चिन्ता के साथ विश्वासयोग्यता से जीना - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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चिन्ता के साथ विश्वासयोग्यता से जीना

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का छठवा अध्याय है: चिन्ता

चिन्ता रहस्यमयपूर्ण और भ्रान्तिजनक है। कुछ लोगों ने शक्तिहीन करने वाली चिन्ता का अनुभव किया है जिससे कि उन्होंने अपने आप को एम्बुलेन्स के पीछे बैठा हुआ पाया, जबकि अन्य लोगों को असाम्यिक चिन्ताजनक विचार आते हैं जो उनके शान्तिपूर्ण निद्रा में जाने से पहले उनके मस्तिष्क से होकर निकलते हैं।  कुछ के लिए, चिन्ता दैनिक मूलभूत कार्यों को करना कठिन बना सकती है। अन्यों के लिए, चिन्ता प्रत्येक वर्ष कुछ ही बार के लिए आती है और प्रतिदिन के जीवन को महत्वपूर्ण रूप से बाधित नहीं करती है। चिन्ता भले कोई भी रूप ले, मसीहियों को यह जानने की आवश्यकता है कि इसे कैसे अपने विचल हृदयों के लिए बाइबलीय निर्देशों और बुद्धि के साथ पूरा किया जाए। चिन्ता जब अपना रौद्र रूप प्रकट करती है, तब हमें क्या करना चाहिए? जब चिन्ता मसीहियों की निरन्तर की साथी हो, तो हम कैसे विश्वासयोग्य बने रहें?

इन प्रश्नों पर विचार करने से पहले, यह ध्यान देने योग्य है कि हमारा परमेश्वर प्रदत्त लड़ो-या-भागो की प्रतिक्रियाएँ अच्छी हैं। परमेश्वर ने हमारे मस्तिष्क की रचना सम्भावित संकट के प्रति सचेत करने के लिए की है। परन्तु हमारे मस्तिष्क पतन के प्रभावों के अधीन है, इसलिए हमारे संकट-सूचक तन्त्र कभी-कभी हमें भटका सकते हैं। इसीलिए, सभी चिन्ता मत्ती 6 की आज्ञाओं पर ध्यान देने और प्रतिज्ञाओं को अपनाने की विफलता मात्र नहीं है। डॉ. आर. सी. स्प्रोल ने विचार व्यक्त किया था: “स्वयं हमारे प्रभु ने किसी भी बात के लिए चिन्तित न होने का निर्देश दिया है। तब भी, हम ऐसी सृष्टि हैं जो, अपने विश्वास के होने के बाद भी, चिन्ता के और कभी-कभी तो गहरी उदासी के अभ्यस्त हो जाते हैं।” हम देह और प्राण दोनों के साथ की सृष्टि हैं, और इसलिए, हम व्यापक और जटिल हैं। हम रहस्यवादी नहीं है, जो शारीरिक को तुच्छ जानते हुए मात्र आत्मिकता पर ध्यान केन्द्रित करे। बाइबल ऐसा नहीं करती है (देखें 1 राजा 19; 1 तीमुथियुस 5:23), तो हमें भी ऐसा नहीं करना चाहिए। उस व्यक्ति पर विचार कीजिए जो कठिनाई से एक प्राणघातक वाहन दुर्घटना से बच पाया है और वाहन में पुन: से सवारी करने को अत्यन्त कठिन पाता है। क्या उसके संघर्ष की जड़ शारीरिक है या आत्मिक? उत्तर है दोनों। समाविष्ट आत्माओं के रूप में हम जो भी अनुभव करते हैं वह शारीरिक और आत्मिक है।

प्रकृति में परमेश्वर के सामान्य प्रकाशन की वैज्ञानिक जाँच के द्वारा हम अपने शारीरिक अनुभवों के विषय में बहुत कुछ सीखते हैं। यह देखते हुए कि सभी सत्य परमेश्वर का सत्य है, हम परमेश्वर के वचन के प्रस्तुतिकरण में वैज्ञानिक शोध की अन्तर्दृष्टि को स्वतन्त्रतापूर्वक स्वीकार कर सकते हैं। जब चिन्ता और गहरी उदासी जैसी स्थितियों की बात आती है, शोध से स्पष्टतापूर्वक पता चलता है कि कुछ लोगों के संज्ञानात्मक अवरोधों (cognitive disruptions) और मस्तिष्क की तंत्रिकाओं की सही से कार्य न करने (misfiring brain circuits) की प्रवृत्ति अधिक होती है। चिन्ता के शारीरिक और आत्मिक कारणों के विशिष्ट मिश्रण के बाद भी, पवित्रशास्त्र आगे बढ़ने का मार्ग प्रदान करती है। फलतः, यह लेख इस बात पर ध्यान केन्द्रित करेगा कि जो मसीही चिन्ता के साथ कठिन परिश्रम कर रहे हैं, वे कैसे चिन्ता के साथ विश्वासयोग्यता से जी सकते हैं, चिन्ता से स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं, और चिन्ता में और उसके द्वारा प्रभु के छुटकारे के उद्देश्यों की खोज कर सकते हैं।

चिन्ता से जूझने में, हम अपने ही सबसे बड़े शत्रु हो सकते हैं। चिन्ता, आघात और गहरी उदासी प्रायः अस्वस्थ व्यवहार (उदाहरणार्थ, बुरा आहार, व्यायाम की कमी, नीन्द की कमी), अस्वस्थ विचार प्रारूप (उदाहरणार्थ, आत्म-दया, लाभहीन सोच, अनियन्त्रित मनोभाव), और अनुशासन की कमी (उदाहरणार्थ, आलस्य, अलगाव)  के द्वारा स्थायी बने रहते हैं। रिचर्ड बैक्सटर ने विचार व्यक्त किया , “गहरी उदासी की ओर उन्मुख व्यक्ति सोच के अनुशासनहीन प्रारूपों या अनियन्त्रित मनोभवों के माध्यम से सहजता और बार-बार ही और अधिक गहराई में चले जाते हैं।” चिन्तित मसीही को सतर्क रहना चाहिए—सम्भवतः अन्यों से अधिक। हमें अपने विचार के प्रारूपों (1 कुरिन्थियों 4:20; फिलिप्पियों 4:8), व्यवहार सम्बन्धी प्रवृत्ति (1 तीमुथियुस 4:16) और शिक्षण प्रभावों (2 तीमुथियुस 4:3-4) पर सावधानीपूर्वक चौकसी करनी चाहिए; स्वयं को प्रार्थना (फिलिप्पियों 4:6), संयम (1 कुरिन्थियों 7:5; 9:25; गलातियों5:23), और अनुशासन (1 कुरिन्थियों 9:27; तीतुस 1:8) के प्रति समर्पित करना चाहिए; और परमेश्वर के आधिकारिक वचन (1 यूहन्ना 3:20) के विरुद्ध अपने मनोभावों, भावनाओं, और प्रतिक्रियाओं को मापना चाहिए। चार्ल्स स्पर्जन ने, अपनी स्वयं की चिन्ताओं और निराशा से निपटने के पश्चात्, प्रायः अपने लोगों को स्मरण कराया कि भावनाएँ अस्थिर हैं: “वह व्यक्ति जो भावना के आधार पर जीता है, वह आज प्रसन्न होगा और कल अप्रसन्न।”

हम सोच सकते हैं कि उन भावनाओं और विचारों का उपचार जो अचानक उत्पन्न हो जाते हैं, मात्र हमारी भावनाओं को परिवर्तित करना है—अपने आप को इन असहज चिन्ताओं से छुटकारा दिलाने के लिए। परन्तु लक्ष्य अपनी भावनाओं को परिवर्तित करना नहीं है; लक्ष्य विश्वासयोग्य आज्ञाकारिता है। कभी-कभी उस विश्वासयोग्य आज्ञाकारिता में अप्रार्थित भावनाओं और विचारों के पृथक दर्शक बनने के लिए, सीखने की लम्बी और कष्टदायी प्रक्रिया सम्मिलित हो सकती है।  भावनाएँ होते हुए भी इस प्रकार का विश्वासयोग्य परिश्रम कठिन हो सकता है। हम प्रातः पलंग से उठने में संघर्ष कर सकते हैं, उन सब के विषय में सोचते हुए जो आगे के दिन में निहित है—निरन्तर आने वाले ई-मेल, सम्भावित बुरे समाचार, नीरस कार्य, बच्चे, अभुक्त लेखा पत्र। प्रार्थनापूर्वक, जब हम एक समय में एक कदम उठाते हैं तो प्रभु पर भरोसा रखते हैं कि वह हमें बनाए रखेगा। यीशु हमें बताता है, “आज के लिए आज का ही दुख बहुत है” (मत्ती 6:34)। कभी-कभी, कार्य के लिए उसी का दुख बहुत है। एक पैर को दूसरे के आगे रख कर, हम बढ़ते रहते हैं।

अपंग करने वाली चिन्ता से स्वतन्त्रता के लिए विश्वास बनाए रखते हुए कष्टदायी अनिश्चितता की उपस्थिति में बने रहने की आवश्यकता है। विशेषकर, चिन्ता-प्रेरित कष्ट की तीव्र वेदना में, यह अत्यावश्यक है कि हम दुख उठाने वाले उद्धारकर्ता के साथ अपने रहस्यी मिलन से सहायता प्राप्त करें। मार्टिन लूथर, भावुक कोलाहल के प्रकरणों में जिसमें शैतान उसके विवेक पर आरोप लगाता था, अपने आप को ख्रीष्ट के कष्ट के साथ दुख उठाते हुए देखता था। लूथर का मानना था कि कि दुष्ट के ज्वलन्त तीर और चिन्ता की कष्टप्रद कीलें अवसर हैं अपने उद्धारकर्ता के साथ मिलकर दुख उठाने का, अपने पुराने मनुष्यत्व के अवशेषों को नीचा दिखाने का, और अपनी नियन्त्रण और निश्चितता की आवश्यकता से अनावृत होने का। बाधाकारी चिन्ता के कष्टप्रद आक्रमण के समय,हम घबराहट में नहीं आ जाते परन्तु इसके स्थान पर अपने दिमाग की प्रतिक्रियाओं को वस्तुनिष्ठ रीति से समझने के लिए कार्य करते हैं। भजनकार हमें अपने मनों को शान्त करने के लिए स्मरण कराता है: “शान्त हो जाओ, और जान लो कि मैं ही परमेश्वर हूँ” (भजन 46:10)। हम संयमी और अटल बने रहते हैं। जैसा कि पुराना भजन हमें स्मरण दिलाता है, “जब चारों ओर मेरा प्राण हार मान जाता है, तब वह मेरी सारी आशा और शरण है।” बड़ी आँधी में मसीही, भरोसा करते हैं और आज्ञा मानते हैं। इस बात पर ध्यान दिए बिना कि भले प्रभु इस जीवन में हमें पूर्ण छुटकारा दे या नहीं, हम अपनी चिन्ताओं के होते हुए भी विश्वासयोग्य बने रहने के प्रयास में रहते हैं और पश्चाताप करते हैं जब हम चिन्ता को अपने जीवनों पर शासन करने की अनुमति देते हैं।

निश्चित रूप से, यह विशलेषण करना सरल नहीं है कि कौन सी चिन्ताएँ पापमय हैं। प्यूरिटन जॉन फ्लेवल एक साधारण सा लिट्मस परीक्षण प्रस्तुत करते हैं: “जब तक भय आपको प्रार्थना के लिए जागृत करता है . . . यह आपके प्राण के लिए उपयोगी है। जब यह मात्र मन का विकर्षण और निराशा उत्पन्न करे, यह आपके पाप और शैतान का फन्दा है।” इसके अतिरिक्त, हमें यह जाँचना चाहिए कि किन विचारों और भावनाओं को हम सत्य के रूप में ठहराते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम अपनी चिन्ताओं को कहाँ ले जाते हैं? क्या हम प्रभु में शरण पाने के लिए चिन्तातुरता के साथ उसके पास आते हैं, या क्या हम बैठे रहते हैं और उस पर विचार करते रहते ,और अपने में विश्राम पाने की खोज में रहते हैं? अपने स्वयं के उपकरणों पर छोड़े जाने पर, हम चिन्ता की आँधी से शरण की खोज भोजन, प्रौद्योगिकी, पदार्थों, या अन्य सुराखदार कुण्डों में करेंगे। यदि हम अपनी आन्तरिक प्रवृत्तियाँ—अलगाव व्यवहार, अहंकेन्द्रिकता, निरन्तर मानसिक परीक्षण, या स्व-सहायता तकनीकों की ओर झुक जाते हैं—तो चिन्ता के सूचक मात्र ध्वनि में वृद्धि करेगा। हमें एक बाहरी शब्द की आवश्यकता है।  

सतत चिन्ता को प्रतिज्ञा के साथ सामना कराए जाना चाहिए, जैसा कि जॉन ओवेन सुझाव देते हैं:

एक पीड़ित प्राण, जो लम्बी अवधि से मन की परेशानी और चिन्ता में व्याकुल है, एक मीठी प्रतिज्ञा पाता है—ख्रीष्ट एक प्रतिज्ञा में जो उसकी सारी इच्छाओं के लिए उपयुक्त है, दया के साथ उसे क्षमा करने के लिए, प्रेम के साथ उसे गले लगाने, लहु के साथ उसे शुद्ध करने के लिए आता है—और कुछ सीमा तक इस प्रतिज्ञा के प्रति स्वयं को समर्पित करने के लिए जी उठता है।

जब आप तार्किकता के अयोग्य होते हैं क्योंकि चिन्ता ने अपनी पकड़ कड़ी कर ली होती है, तो क्या आप परमेश्वरीय प्रतिज्ञाओं में विश्राम लेते हैं या घबराहट में पड़ जाते हैं? भजनकार एक उत्तम मार्ग का आदर्श दिखाता है: “जब मेरे मन में चिन्ताएँ बढ़ जाती हैं, तब तेरी सान्त्वना मेरे प्राण को प्रसन्न करती है” (भजन 94:19)। वास्तव में, चिन्ता-ग्रस्त प्राण के लिए भजन की पुस्तक ऐसी उद्यान होने चाहिए जिसमें व्यक्ति नियमित रीति से जाता हो। प्रारम्भिक कलीसिया के पिता अथानासियस ने यह तर्क दिया कि भजन-संग्रह एक लघु बाइबल है (लूथर का पूर्वाभास करते हुए) और हर सम्भव मानव मनोभाव का एक सूचकांक है (कैल्विन का पूर्वाभास करते हुए)। अपने एक मित्र मार्सेलाइनस को पत्र में, अथानासियस ने लिखा:  “भजन-संग्रह में आप अपने विषय में सीखते हैं। आप अपने प्राण की सारी गतिविधियों, इसके सारे परिवर्तनों, इसके उतार-चढ़ाव, इसकी विफलताएँ और पुन:प्राप्ति को इसमें चित्रित पाते हैं।” चिन्ता की अशान्त आँधी से पूर्व और इसकी महावृष्टि के समय, दोनों ही समय भजन पर जाना एक अच्छा निर्णय होगा, क्योंकि वे हमारी भावनाओं और मनोभावो से परिचित हैं। हमें भजन-संग्रह की समानुभूति परामर्श की आवश्यकता है क्योंकि पाप परमेश्वर-प्रदत्त हमारी विशेषताओं को विकृत करता है और शैतान को उन विकृतियों का लाभ उठाना अच्छा लगता है। उदाहरण के लिए,उत्कृष्टता की उचित इच्छा पूर्णतावाद का रूप ले सकती है, या उत्तरदायित्व अति-उत्तरदायित्व का रूप ले सकती है। विचार कीजिए कि कैसे परमेश्वर ने माताओं को अपनी सन्तानों की विशिष्ट देखभाल के लिए बनाया है। फिर भी, प्रथम बार अपने नवजात शिशु की देखभाल करने वाली माता हो सकता है हर रुदन पर अत्याधिक भय का अनुभव करे। अति-उत्तरदायित्व और भय के बोझ के कराण यह तुरन्त ही प्रेमी माताओं को निराशा में फेंक सकता है। भजन उपचारात्मक हैं, उसके चिन्तित और कुचले हुए हृदय स्मरण कराता है कि प्रभु अपने लोगों की देखभाल के लिए अपने सिंहासन पर नियन्त्रण में हैं (देखें भजन 121:3-4)।

परमेश्वर की अपने लोगों के प्रायोजनिक देखभाल पवित्रशास्त्र के प्रत्येक पृष्ठ पर दिखायी देती है। यीशु जीवन के विषय में अत्याधिक चिन्ता करने से रोकता है, क्योंकि यह हमारे पिता के प्रेमपूर्ण देखभाल में अविश्वास को प्रकट कर देता है। संसार के विषयों में अत्यन्त चिन्ता दिखाना यह प्रकट कर देता है कि हम वास्तव में किस पर भरोसा करते हैं। यीशु पूर्ण रूप से आपूर्ति किए गए पक्षी के प्रति हमारे स्वर्गीय पिता की देखभाल की ओर हमारी दृष्टि को निर्देशित करता है। यदि वह उनकी इस प्रकार से देखभाल करता है कि वे सुलैमान से अधिक वैभव प्रदर्शित करें, तो क्या हमें आश्वस्त नहीं होना चाहिए कि वह हमारी प्रत्येक आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा (मत्ती 6:28-30; देखें रोमि. 8:32)? यीशु आगे हमें स्मरण कराता है कि अत्याधिक चिन्ता व्यर्थ है (मत्ती6:27)। परन्तु ख्रीष्ट की निषेधाज्ञा एक सान्त्वना देने वाले विकल्प के साथ है, जैसा कि कैल्विन लिखते हैं: “यद्यपि परमेश्वर की सन्तानें कार्य और चिन्ता से मुक्त नहीं हैं, फिर भी हम उचित रीति से कह सकते हैं कि उन्हें जीवन के प्रति चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर के प्रयोजनों पर निर्भरता के कारण वे शान्त विश्राम का आनन्द ले सकते हैं।”

उस एक शब्द—प्रयोजन—में निरन्तर पीड़ा देने वाली चिन्ता के साथ विश्वासयोग्यता से जीने की कुंजी निहित है। हेडिलबर्ग प्रश्नोत्तरी में प्रयोजन को “परमेश्वर की सर्वशक्तिमान, सभी स्थान पर उपस्थित सामर्थ, जैसे कि वह उसके हाथों के द्वारा था, वह अब भी आकाश और पृथ्वी, सभी रचनाओं के साथ उसको थामे हुए है; और उन पर शासन करता है, कि . . . . . सब कुछ,अचानक से नहीं परन्तु उसके पिता-तुल्य हाथों से आया है” के रूप में परिभाषित किया है (प्र.&उ. 27)। इस प्रकार से, हमारी चिन्ता संयोग से नहीं है—यह एक दुर्घटना नहीं है। यह उसके पिता-तुल्य हाथों से आती है। क्या आप इस पर विश्वास करते हैं? हमें करना होगा यदि हम शक्तिहीन भय की पकड़ को दबाना चाहेंगे। यदि ठीक से समझा और सम्भाला जाए, तो चिन्ता शान्ति के परमेश्वर पर निर्भरता विकसित करने और उसके साथ स्नेही सहभागिता का अवसर प्रदान करती है (2 कुरिन्थियों1:3-4)। रिचर्ड सिब्स नम्रता के साथ प्रस्ताव देते हैं, “यदि हम विचार करें कि किस प्रकार से पिता के प्रेम से कष्ट आते हैं, कैसे वह हमारे लिए मात्र संयत ही नहीं परन्तु मधुर और पवित्र भी है, तो कैसे सबसे बड़ी प्रतीत होने असुविधाओं में यह सान्त्वना की बात नहीं होगी?”  पौलुस अपने दुख का लेखा देता है—उसकी देह में एक काँटा रखा गया जिसे परमेश्वर ने निकालने से मना कर दिया। इसके स्थान पर, उसने अपने सेवक को सान्त्वना दी: “मेरा अनुग्रह तेरे लिए पर्याप्त है, क्योंकि मेरा सामर्थ्य निर्बलता में सिद्ध होता है।” इसलिए पौलुस ने अपनी दुर्बलताओं पर आनन्द के साथ घमण्ड करने का निश्चय किया, “जिससे कि ख्रीष्ट का सामर्थ्य मुझमें निवास करे। इस कारण, मैं ख्रीष्ट के लिए निर्बलताओं में प्रसन्न हूँ . . . क्योंकि जब मैं निर्बल होता हूँ तभी सामर्थी होता हूँ ( 2 कुरिन्थियों 12:7-10)।

कष्टप्रद फन्दे ने प्रायोजनिक रूप से प्रभु के छुटकारे के कार्य को प्रेरितों में और उसके माध्यम से पूरा किया। इसी प्रकार हमारी निर्बलताएँ भी हमें उद्धारकर्ता के लिए महान प्रेम और इस संसार की वस्तुओं के लिए अरुचि की ओर ले जा सकती है। फ्लेवल ने निरन्तर चिन्तित और निराश मसीहियों को यह आशा प्रदान किया: “परमेश्वर की बुद्धि ने यह दुख अपने लोगों पर अनुग्रहपूर्ण अन्त और उपयोगिता के लिए आदेशित की है। वह इसका उपयोग उन्हें और अधिक कोमल बनाने के लिए करता है—उनके मार्गों में चौकस, चौकन्ना, और सावधान बनाने के लिए, ताकि वे जितना सम्भव हो उतना अधिक कठिनाई के अवसरों से दूर रह सकें और बच सकें। यह आपको भटकने से रोकने के लिए अवरोध है। महान परीक्षाओं में, जो फन्दे के समान दिखायी पड़े वह हो सकता है आपके लाभ के लिए हो।” लाभदायक चिन्ता? कैसे? प्रथम, फ्लेवल आगे बताते हैं, ”देह के रोग और मन के कष्ट आपके लिए इस संसार के विश्राम और सुखों को कड़वा करने का कार्य करते हैं। वे दूसरों की तुलना में आपके लिए जीवन को कम वांछनीय बना देते हैं। वे दूसरे लोगों से जो जीवन के सुखों और मिठास का अधिक आनन्द लेते हैं उनकी तुलना में आपके लिए जीवन को अधिक बोझिल बना देते हैं।” इसके अतिरिक्त, वे “मृत्यु को सुगम और आपके लिए इस संसार से आपके अलगाव को अत्यन्त सरल बना दे सकते हैं। जो बोझ आप आपने पीछे खींच रहे हैं, इसके कारण आपके जीवन आपके लिए अब कम मूल्य के हैं। परमेश्वर जानता है कि इन बातों को अपने प्रयोजन के मार्ग में आपके लाभ के लिए कैसे उपयोग करना है।” दूसरा, चिन्ता हमें परमेश्वर के साथ निकट सहभागिता की ओर ले जाती है: “जितने बड़े आपके संकट होंगे, उतनी ही अधिक आपकी उसके पास पहुँच होगी। आपको इन छोटी समस्याओं को सहने के लिए अपने नीचे सनातन भुजाओं की आवश्यकता का आभास होगा, जो अन्य लोगों के लिए कुछ भी नहीं है।” तीसरा, जैसा कि पौलुस सिखाता है, प्रभु अपनी सामर्थ्य हमारी निर्बलताओं में दिखाता है। इसलिए, फ्लेवल निष्कर्ष निकालते हैं, “इसे आपको हतोत्साहित न करने दें। प्रकृति की दुर्बलताएँ मृत्यु को कम भयानक बना सकती हैं। यह आपको परमेश्वर के समीप ले जा सकती है और आपकी आवश्यकता की समय उसके अनुग्रह के प्रदर्शन के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान कर सकता है”।

हमारी अपेक्षाओं के विरुद्ध, निरन्तर परेशान करनी वाली चिन्ता पर अपना दृष्टिकोण को एक बोझ से एक उपयुक्त अवसर के रूप में समझना, चिन्ता से मुक्त रहने में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। जितनी अधिक चिन्ताएँ आती हैं, उतने अधिक हमारे पास अवसर हैं उन्हें उस पर डालने के लिए जो हमारी चिन्ता करता है (1 पतरस 5:7)।

जॉन बन्यन ने, यह स्वीकार करने के बाद कि “आज तक” उन्होंने हृदय की चिन्ताओं का अनुभव किया, अपनी आत्मकथा को एक उत्सुक दृष्टिकोण के साथ समाप्त करते हैं:

इन बातों को मैं निरन्तर देखता हूँ और इनका आभास कर रहा हूँ, और मैं इनसे व्यथित और उत्पीड़ित हूँ; फिर भी परमेश्वर की बुद्धि उन्हें मेरे भले के लिए उपयोग करती है। 1. वे मुझे मुझसे घृणा कराते हैं। 2. वे मुझे मेरे हृदय पर भरोसा करने से रोकते हैं। 3. वे मुझे अन्तर्निहित धार्मिकता की अपर्याप्तता के लिए आश्वास्त करते हैं। 4. वे यीशु के पास जाने की मेरी आवश्यकता को दिखाते हैं। 5. वे मुझ पर परमेश्वर से प्रार्थना करने का दबाव डालते हैं। 6. वे मुझे सतर्क और गम्भीर रहने की आवश्यकता को दिखाते हैं। 7. और मेरी सहायता के लिए और इस संसार में मुझे सम्भाले रखने के लिए वे मुझे ख्रीष्ट के द्वारा, परमेश्वर की ओर देखने के लिए उकसाते हैं।

हम अपेक्षा कर सकते थे कि बन्यन जैसे महान अंग्रेज प्यूरिटन अपनी जीवनी को विजय के शब्दों के साथ समाप्त करता। इसके स्थान पर, हम क्या पाते हैं? काँटा अभी भी वहीं है। परन्तु साथ ही उद्धारकर्ता भी।

बन्यन ने—लूथर और स्पर्जन के समान ही—दृढ़ता से यह विश्वास किया कि परमेश्वर की बुद्धि हमारे दुखों और निर्बलताओं को हमारे भले के लिए निर्मित करती है (रोमियों 8:28)। कष्टदायी चिन्ताओं ने उसे उस यीशु के पास जाने के उपयुक्त अवसर प्रदान किये, जो हमारी निर्बलताओं के साथ सहानुभूति रखता है (इब्रानियों 4:15), हमें सम्भालता है (भजन 28:9; यशायाह 41:10), और हमारी निर्बलताओं के माध्यम से अपना पर्याप्त अनुग्रह दिखाता है ( 2 कुरिन्थियों 12:9)।

भले ही चिन्ता एक आसम्यिक अतिथि  हो या एक निरन्तर के साथी समान हो, हम अपनी लड़ाई में अकेले नहीं हैं। यहोवा अपनी प्रजा को न छोड़ेगा (भजन 94)। वह सर्वदा अपने लोगों के निकट रहता है, औक थके और टूटे मन वालों को सान्त्वना देता है (भजन 34:18)। आइए हम एक दूसरे को प्रोत्सहित करते रहें (1 थिस्सलुनीकियों 5:11), एक दूसरे को प्रेम और भले कार्यों में उत्साहित करते रहें (इब्रानियों 10:24), और एक दूसरे का भार उठाते रहें (गलातियों 6:2), एक दूसरे को स्मरण कराते रहें कि भय, चिन्ता, और गहरी उदासी की लड़ाई समाप्त हो जाएगी। तब तक, हम परमेश्वर के अनुग्रह से विश्वासयोग्य, संयमित और आशावान बने रहने का प्रयत्न करते हैं—क्योंकि वह दिन आता है जब चिन्ता के कारण होने वाला भय एक दूर की स्मृति होगी, और ऐसा ही पापमय अविश्वास के अवशेष भी समाप्त हो चुकी होंगी। निश्चय ही, आंसू, पीड़ा, विलाप, और यहाँ तक कि रात भी न होगी (प्रकाशितवाक्य 21:4; 22:5)।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
ऐरन गैरियट्ट
ऐरन गैरियट्ट
रेव. ऐरन गैरियट्ट (@AaronGarriott) टेब्लटॉक पत्रिका के प्रबन्धक सम्पादक हैं, सैन्फर्ड, फ्लॉरिडा में रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज में निवासी सहायक प्राध्यापक हैं, तथा प्रेस्बिटेरियन चर्च इन अमेरिका में एक शिक्षक प्राचीन हैं।