चिन्ता का समाधान - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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चिन्ता का समाधान

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का पांचवा अध्याय है: चिन्ता

हम एक ऐसे संसार में रहते हैं जहाँ हमारे पास बहुत सारी तकनीकी प्रगति हैं—हमारे पास अपने जीवन को सरल बनाने के लिए बहुत सारी वस्तुएँ उपयोग के लिए हैं—माइक्रोवेव और डिशवॉशर से लेकर मोबाइल फोन और सिरी तक। फिर भी, इन सभी वस्तुओं के मध्य जो हमारे जीवन को सरल और सहज बनाने के लिए उपलब्ध हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे जीवन अत्याधिकरूप से जटिल हैं। बहुत सारे लोग तनावग्रस्त, भ्रमित और चिन्ता से भरे हुए हैं। परामर्श केंद्र कॉफी की दुकानों के समान बहुफलदायक हो गए हैं, और बहुत सारे पास्टर यह स्वीकार करेंगे कि पर्याप्त रूप से देखभाल के लिए संसाधनों से अधिक तो कलीसिया में लोग हैं जिन्हें परामर्श की आवश्यकता है। हम ऐसे संसार में रहते हैं जो चिन्ता से भरा पड़ा है। परन्तु मसीही होने के कारण, हम चिन्ता के लिए परमेश्वर के समाधान के लिए बाइबल की सहायता ले सकते हैं: जो है ख्रीष्ट और उस पर हमारी आशा पर ध्यान केंद्रित करना। और यहाँ, हम अपने प्रोत्साहन के लिए रोमियों 8:18-30 को प्राथमिक स्थल के रूप में पढ़ते हैं।

जिन परीक्षा और चुनौतियां को हम सहते हैं, वे कई प्रकार से नयी नहीं हैं। “सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं है”—चिन्ता सहित (सभोपदेशक 1:9)। प्रथम-शताब्दी की कलीसिया, कई प्रकार से, अत्यन्त अवपीड़न में एक कलीसिया थी। उन दिनों की राजनीतिक शक्तियाँ मसीहियत के लिए स्नेहशील तो थीं ही नहीं। सम्राट नीरो कलीसिया की अपनी हिंसक अवहेलना के लिए प्रसिद्ध है। उसका मसीहियों पर सताव अत्यन्त था, वह उनकी सम्पत्ति को छीन लेता और उनके शरीरों पर अत्याचार करता था। उसके भ्रष्ट “उद्यान समारोह” जिसमें वह मसीहियों को अपने मूर्तिपूजक अतिथियों का मनोरंजन करने के लिए मानव मशालों के रूप में उपयोग करता अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। रोम में मसीही प्रतिदिन मृत्यु के आतंक में रहते और सामाजिक अलगाव का अनुभव करते थे जैसा कि हम में से अधिकांश ने कभी नहीं जाना होगा। यदि चिन्ता तनाव के प्रति दिमाग की स्वाभविक प्रतिक्रिया है, तो रोम की कलीसिया के पास चिन्तित होने के कई कारण थे।

पौलुस ने रोमियों की पुस्तक को आक्रमणग्रस्त कलीसिया को सान्त्वना और प्रोत्साहना देने के लिए लिखा था, जिससे वे दबाव में अनुग्रह को समाविष्ट कर सकें। रोम में कलीसिया स्पष्ट रूप से हैरान थी। उन्होंने अपने आप को यीशु— राजाओं के राजा और प्रभुओं के प्रभु—को सौंप दिया था। फिर भी यीशु के लिए निष्ठा उनके लिए सांसारिक शान्ति और शान्तचित्तता नहीं लायी थी। कई मायनों में, उनकी सामाजिक स्थिति और भौतिक लाभ यीशु और उसकी कलीसिया के साथ पहचाने जाने से पहले अच्छी थी। अब, वे अपनी ही जन्मभूमि पर परदेसी और बाहरी लोक के थे, और कलीसिया के प्रति शैतान की शत्रुता के पूर्ण आघात की प्रत्यक्ष रूप से साक्षी दे रहे थे। नीरो शैतानी डोरी पर मात्र एक कठपुतली था, जो कलीसिया पर हिंसा और विनाश ला रहा था। मसीहियों को नीरों के सर्पिल डंक का आभास हुआ और वे चिन्ता और निराशा के प्रलोभन में पड़ गए। यीशु और उसका राज्य कहाँ था? वा शान्ति कहाँ थी जिसकी उन्हें आशा थी? उनके घरों, उनकी नौकरियों, उनके परिवारों का क्या होगा?

हमारे और पहली-शताब्दी के रोम के दिनों के मध्य कम से कम कुछ समानता देखे बिना इस चित्र का चित्रण करना कठिन है। हम सम्भवतः सताव के पूर्ण आघात का अनुभव न करें जैसा उन दिनों की कलीसिया ने किया, परन्तु हम भी दुष्ट की वास्तविकताओं से सुरक्षित नहीं हैं। हम जानते हैं कि ख्रीष्ट के साथ पहचाने जाना हानिकारक हो सकता है। हम सामजिक विरोध और अलगाव को जानते हैं। हम जानते हैं कि क्रूस की फाँस पीड़ादायक हो सकती है, यद्यपि वे हमारे उद्धारकर्ता के क्रूस के भार की तुलना में कम हो। हम चिन्ता और निराशा के प्रलोभन को भी जानते हैं। हम आन्धियों को संसार में अपने आस-पास उमड़ते हुए और कलीसिया में कई लोगों को सत्य के लिए खड़े होने के स्थान पर इसके स्वर से समझौता करने की इच्छा को भी देखा है। भेड़िए झुण्ड का चक्कर लगा रहे हैं—और भेड़ें चुप हैं।

इस पास्तरीय वातावरण में पौलुस ने प्रोत्साहन का एक उत्साहवर्धक शब्द कहा। जो रोमियों के मसीहियों को सुनने की आवश्यकता थी वह सुनने में धर्मनिष्ठ बातें या “आप का उत्तम जीवन अब” की निरर्थक प्रतिज्ञाएँ नहीं थी। उनको आवश्यकता थी वह उनकी चिन्तित आँखें इस संसार की वस्तुओं और इसके झूठे देवताओं से हटाए जाएँ और उनकी आँखें ख्रीष्ट पर और स्वर्ग की उस निश्चित आशा पर टिकाए जाएँ जो उन लोगों के लिए है जो उसके है। यह ठीक वही है जो पौलुस रोमियों 8:18-30 में करता है। वह कलीसिया को यह दिखाते हुए प्रारम्भ करता है कि परीक्षाएँ और क्लेश जिन्हें हम सहते हैं, वे इस वर्तमान दुष्ट युग के लिए स्थानिक हैं। वे सृष्टि की रचना के ठीक बाद प्रारम्भ हो गए थे जब बहुत अच्छी वस्तुएँ जिसे परमेश्वर ने रचा था तुरन्त ही पाप के परिणाम के रूप में निरर्थकता और निराशा के अधीन हो गयीं। जिस क्षण से आदम ने परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया, एक गहरे और पूर्वाभास के बादल ने पूरी सृष्टि पर अपनी छाया डालना आरम्भ कर दिया। मात्र मानवता ही नहीं परन्तु सृष्टि स्वयं भी पाप के संसार में आने से दूषित हो गयी थी। सृष्टि उस दिन के लिए लालायित होने लगी जब शाप उलट दिया जाएगा और पाप के निशान अन्तत: मिटा दिए जाएँगे, जब मृत्यु अतीत की बात हो जाएगी और जीवन सुन्दरता, शुद्धता और शान्ति से चिन्हित होगा। सृष्टि, रोमियों 8 में पौलुस के अनुसार, नयी सृष्टि के युगान्त के दिन के लिए लालायित है, जब सदा के लिए संसार पर वस्तुएँ उतनी ही सुन्दर और शान्तिपूर्ण होंगी जितनी कि वे स्वर्ग में हैं।

यह दुख की बात है कि, अधिकतर मसीही युगान्त-विज्ञान के विषय में अत्यन्त उत्तेजक रीति से सोचते हैं (यदि वे इसके विषय में थोड़ा भी सोचते हैं)। हम ऐसे प्रश्नों पर ध्यान देते हैं जैसे अन्त से ठीक पहले क्या होगा, कौन ख्रीष्ट विरोधी हो सकता है, और क्या कलीसिया का रहस्यपूर्ण मेघारोहण होगा। ऐसे विषय बाइबल की वास्तविक युगान्त-सम्बन्धित रुचि से ध्यान भटकाने वाले प्रमाणित हुए हैं,जो कि ख्रीष्ट के राज्य की “पहले ही किन्तु अभी नहीं” उपस्थिति है। यीशु पहले ही राजा है, और उसका राज्य उसके जीवन, मृत्यु और पुनरुत्थान के परिणामस्वरूप आया है। आत्मा, पौलुस के अनुसार, ख्रीष्ट में जो हमारा है उसका बयाना है। परमेश्वर के राज्य के प्रथम फल पहले ही उपस्थिति हैं, फिर भी उस राज्य की पूर्णता अभी होनी रहता है।

परन्तु ख्रीष्ट के राज्य की “पहले ही किन्तु अभी नहीं” की प्रकृति का तनाव है जो हमारे लिए बहुत अधिक कठिनाईयाँ उत्पन्न करती हैं। हम जो “अभी नहीं” है, उसकी अपेक्षा अब करते हैं—हम पृथ्वी पर स्वर्ग की अपेक्षा करते हैं—और जब हम धैर्य और दृढ़ता से जीवन जीने के लिए बाध्य किए जाते हैं, हम उसके स्थान पर प्रायः चिन्तित और व्यथित होते हैं। हम अभी महिमा के मुकुट की अपेक्षा करते हैं और बहुत सरलता से अपने विश्वास में पटरी से उतर जाते हैं जब परमेश्वर उसके स्थान पर हम पर दुख का क्रूस रखता है। जैसा की मार्टिन लूथर ने कहा है, हमने बहुत ही अधिक समय क्रूस के ईश्वरविज्ञान के स्थान पर महिमा के हमारे ईश्वरविज्ञान को विकसित करने में बिताया है। यह प्रथम-शताब्दी की कोई अनोखी समस्या नहीं थी। हमारी आधुनिक सुविधाओं ने हमें लगभग पलक झपकते ही परिणाम की अपेक्षा करने के लिए प्रशिक्षित किया है। इसलिए, ख्रीष्ट के “पहले ही” राज्य और इसकी “अभी नहीं” की युगान्त पूर्ति के मध्य धैर्य के साथ जीना सीखना कठिन हो सकता है। पौलुस सहायतापूर्वक कलीसिया का ध्यान पुनः सृष्टि की ओर (जो कुछ समय से धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रही है) ले कर जाता है, परन्तु साथ ही वह हमारी आँखे नयी सृष्टि की ओर इंगित करता है जब वह कहता है, “क्योंकि मैं यह समझता हूँ कि वर्तमान समय के दुखों की तुलना करना आनेवाली महिमा से जो हम पर प्रकट होने वाली है, उचित नहीं” (रोमियों 8:18)। हम अभी जो सहते हैं, बाद मे प्रकट होने वाली वास्तविकता की तुलना में इतना कम है होगा जैसा पौलुस कहता है कि पिछली बातें बाद की बातों से तुलना किए जाने के योग्य भी नहीं है।

मसीही लोग समय-सम्बन्धी विरोधाभास हैं। Christians are a chronological paradox. हम पृथ्वी पर रहते हैं पर स्वर्ग के हैं। हमारे जीवन इस युग में जीए जाते हैं परन्तु अन्ततः आने वाले युग से परिभाषित होते हैं। हमारा राजा हमारे साथ भी है और अभी हमारे पास आने वाला है। परमेश्वर मात्र हमारा यात्रा का साथी नहीं है; वह हमारा गन्तव्य भी है। हम पहले से ख्रीष्ट में हैं परन्तु अभी तक वह नहीं जो हम उसमें पूर्ण रूप से हो जाएँगे जब हम उसके साथ स्वर्ग में होंगे। इन सत्यों को सम्भवतः सरलता से नहीं समझा जा सके, परन्तु वे मसीही होने के—ख्रीष्ट में होने के—और हम में ख्रीष्ट के होने के केन्द्र में हैं।

यह हम रोमियों 8:28-30 की ओर ले जाता है, जो कई प्रकार से पौलुस की सान्त्वना गीत है । इस अनुभाग के विषय में बहुत सी बातें कही जा सकती हैं, परन्तु हम केवल एक पर ध्यान केन्द्रित करेंगे: ख्रीष्ट के स्वरूप के सदृश बनना। पौलुस इस प्रेरक अनुभाग को समाप्त कलीसिया का ध्यान उस महान “भलाई” की ओर ले जा कर करता है जो कि परमेश्वर निरन्तर कर रहा है, यहाँ तक कि इस दुष्ट युग में भी, जो है उन लोगों (कलीसिया) को ख्रीष्ट के स्वरूप में बनाना जिनसे वह प्रेम करता है। जो दुख हम इस वर्तमान दुष्ट युग में सहते हैं, वे उपकरण है जिसे परमेश्वर हमें ख्रीष्ट के स्वरूप में ढालने के लिए उपयोग करता है। वे उसके प्रायोजनिक देखभाल के बाहर नहीं हैं; न ही वे उथले हैं। इसके विपरीत, उन कठिन बातों का एक अच्छा लक्ष्य होता है जिन्हें हम सहते हैं—वे हमें ख्रीष्ट के स्वरूप के सदृश बनाते हैं।

हम ख्रीष्ट में क्या है वह परीक्षाओं और कठिनाईयों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया पर प्रभाव डालता है। हमें चिन्ता और निराशा में ले जाने के स्थान पर, परीक्षाओं को हमें स्मरण कराना चाहिए कि स्वर्ग उत्तम होगा, कि ख्रीष्ट पर्याप्त है, और कि पलभर का यह हल्का-सा क्लेश जिसे हम अभी सहते हैं स्वर्ग में हमारी प्रतीक्षा कर रहे महिमा के अनन्त भार के सामने अतुलनीय है। इसलिए, हम चिन्तित नहीं होते; हम भयभीत नहीं होते; हमें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। जैसा कि भजन हमारा परमेश्वर एक पराक्रमी गढ़ हमारा परमेश्वर है (A Mighty Fortress Is Our God) हमें स्मरण कराता है: “भली वस्तुओं और कुटुम्बियों को जाने दो, इस नश्वर जीवन को भी। देह को वह घात कर सकते हैं, परमेश्वर का सत्य अभी भी दृढ़ है। उसका राज्य सदा के लिए है।”

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
एरिक वॉटकिन्स
एरिक वॉटकिन्स
डॉ. एरिक बी. वॉटकिन्स, सेंट सैन मार्कोस, कैलिफ़ोर्निया में हार्वेस्ट ऑर्थोडॉक्स प्रेस्बिटेरियन चर्च के वरिष्ठ पास्टर हैं। वे प्राचार का घटनाचक्र (The Drama of Preaching) के लेखक हैं।