1 कुरिन्थियों के विषय में जानने योग्य 3 बातें - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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1 कुरिन्थियों के विषय में जानने योग्य 3 बातें

1. कुरिन्थुस की कलीसिया चुनौतियों से भरी हुई थी।

प्रेरित पौलुस कुरिन्थुस की कलीसिया का संस्थापक था। अर्थात्, वह वह मानवीय साधन था जिसका उपयोग करके  परमेश्वर ने इस कलीसिया को जन्माया था।  50 के दशक के आरम्भ में अपनी दूसरी मिशनरी यात्रा में पौलुस भूमि पुल पर स्थित इस नगर में पँहुचा, जो  अखाया की मुख्य भूमि को दक्षिण में पेलोपोनेसस के साथ जोड़ता था। यह दो बन्दरगाहों (लेचियम और सेन्क्रेए) और अनुमानित 150,000 की महानगरीय जनसँख्या वाला एक नगर था। यह चरम तक भीड़भरा, मूर्तिपूजक और अनैतिक था।

पौलुस की सेवकाई आराधनालय में आरम्भ हुई, परन्तु जब विरोध बहुत बढ़ गया, तो वह तीतुस यूस्तुस, परमेश्वर के आराधक के घर में बना रहा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसने मुख्य सार्वजनिक स्थल और अन्य स्थानों में भी सेवकाई की थी। “पौलुस को सुनकर बहुत से कुरिन्थियों ने विश्वास किया” (प्रेरितों 18:8)। परमेश्वर ने रात्रि दर्शन में पौलुस को निडर होकर सेवा जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि उस नगर में बहुत से लोग थे जो विश्वास करेंगे। वह डेढ़ साल तक वहीं रहा। इस प्रकार यह एक बड़ी कलीसिया रही होगी, जो मुख्यतया परिवर्तित मूर्ति-पूजकों से बनी होगी और यहूदियों की संख्या कम रही होगी। पौलुस स्वयं को उनके आत्मिक पिता के रूप में संदर्भित करता है (1 कुरिन्थियों 4:15)। तथापि, इस कलीसिया में सेवा करना सरल नहीं था। उनमें से कुछ पहले यौन सम्बन्धी भ्रष्टता  में सम्मिलित थे जिसके लिए यह नगर  जाना जाता था और अन्य मूर्तिपूजक, चोर और पियक्कड़ थे (1 कुरिन्थियों  6:9-11)। इसके अतिरिक्त, पौलुस उन्हें यूनानी ज्ञान से आसक्त (1 कुरिन्थियों  2:4-5), अपरिपक्व (1  कुरिन्थियों   3:1), गर्व से फूले हुए (1  कुरिन्थियों  4:6), अभिमानी (1 कुरिन्थियों 5: 2), घमंडी (1  कुरिन्थियों   5:6), अविवेकी (1  कुरिन्थियों   6:1; 11:21-22), के रूप में सन्दर्भित करता है और यह सूची और लम्बी हो सकती है। उन परिस्थितियों में पौलुस ने लोगों की सेवा कैसे की?

यह उल्लेखनीय है कि पत्र के आरम्भ से ही पौलुस उनके लिए धन्यवाद देता है, उनकी सराहना करता है और मानता है कि उनमें किसी भी आत्मिक वरदान की कमी नहीं थी (1 कुरिन्थियों 1:4-7)। बाद में उसने स्पष्ट किया कि वह उन्हें लज्जित करने के लिए नहीं बल्कि अपने प्यारे बच्चों के रूप में उन्हें चेतावनी देने के लिए लिख रहा था (1 कुरिन्थियों 4:14)। उनके प्रति उसका पासवानीय प्रेम (pastoral love) सर्वत्र स्पष्ट है। पत्र में उसके अंतिम शब्द हैं: “मेरा प्रेम ख्रीष्ट यीशु में  तुम सब के साथ रहे। आमीन” (1कुरिन्थियों 16:24)।

2. कुरिन्थियों की पहली पत्री में पौलुस की अन्य पत्रियों की अपेक्षा  सामग्री की अधिक विविधता है।

जे. ग्रेशम मैकेन ने लिखा: “कुरिन्थियों की पहली पत्री नए नियम की किसी भी अन्य पुस्तक की अपेक्षा प्रेरितीय कलीसिया के आंतरिक मामलों के विषय में अधिक जानकारी प्रदान करती है। कुरिन्थियों की पहली पत्री ही प्रारंभिक कलीसिया  की व्यावहारिक समस्याओं को उनकी व्याकुल करने वाली विविधता की संपूर्णता में प्रस्तुत करती है।”  इस पत्र को पढ़ने से इस पुस्तक में विषयों की विस्तृत श्रृंखला का पता चलता है। पौलुस को इन बातों के विषय में दो संचारों द्वारा सूचित किया गया था जो उसे प्राप्त हुए थे: खलोए का संवाद जो उसके कुछ “लोगों”, सम्भवतया दासों द्वारा पहुँचाया गया था (1 कुरिन्थियों 1:11), और स्तिफनास,फूरतूनातुस   और अखइकुस का संवाद, जो सम्भवतया कलीसिया से एक पत्र के रूप में आया था (1 कुरिन्थियों 16:17)।

वहाँ विभाजनकारी समूह थे (1 कुरिन्थियों 1:11-12);  कौटुम्बिक यौन अनाचार (incest) का ऐसा प्रसंग (मामला) था कि अन्यजातियाँ भी उसे वीभत्स माने (1 कुरिन्थियों 5:1); छोटे-मोटे अभियोग सार्वजनिक रूप से प्रसारित किए जा रहे थे (1 कुरिं. 6:1); विवाह और विवाह-विच्छेद/तलाक के सम्बन्ध में निर्देश की आवश्यकता थी (1 कुरिन्थियों 7); उस माँस को खाने के विषय में विवाद था, जो पहले सृष्टि-उपासकों की मूर्तियों को चढ़ाया गया था (1 कुरिन्थियों 8:1-11:1); आराधना और आत्मिक वरदानों के उपयोग से संबंधित विभिन्न बातें थीं (1 कुरिन्थियों 12-14); और कलीसिया में कुछ लोगों द्वारा पुनरुत्थान के सत्य को अस्वीकार किया जा रहा था(1 कुरिन्थियों 15:12)। यह समस्याओं  की चकरा देने वाली सूची है, और यह पूरी नहीं है। यह एक ऐसी कलीसिया थी जिसमें अनेक प्रकार के प्रश्न और चिंताएँ थीं।

3. यद्यपि कुरिन्थुस के लोग और उनकी समस्याएँ कालानुक्रमिक और सांस्कृतिक रूप से हमसे बहुत भिन्न हैं, फिर भी जिस रीति से पौलुस  उनके साथ व्यवहार करता है, वह हमारे लिए पूर्ण रीति से प्रासंगिक है।

एक बार फिर मैकेन का कथन ध्यान देने योग्य है:

“कुरिन्थियों की पहली पत्री प्राचीन कलीसिया की कुछ ठोस समस्याओं से संबंधित है। वे समस्याएँ हमारी समस्याएँ नहीं हैं। . . [परन्तु] पौलुस के पास छोटी-छोटी समस्याओं को भी शाश्वत सिद्धांतों के प्रकाश में देखने की अद्भुत क्षमता थी। यहाँ कुरिन्थियों की पहली पत्री के विषय में  उल्लेखनीय बात है—प्रत्येक प्रश्न जिस पर इसमें बात की गई है का परीक्षण सुसमाचारवादी सत्य की आग में किया गया है। इसलिए यह पत्र स्थायी रूप से मूल्यवान है। सुसमाचार के  उच्च  सिद्धांतों को दैनिक जीवन की दिनचर्या में कैसे लागू किया जाए—यह ख्रीष्टीय आचरण की मूलभूत समस्या है। किसी भी व्यक्ति के लिए उस समस्या को विस्तार से हल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जीवन के विवरण अनन्त विविधता वाले हैं; परन्तु समाधान की विधि कुरिन्थियों की पहली पत्री में बताई गई है।”

यह हमें अच्छे से स्मरण करा देता है कि हर युग में प्रत्येक ख्रीष्टी को पवित्रशास्त्र को अपने सन्दर्भ में लागू करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए हमें सहायता की आवश्यकता है। रिफ़ॉर्मेशन स्टडी बाइबल जैसी एक अच्छी अध्ययन बाइबल के उपयोग के साथ आरम्भ करें। अपेक्षाकृत सरल से लेकर गहन तकनीकी विस्तृत टीकाएँ भी उपलब्ध हैं । सर्वश्रेष्ठ टीकाओं की सहायक सूचियाँ कीथ मैथिसन, टिम चैलीज़ और अन्य द्वारा संकलित की गई हैं। सदा याद रखें कि आपकी सबसे बड़ी सहायता परमेश्वर की ओर से होने वाली है। जब भी आप बाइबल पढ़ते या अध्ययन करते हैं तो भजन 119:18 एक अच्छी प्रार्थना है: “मेरी आँखें खोल दे, कि मैं तेरी व्यवस्था में से अद्भुत बातें देख सकूँ।”

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

रॉबर्ट डब्ल्यू. कारवर
रॉबर्ट डब्ल्यू. कारवर
रॉबर्ट डब्ल्यू. कारवर ने क्लीयरवाटर क्रिश्चियन कॉलेज, फ्लॉरिडा, में यूनानी और बाइबल के सहायक प्राध्यापक के रूप में 35 वर्षों से अधिक सेवा की।