, यीशु ने आज्ञा को न केवल शारीरिक हत्याओं और व्यभिचार से सम्बन्धित इसके अर्थ के साथ समझाया, परन्तु हृदय के विचारों और मनसाओं, क्रोधित शब्दों और योजनाओं और पापी वासनाओं को भी समझाया, जो हत्या और व्यभिचार की ओर ले जाती हैं। प्रतिशोध और तलाक पर शास्त्रियों और फरीसियों के विचारों को देखते हुए, यह देखना सरल है कि उन्होंने केवल बाहरी कृत्यों पर ध्यान केन्द्रित किया, न कि उन विचारों और मनसाओं पर जो ऐसे कृत्यों की ओर ले जा सकते हैं। उन्होंने केवल प्याले के बाहरी हिस्से पर ध्यान केन्द्रित किया, न कि अन्दर क्या था (मत्ती 23:25)। उन्होंने अपने सारे कार्य दूसरों को दिखाने के लिए किए (मत्ती 23:5), परन्तु यीशु ने एक ऐसा जीवन जीने का आह्वान दिया जो कोरम देओ, उस परमेश्वर के मुख के समक्ष, जो हृदय के साथ-साथ बाहरी व्यक्ति को भी देखता है।

यीशु ने एक ऐसी धार्मिकता की माँग की जो शास्त्रियों और फरीसियों से बढ़कर है। परन्तु वह जो माँगता है, उसे पूरा भी करता है। शास्त्रियों और फरीसियों से भिन्न (मत्ती 23:3), वह उन बातों का पालन भी करता है जिन्हें वह प्रचार करता है, और वह इसे सिद्ध रीति से करता है। वह हमें इसी धार्मिकता के लिए बुलाता है, जिससे कि हम सिद्ध हो सकें, जैसे हमारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है। परन्तु क्योंकि हम अपने अपराधों और पापों में मरे हुए हैं, इसलिए यह हमारी शक्ति में नहीं है। इसलिए उसके अनुग्रह और प्रेम में, वह हमें हमारे पापों से बचाता है (मत्ती 1:21)। वह हमें अपनी धार्मिकता प्रदान करता है, इसे हमें सौंपता है जिससे कि हम परमेश्वर के सामने धर्मी ठहरें। और फिर हमें दिए गए अपने पवित्र आत्मा के द्वारा, वह हमें अपने स्वरूप में ढालना आरम्भ कर देता है, जिससे कि एक दिन उसकी धार्मिकता हम में प्रकट हो। तब उसकी आज्ञा का वचन उसकी प्रतिज्ञा की पूर्णता हो जाएगा: “अतः तुम सिद्ध बनो, जैसा कि तुम्हारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है” (मत्ती 5:48)।

 यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

मार्क ई. रॉस
मार्क ई. रॉस
डॉ. मार्क ई. रॉस कोलम्बियो, साउथ कैरोलायना में एरस्काइन थियोलॉजिकल सेमिनेरी में विधिवत ईश्वरविज्ञान के प्राध्यापक हैं। वे लेट्स स्टडी मैथ्यू (Let’s Study Matthew, आइए हम मत्ती का अध्ययन करें) के लेखक हैं।