राज्य का मार्ग
2 अक्टूबर 2024राज्य का राजा और नियम
7 अक्टूबर 2024राज्य के नागरिकों का चरित्र
मत्ती, अपने बड़े सुसमाचार में, यीशु को अब्राहम और दाऊद के वंशज के रूप में परिचय कराता है, फिर उसके आश्चर्यकर्म द्वारा कुँवारी में गर्भधारण और उसके जन्म का वर्णन करता है, तथा मिस्र की ओर पलायन और नासरत वापस लौटने का वर्णन करता है। यीशु के सार्वजनिक सेवकाई के आरम्भ में, यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला पुकारता है, “मन फिराओ, क्याोंकि परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है” (मत्ती 3:2)। इसके पश्चात्, जब यूहन्ना के बन्दी बना दिये जाने के विषय में उसने सुना तो यीशु उसी सन्देश का प्रचार करना आरम्भ करता है (मत्ती 4:17)। जबकि यूहन्ना केवल अग्रदूत है, यीशु तो मसीहा है। इसके पश्चात् यीशु एक बड़ी संख्या में अनुयायियों को इकट्ठा करता है और दूर-दूर तक यात्रा करता है, “राज्य का सुसमाचार प्रचार करता, और लोगों की हर प्रकार की बीमारी और हर प्रकार की दुर्बलता को दूर करता फिरा” (मत्ती 4:23)।
इस प्रस्तावना के बाद, मत्ती अपने सुसमाचार में यीशु के पाँच प्रमुख शिक्षा के भाग में से पहले भाग का आरम्भ करता है। संख्या पाँच मूसा की पाँच पुस्तकों अर्थात पंचग्रन्थ की स्मरण दिलाती हैं। इसी रीति से यीशु के पहाड़ पर चढ़ने का वर्णन, मूसा के व्यवस्था प्राप्त करते समय सीनै पर्वत पर चढ़ने को स्मरण दिलाता है। मूसा से यह सम्बन्धित, बाद में यीशु के बार-बार की गई घोषणाओं से पुष्ट होता है, “तुम सुन चुके हो कि कहा गया था… परन्तु मैं तुम से कहता हूँ” (मत्ती 5:21-22, 27-28, 31-32, 33-34, 38-39, 43-44)। मत्ती का सन्देश स्पष्ट है: यीशु नया और श्रेष्ठ मूसा है जो अधिकारपूर्वक परमेश्वर की व्यवस्था की शिक्षा देता है और उसे लागू करता है (मत्ती 7:28-29)।
मत्ती के सुसमाचार में इस उद्घाटन भाषण में, अर्थात् पहाड़ी उपदेश के आरम्भ में, यीशु अपने अनुयायियों को राज्य के नागरिकों के चरित्र के विषय में शिक्षा देता है। एक उत्कृष्ठ शिक्षक के रूप में वह इन विशेषताओं को आठ स्मरणार्थ धन्य वाणी, जिनमें से प्रत्येक धन्य वाणी उन लोगों पर आशीष घोषणा करती है जिनके पास एक निर्धारित चरित्र की विशेषता होती है, तथा उसके पश्चात् दो प्रतीकत्मक गुण नमक और प्रकाश के रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रकार, यीशु मूसा की व्यवस्था में दस शब्दों या आज्ञाओं का स्मरण दिलाता है, उन लोगों की दस विशेषताओं को बताते हुए जो परमेश्वर के अनन्त राज्य के उत्तराधिकारी होंगे और उसमें निवास करेंगे। ध्यान देने योग्य बात है यीशु ने “भीड़ को देखा,” और उसने अपना मुँह खोलकर अपने चेलों को उपदेश दिया (5:1-2)।
“धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।”(मत्ती 5:3)
यीशु राज्य के नागरिक का चित्रण का आरम्भ एक संभवतः आश्चर्यजनक विशेषता के साथ करता है: आत्मिक दरिद्रता। “धन्य”—अर्थात् परमेश्वर द्वारा अनन्त अनुग्रह प्राप्त—वे लोग हैं जो स्वयं को आत्मिक रूप से दरिद्र और अभावग्रस्त समझते हैं, यीशु द्वारा कहे गए फरीसी और कर लेने के दृष्टान्त के व्यक्ति के समान। फरीसी घमण्डी, अभिमानी और अपनी सभी धार्मिक उपलब्धियों पर घमण्ड करता है, “परन्तु कर लेने वाला कुछ दूर खड़ा था, उसने स्वर्ग की ओर अपनी आँखे उठाना भी न चाहा, वरन् छाती पीटते हुए कहा, ‘हे परमेश्वर मुझ पापी पर दया कर!’” (लूका 18:13)। जो लोग स्वयं को आत्मिक रूप से दरिद्र समझते हैं, वे परमेश्वर की आवश्यकता और उस पर निर्भरता को अच्छी रीति से समझते हैं। वे दया की विनती करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि वे कभी भी अपनी योग्यताओं के आधार पर धर्मी, पवित्र परमेश्वर के सामने खड़े नहीं हो सकते हैं।
“धन्य हैं वे जो शोक करते हैं, क्योंकि वे सान्त्वना पाएँगे।”(मत्ती 5:4)
अगले धन्य वाणी में, यीशु पुराने नियम की बुद्धि के एक अंश की पुष्टि करते हैं जिसे सभोपदेशक की पुस्तक में बताया गया है: “उत्सव मनाने वाले के घर जाने की अपेक्षा शोक मनाने वाले के घर जाना अधिक अच्छा है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य का अन्त यही है, और जीवित मनुष्य इस पर मन लगाकर विचार करेगा”(सभोपदेशक 7:2)। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि हम सभी एक दिन मरेंगे, हमें अपने अनन्त गन्तव्य के प्रकाश में जीना चाहिए। इसलिए, “बुद्धिमान का हृदय शोक करने वालों के घर में लगा रहता है, परन्तु मूर्खों का हृदय सुख-विलास करने वालों के घर में लगा रहता है”(सभोपदेशक 7:4)। अपश्चातापी सुख चाहने वाले अन्तत: अनन्त वास्तविकताओं को नकारने में लगे रहते हैं, जबकि बुद्धिमान व्यक्ति अपने अन्तिम गन्तव्य के विषय में सचेत रहता है, और अपने पाप और अपने आस-पास के अन्य लोगों के पापों पर शोक मनाता है। अपनी स्वयं की घटियों और परमेश्वर के प्रति विद्रोह के विषय में सचेत होकर, वे स्वयं को परमेश्वर की दया पर छोड़ देते हैं और उन्हें सान्त्वना और क्षमा मिलती है।
“धन्य हैं वे जो नम्र हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के उत्तराधिकारी होंगे”(मत्ती 5:5)।
हमारे समय में नम्रता एक दुर्लभ गुण है जब आत्म-प्रचार का प्रभाव है, सोशल मीडिया की समझ रखने वालों को महत्व दिया जाता है और दूसरों के सामने झुकने को निर्बलता समझा जाता है। यदि आप स्वयं पर बल नहीं देते हैं तो पारम्परिक बुद्धि कहती है कि आप कुचले जाएँगे। दूसरी ओर, यीशु “नम्र और मन में दीन है”( मत्ती 11:29)। वह स्वयं को नम्र लोगों के सामने प्रकट करेगा, परन्तु अभिमानी और आत्म-निर्भर लोगों का सामना करेगा। वह थके हुओं को विश्राम देगा, जबकि अभिमानी को अपना भारी बोझ स्वयं उठाना पड़ेगा। परमेश्वर सम्प्रभु शासक है, और यीशु राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु है। परमेश्वर ने हमें जो दिया है, उसके अतिरिक्त हम कुछ भी नहीं हैं। इसलिए बुद्धिमान लोग, नम्र और विनम्र होकर, अपने सम्प्रभु परमेश्वर की दया, अनुग्रह और प्रावधान के लिए उसकी ओर देखते हैं। वे उसके पंखों की छाया में छिपते हैं और उसकी सुरक्षा चाहते हैं, इस विश्वास के साथ कि पृथ्वी का उत्तराधिकार नम्र लोगों को मिलेगा, न कि मुखर और आत्म-प्रशंसकों को।
“धन्य हैं वे जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएंगे।” (मत्ती 5:6)।
परमेश्वर का राज्य—उसके शासन के अधीन उसका राज्य—एक ऐसा स्थान है जहाँ धार्मिकता राज्य करती है, क्योंकि परमेश्वर स्वयं अपने दोषहीन चरित्र में पूरी रीति से धर्मी है। अतः, जो लोग “धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं” वे सन्तुष्ट होंगे। इसके पश्चात्, यीशु अपने अनुयायियों से कहता है कि जब तक तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फरीसियों की धार्मिकता से बढ़कर न हो तो तुम परमेश्वर के राज्य में कभी प्रवेश न कर पाओगे (मत्ती 5:20)। अपनी ओर से, उन्हें “पहले परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करनी चाहिए, और ये सभी वस्तुएँ—भोजन, वस्त्र और आश्रय—उन्हें दे दी जाएँगी (6:33)। क्या आप और मैं सच में न्याय चाहते हैं और खराई को महत्व देते हैं? या क्या हम दूसरों से विशेष व्यवहार की लालसा करते हैं और दूसरों को नियन्त्रित करने और उन्हें अपने लिए उपयोग करने के लिए धूर्त रीति ढूढ़ते हैं और वह भी बिना उन्हें पता चले? फिर से, यीशु विषय के जड़ तक जाकर एक ऐसे हृदय के लिए आह्वान देता है जो धार्मिकता में मग्न होता है। निस्सन्देह, ख्रीष्ट के सिवाय यह सब कुछ सम्भव नहीं है, जिसे परमेश्वर ने, “हमारे लिए पाप ठहराया” यद्यपि वह “पाप से अनजान था,” जिससे कि हम उसमें परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएँ”( 2 कुरिन्थियों 5:21)।
“धन्य हैं वे जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी।” (मत्ती 5:7)।
दयावन्त जन जानता है कि उसे स्वयं दया की आवश्यकता है और ख्रीष्ट में उसे दया प्राप्त हुई है (रोमियों 12:1)। दया के प्राप्तकर्ता के रूप में, वह दूसरों पर दया करता है, और उनके साथ दयालुता और करुणामय व्यवहार करता है। दया निर्बलता के रूप में सामने आ सकती है, फिर भी वास्तव में, जो लोग दया दिखाते हैं वे आन्तरिक शक्ति से ही ऐसा करते हैं, यह जानते हुए कि वे परमेश्वर के प्रेम में सुरक्षित हैं और ख्रीष्ट में उनकी स्वीकृति और कृपा के विषय में आश्वस्त हैं। साथ ही, वे अपनी दुर्बलता और निर्बलताओं के प्रति जागरूक होते हैं और इसलिए दूसरों के प्रति संवेदनशील होते हैं। यशायाह की मसीहाई नबूवत को ध्यान में रखते हुए यीशु ने उदाहरण प्रस्तुत किया: “वह कुचले हुए सरकण्डे को न तोड़ेगा और टिमटिमाती हुई बत्ती को न बुझाएगा”( मत्ती 12:20, यशायाह 42:3)। यीशु ने लोगों के साथ प्रेम और करुणा से व्यवहार किया। उसी रीति से , घमण्डी और अहंकारी होने के स्थान पर, परमेश्वर के राज्य के नागरिक नम्र और दयालु होते हैं।
“धन्य हैं वे जिनके मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे”(मत्ती 5:8)
कौन दावा कर सकता है कि उसका हृदय शुद्ध है? फरीसियों के जैसे, हम सभी भीतरी रूप से दूषित है। इसलिए यीशु का उनसे किया गया प्रोत्साहन उपदेश हम सभी पर लागू होता है: “पहले कटोरे और थाली को भीतर से मांज जिससे कि वे बाहर से भी स्वच्छ हो जाएँ” (मत्ती 23:26)। फिर भी यह शुद्धिकरण केवल पवित्र आत्मा के द्वारा ही किया जा सकता है। पुन: यह विचार पवित्रशास्त्र में पूरी रीति से नया नहीं है। हम इसे पहले ही दाऊद की प्रार्थना में देख चुके हैं, जिसने घोर पाप करने के बाद प्रार्थना की: “जूफे से मुझे शुद्ध कर तो मैं पवित्र हो जाऊँगा; मुझे धो, तो मैं हिम से भी अधिक श्वेत हो जाऊँगा . . . हे परमेश्वर, मुझ में शुद्ध हृदय उत्पन्न कर, और मेरे भीतर स्थिर आत्मा फिर से जागृत कर” (भजन संहिता 51:7,10)। दाऊद पहले से ही समझ गया था कि पाप लोगों को परमेश्वर से अलग करता है और इसलिए उसने विनती की, “मुझे अपने सामने से निकाल न दे, और अपने पवित्र आत्मा को मुझ से अलग न कर” (भजन संहिता 51:11)। यद्यपि परमेश्वर आज सच्चे विश्वासियों से अपने आत्मा को कभी नहीं हटाएगा, फिर भी हमें पवित्र आत्मा की सहायता से स्वयं को शुद्ध करना चाहिए जिससे हम हृदय से शुद्ध हो जाएँ और इस प्रकार एक दिन परमेश्वर को देख सकें (2 कुरिन्थियों 7:1; 1 यूहन्ना 3:2)।
“धन्य हैं वे जो मेल कराने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएँगे” (मत्ती 5:9)।
प्रत्येक व्यक्ति शान्ति चाहता है, परन्तु मेल कराने वाले कहाँ हैं? “मेल कराने वाले” शब्द का उपयोग नए नियम में केवल यहीं किया गया है; क्रिया रूप में “मेल-मिलाप करना” का उपयोग प्रेरित पौलुस के पत्रों में से एक में केवल एक बार किया गया है: “क्योंकि परमेश्वर को यही भाया कि समस्त परिपूर्णता उसी (यीशु) में वास करे, और उसके क्रूस पर बहाए गए लहू के द्वारा शान्ति स्थापित कर के उसी के द्वारा समस्त वस्तुओं का अपने साथ मेल कर ले—चाहे वे पृथ्वी पर की हों अथवा स्वर्ग में की” (कुलुस्सियों 1:19-20)। यह इस बात को दर्शाता है कि यीशु ही परम मेल करने वाला है, और क्रूस पर अपनी मृत्यु के द्वारा उसने परमेश्वर के साथ हमारा मेल करा दिया। अब जबकि हमारे पास परमेश्वर के साथ शान्ति है,तो हमें शान्ति स्थापित करने के लिए बुलाया गया है और परमेश्वर के पुत्र के जैसे, हमें “परमेश्वर का पुत्र कहा जाएगा।” यहाँ यीशु द्वारा दी गई आशीष केवल उन लोगों पर नहीं है जो शान्ति स्थापित करने को महत्व देते हैं; यह उन लोगों के लिए है जो सक्रिय रूप से परमेश्वर और दूसरे लोगों के साथ शान्ति स्थापित करने का प्रयास करते हैं। ऐसे शान्ति स्थापित कराने वाला झगड़े के स्थान पर मेल-मिलाप और आपसी मेल की इच्छा रखते हैं, भड़काने के स्थान पर शान्त करने का प्रयास करते हैं, और बात को बढ़ाने के स्थान पर शान्त करने की प्रयास करते हैं। “क्रोधी मनुष्य झगड़ा भड़काता है, परन्तु जो क्रोध में धीमा है, वह झगड़े को शान्त करता है” (नीतिवचन 15:18)। इसलिए विश्वासियों को चाहिए कि “सब मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप रखो, और उस पवित्रता के खोजी बनो, जिसके बिना प्रभु को कोई भी नहीं देख पाएगा” (इब्रानियों 12:14)। इस प्रकार परमेश्वर के ऐसे पुत्र परमेश्वर पिता को प्रतिबिम्बित करते हैं, जो अपने प्रिय पुत्र के क्रूस के लहू के माध्यम से शान्ति स्थापित करने में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं।
“धन्य हैं वे जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है”(मत्ती 5:10)।
एक बार फिर, यहाँ यीशु की बात हमारे विचार के विपरीत है। कोई भी समझदार व्यक्ति सताए जाने पर स्वयं को धन्य नहीं मानेगा। परन्तु यहाँ यीशु उन लोगों को आशीष देते हैं जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं। जबकि अब तक सभी धन्य वाणी तीसरे व्यक्ति के विषय में कहे गए थे, इस बिन्दु पर यीशु सीधे अपने अनुयायियों की ओर ध्यान देते हैं और उन्हें अतिरिक्त शब्दों के साथ सम्बोधित करते हैं: “धन्य हो तुम, जब लोग मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, तुम्हें यातना दे और झूठ बोल बोल कर तुम्हारे विरुद्ध सब प्रकार की बातें कहें- आनन्दित और मग्न हो, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हारा प्रतिफल महान है। उन्होंने तो उन नबियों को भी जो तुमसे पहिले हुए इसी प्रकार सताया था”(मत्ती 5:11-12)। घृणा और निन्दा सहने के द्वारा, यीशु के अनुयायी पुराने नियम के नबियों की महान पंक्ति में प्रवेश करते हैं जिन्होंने इसी प्रकार के उत्पीड़न और दुर्व्यवहार को सहा था। उन्हें सांसारिक क्षति हो सकता है, परन्तु उन्हें एक बड़ा स्वर्गीय पुरस्कार मिलेगा।
“तुम पृथ्वी के नमक हो”(मत्ती 5:13)।
इस समयकाल के लिए, यीशु अपने अनुयायियों को जो अभी भी इस संसार में हैं, दो अलग-अलग रूपकों—अर्थात नमक और प्रकाश का उपयोग करके निर्देश देता है। नमक के विषय में यीशु समझाता है, “पर यदि नमक अपना स्वाद खो बैठे तो वह फिर किस से नमकीन किया जाएगा? वह किसी काम का नहीं रह जाता केवल इसके कि बाहर फेंका जाए और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाए” (मत्ती 5:13)। यदि यीशु के अनुयायी अपने आस-पास के लोगों से इस संसार में भिन्न नहीं, तो वे किस काम के हैं? भोजन को स्वादिष्ट करने वाले नमक के जैसे, विश्वासियों को स्वाद प्रदान करने और भ्रष्ट संस्कृति में संरक्षक के रूप में कार्य करने के लिए बुलाया जाता है। इसके विपरीत, यीशु एक गम्भीर टिप्पणी में समझाता है कि एक बार जब नमक अपना स्वाद खो देता है, तो यह पूरी रीति से निष्फल हो जाता है। इसलिए, आइए हम निष्फल मसीही न बनें।
“तुम जगत की ज्योति हो”(मत्ती 5:14)।
अन्त में यीशु विश्वासियों की तुलना ज्योति से करता है। दूसरे स्थल में, यीशु कहता है, “मैं जगत की ज्योति हूँ” (यूहन्ना 8:12; 9:5), वरन् यहाँ वह अपने अनुयायियों से कहता है, “तुम जगत की ज्योति हो।” यह कोई विरोधाभास नहीं है। किन्तु, ख्रीष्ट के शिष्यों को जगत की ज्योति के रूप में सेवा करने के लिए बुलाया गया है, क्योंकि ज्योति में विश्वास करने वाले के रूप में, वे स्वयं “ज्योति के पुत्र” बन गए हैं (यूहन्ना 12:36)। ज्योति के रूपक को आगे बढ़ाते हुए यीशु ने विस्तार से कहाः
“पर्वत पर बसा हुआ नगर छिप नहीं सकता। लोग दीपक को जलाकर टोकरी के नीचे नहीं परन्तु दीवट पर रखते हैं, और वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है। तुम्हारा प्रकाश मनुष्यों के सम्मुख इस प्रकार चमके कि वे तुम्हारे भले कामों को देख कर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में है, महिमा करें”(मत्ती 5:14-16)।
यद्यपि हम अपने अच्छे कार्यों के कारण से नहीं बचाए जाते हैं, हम अच्छे कार्यों के लिए बचाए जाते हैं, ऐसे कार्य जो हमारे स्वर्गीय पिता की महिमा करते हैं।
पहाड़ी उपदेश के आरम्भ में ही, यीशु ने अपने अनुयायियों को उन महान विशेषताओं का अद्भुत चित्र दिया है जो उसके शिष्यों को चिन्हित करती हैः आत्मा की दरिद्रता, पाप पर शोक, नम्रता, धार्मिकता के लिए गहरी लालसा, दया, हृदय की पवित्रता, शान्ति स्थापित करने की सक्रिय इच्छा, तथा धार्मिकता के लिए सताव को धैर्यपूर्वक सहना। विशेषताओं की यह सूची विश्व के मूल्यों से स्पष्ट रूप से भिन्न है, जिसमें गर्वपूर्ण आत्मनिर्भरता, प्रसन्नता के लिए जीना, आक्रामक आत्म-अभिकथन, किसी भी मूल्य पर आगे बढ़ना, कठोरता और अशिष्टता, नैतिक पतन और क्षय, झगड़ालूपन, और यह सुनिश्चित करने के लिए अतिसंवेदनशील सतर्कता सम्मिलित है कि किसी के अपने अधिकारों का कभी उल्लंघन न हो। इसके अतिरिक्त, ख्रीष्ट के शिष्यों को संस्कृति में स्वाद देना चाहिए और संसार में परमेश्वर की ज्योति के रूप में चमकना चाहिए। इन दस विशेषताओं का अनुकरण करके, पवित्र आत्मा की सहायता से, यीशु के अनुयायी पहले से ही यहाँ और अभी, और सदैव के लिए परमेश्वर के राज्य के नागरिक प्रमाणित होंगे।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।