निर्वासन में परमेश्वर के लोग - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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निर्वासन में परमेश्वर के लोग

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का दूसरा अध्याय है: दो जगत के मध्य

अधिकांश लोग सहज ज्ञान से एक आवास स्थान (house) और एक घर (home‌) के मध्य के अन्तर को पहचानते हैं। यही है जो निर्वासन को इतना प्रभावशाली दण्ड बनाता है—यह हमें घर जाने से रोकता है। यह हमें प्रियजनों और सुरक्षा से पृथक कर देता है, और यह हमारे अपनेपन की भावना से वंचित कर देता है। यह हमें शत्रुता और जोखिमपूर्ण स्थानों पर भी रख सकता है।  

परमेश्वर के लोग तब से विदेशी भूमि पर निर्वासित लोगों के समान रह रहे हैं जब से हमें अदन की वाटिका से बाहर निकाला गया है। हमारा सम्पूर्ण इतिहास निर्वासन और पुनःस्थापन का एक घटना चक्र रहा है। शुभ समाचार यह है कि यह घटना चक्र समाप्त होने पर है। अभी के लिए, यद्यपि, हमारे जीवन निर्वासन और पुनःस्थापन दोनों के मिश्रण हैं।

अदन की वाटिका

मानवता को पृथ्वी पर परमेश्वर के स्वर्गीय राज्य को विस्तारित करने के लिए उसकी योजना के भाग के रूप में रचा गया था (मत्ती 6:10; प्राकशितवाक्य 21-22)। इसे पूरा करने के लिए, परमेश्वर ने एक सिद्ध संसार की रचना की और एक अदन (इब्रानी भाषा में जिसका अर्थ है “मनोहर” या “आनन्ददायक स्थान”) नामक विशेष भूमि को पृथक किया। अदन की चार नदियाँ (उत्पत्ति 2:10-14) संकेत करती हैं कि यह मेसोपोटामिया से मिस्र तक फैली हुई थीं।

परमेश्वर ने अदन में एक वाटिका लगाई, जहाँ से चारों नदियों की उद्गम नदी प्रवाहित होती थी। इससे पता चलता है कि वाटिका ऊँची और केन्द्रीय दोनों थी, सम्भवतः यहूदिया के पहाड़ो पर थी। उसने मानवता को “कार्य करने” और वाटिका की “देख-भाल” (उत्पत्ति 2:15) और “पृथ्वी पर भर जाने और उसे वश में करने” के लिए नियुक्त किया (1:28)। अन्य शब्दों में, हमारा कार्य वाटिका की सीमाओं को पृथ्वी के छोर तक विस्तारित करने का था।

अदन में, परमेश्वर ने उसके साथ हमारे सम्बन्ध को नियमित करने के लिए कार्यों की वाचा की स्थापना की (वेस्टमिन्स्टर विश्वास का अंगीकार 7.2)। हम अपने नियत कर्तव्यों को पूरा करने और वर्जित फल न खाने (उत्पत्ति 2:17) के द्वारा परमेश्वर की आज्ञापालन के प्रति उत्तरदायी थे। यदि हमने आज्ञापालन किया होता, तो हम अनन्त जीवन से आशीषित होते (3:22)। यदि हमने ऐसा नहीं किया, तो हम मृत्यु के भागी होंगे (2:17)।

दुख की बात है कि सर्प ने हव्वा के साथ कपट किया, हव्वा ने आदम को मनाया, दोनों ने वर्जित फल खाया, और मानवता वाटिका से निकाल दी गयी (अध्याय 3)। परमेश्वर ने स्वर्गदूतीय पहरेदारों को नियुक्त किया यह सुनिश्चित करने के लिए मानवता पुनः अन्दर न आ जाए (पद 24)।

निर्वासन का अभिशाप

मानवता के प्रथम निर्वासन ने हमें परमेश्वर की प्रत्यक्ष उपस्थिति से निकाल दिया और हमें और शेष सृष्टि को परमेश्वर के अभिशाप के अधीन कर दिया (रोमियों 8:20-22)। कार्य कठिन हो गया, प्रसव पीड़ादयक हो गया, और अन्ततः सभी की मृत्यु हो गयी  (उत्पत्ति 3:16-19)। हम आत्मिक रूप से मृत जन्मे थे (रोमियों 8:5-11), जिसने हमारे वाचा के दायित्वों को पूरा करने और विश्वास में परमेश्वर की ओर फिरने को असम्भव बना दिया था (7:14-25; गलातियों 5:17)। हम परमेश्वर के साथ टूटी संगति में (रोमियों 5:10; इफिसियों 2:1-3) और अपने जीवनसाथी, परिवारों, और पड़ोसियों के साथ विरोध में रहते थे। वे परिस्थितियाँ बनी हुई हैं। परमेश्वर के हस्तक्षेप के बिना, हम सर्वदा बस ऐसे ही हो सकते हैं।

सौभाग्य से, परमेश्वर ने हमें निर्वासन और अन्ततः मृत्यु से बचाने के लिए एक छुड़ानेवाले को भेजने की प्रतिज्ञा की (उत्पत्ति 3:15)। उसने अनुग्रह की वाचा स्थापित की (WCF 7.2), जिसके माध्यम से ख्रीष्ट आदम के पाप के अभिशाप और निर्वासन को उलट देता है (रोमियों 5:12-19)।

वाटिका से मानवता का निर्वासन वह कार्यक्रमात्मक बन गया जिस रीति से परमेश्वर ने मानवता के साथ अपनी वाचा को प्रशासित किया, कम से कम एक सामुदायिक स्तर पर। परमेश्वर हमें वाचाई नियम देता है। हम उन्हें बनाए रख सकते हैं और आशीषित हो सकते हैं या उन्हें तोड़ सकते हैं और अभिशापित हो सकते हैं। अभिशाप सम्भवतः मृत्यु जितना बुरा हो सकता है, परन्तु परमेश्वर बहुधा निर्वासन जैसी किसी बात को चुनता है। यदि हम विश्वास में उसकी ओर फिरें, वह हमें छुड़ाएगा। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो दण्ड बढ़ सकता है (लैव्यव्यवस्था  26; व्यवस्थाविवरण 28-31)।

अपने आप से, हम निर्वासन से बचने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते हैं, परमेश्वर की अशीषों को अर्जित करना तो दूर की बात है। इसलिए, ख्रीष्ट हमारे लिए यह करता है। यदि हम केवल विश्वास के द्वारा ही उसके साथ जुड़े हुए हैं, तो हमारे पास आदम के निर्वासन के पूर्ण पुनः स्थापन की प्रतिज्ञा है।

जलप्रलय

वाटिका से निर्वासित होने के पश्चात्, मानवता और अधिक दुष्टता पर आ गयी। परमेश्वर और पड़ोसी दोनो से घृणा करते हुए, हम झूठे आराधक और हत्यारे बन गए। पहला हत्यारा, कैन, अदन में परमेश्वर की उपस्थिति से निर्वासित कर दिया गया था (उत्पत्ति 4:6), और उसके वंशज जैसा वह था उससे भी अधिक बुरे थे। मानवता इतनी बुरी हो गयी थी कि परमेश्वर ने उस जलप्रलय में लगभग हम सबको नष्ट कर दिया था (अध्याय 6-9)। केवल नूह और उसका परिवार छोड़ दिए गए थे।

जलप्रलय नूह को अदन की सीमा के परे अरारात ले गया। इस भौगोलिक गतिविधि ने मानवता के अभिशाप को अधिक बढ़ा दिया, जो हमें परमेश्वर की अनुग्रह प्राप्त भूमि से अधिक दूर ले गया। फिर भी, परमेश्वर ने नूह के साथ अनुग्रह की वाचा की पुष्टि की (6:18; 9:9), यह इन्गित करते हुए कि नूह के माध्यम से, मानवता उसे पुनः प्राप्त करेगी जो न केवल जलप्रलय में परन्तु पतन में खो गया था ।

नूह की वाचा के अन्तर्गत, मानवता परमेश्वर की कृपा में पुनःस्थापित होना आरम्भ हो गयी। परिणामस्वरूप, हम भी पुनः अदन की ओर आने लगे। इस समय यह अत्यन्त भिन्न था, परन्तु यह अभी भी परमेश्वर के राज्य की आशा का प्रतिनिधित्व कर रहा था।

अब्राहम का अस्थायी निवास

अन्ततः, परमेश्वर ने अब्राहम को नयी जाति का पिता बनने के लिए चुना, जिसके माध्यम से परमेश्वर पृथ्वी के राज्य की अपनी योजना को पूरा करता (12:1-3, 17:4-8)। भौगोलिक दृष्टि से, वह अब्राहम को मेसोपोटामिया में अदन के सुदूर भागों में उसके केन्द्र की ओर ले गया।

अब्राहम का स्थानान्तरण परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों के कारण उत्पन्न हुआ उसके क्रोध और अभिशाप के कारण नहीं । फिर भी, इसमें उसके घर को छोड़ना सम्मिलित है बिना यह जाने कि वह कहाँ जा रहा है। इसके अतिरिक्त, जब अब्राहम कनान पहुँचा, तो देश में भयंकर अकाल पड़ा था (12:10)। इसलिए, वह अस्थायी रूप से अपने परिवार को मिस्र ले गया, और जब अकाल समाप्त हुआ तो फिर कनान चला गया।

इस समयावधि में, अब्राहम का जीवन आशीषित होने से दूर प्रतीत हो रहा था। उसकी पत्नी को फिरौन के रनिवास (Pharaoh’s harem) ले जाया गया था, उसके भतीजे का अपहरण हो गया था, और अब्राहम को अपने घराने को युद्ध में ले जाना पड़ा था (12-14)। यह सब परमेश्वर के उससे वाचा बान्धने से पूर्व का था। परमेश्वर ने उसे भूमिऔर वंशज के कई प्रस्ताव और आश्वासन दिए थे (12:1-3, 7; 13:14-17) और बाद में अब्राहम के निवेदन (15:8) पर उनकी पुष्टि की।

परमेश्वर ने अब्राहम से कनान देने की वाचा बाँधी, अनगिनत वंशजों के साथ। उन वंशजों के माध्यम से, वह अब्राहम के राज्य को संसार भर में विस्तारित करेगा (पद 1-21; 17:1-14; रोमियों 4:13)।

अब्राहम ने कभी इन प्रतिज्ञाओं को पूरा होते नहीं देखा (इब्रानियों 11:13)। जिस भूमि को देने की प्रतिज्ञा परमेश्वर ने उससे की थी  उसने एक परदेशी के रूप में उस पर जीवन व्यतीत किया और मर गया, केवल एक पुत्र (इसहाक) के साथ जिसके साथ परमेश्वर ने वाचाई प्रतिज्ञा को आगे बढ़ाया (उत्पत्ति 22:16-18)। परन्तु न तो अब्राहम और न ही पवित्रशास्त्र में उसके पश्चात् किसी ने विश्वास किया कि परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ विफल हुई हों। वे एक शक्तिशाली मानवीय राज्य से अधिक की अपेक्षा करते थे; उन्हें परमेश्वर के स्वर्गिक राज्य के पृथ्वी पर आने की अपेक्षा थी (इब्रानियों 11:16)।

निर्गमन

दो पीढ़ियों के पश्चात्, अब्राहम का परिवार सम्मानित अतिथियों के रूप में मिस्र पुनः चला गया, परमेश्वर की इस प्रतिज्ञा के साथ कि वे एक महान जाति के रूप में पुनः कनान वापस लौटेंगे (उत्पत्ति 46:3-4)। वे प्रतिज्ञा पूरी हुई थी, परन्तु परमेश्वर के इस्राएलियों को सदियों तक मिस्रियों द्वारा दास बनाए रखने की अनुमति देने के पश्चात् ही (निर्गमन 6:6; 12:40)।

परमेश्वर इस्राएल को कनान इसलिए नहीं लौटा लाया क्योंकि उन्होंने उसकी वाचा स्मरण की परन्तु इसलिए क्योंकि उसने ऐसा किया (2:23-25)। नूह और अब्राहम के समान, उनके लम्बे अवधि के दुख का कारण उनका स्वयं का पाप नहीं परन्तु अन्य लोगों की पापपूर्णता थी। फिर भी, परमेश्वर ने उनकी भलाई के लिए इसका उपयोग किया (रोमियों 8:28)। इस्राएल एक सामर्थी राष्ट्र बन गया और मिस्र की लूट के साथ उसे छोड़ दिया (निर्गमन 3:22)।    

कनान लौट आने के द्वारा, इस्राएल उस कदम को दोहरा रहा था जो अब्राहम ने लिया था। आदम के समान, उन्हें भी वाटिका से निकाल दिया गया था। आदम, नूह, और अब्राहम के समान, उन्हेंअदन लौटने की प्रतिज्ञा की गयी थी, जहाँ वे परमेश्वर के राज्य को पृथ्वी के छोर तक फैलाना आरम्भ करेंगे।

निर्गमन के समय इस्राएल परमेश्वर के प्रति अविश्वासयोग्य हो गया। इसलिए यद्यपि, उसने राष्ट्र को मिस्र छोड़ने की अनुमति दी थी, उसने उन्हें प्रतिज्ञा की गयी भूमि पर बहाल नहीं किया। इसके स्थान पर, वह उन्हें घुमावदार मार्ग से हो कर आगे बढ़ा कर उनके निर्वासन को तब तक बढ़ा दिया जब तक कि यहोशू और कालेब को छोड़कर, मिस्र को छोड़ने वाली सम्पूर्ण प्रथम पीढ़ी, जंगल में मर नहीं गयी (गिनती 14)।

 प्रथम राज्य

कनान में, परमेश्वर के दाऊद के साथ उस वाचा को बाँधने से पूर्व इस्राएल ने सदियों तक संघर्ष किया, जिसमें प्रतिज्ञा की गयी थी कि उसका एक पुत्र सदैव के लिए इस्राएल पर शासन करेगा ( 2 शमूएल 7; भजन 89)। फिर, दाऊद के पुत्र सुलैमान की अधीनता में इस्राएल अपने सामर्थ की ऊँचाईयों तक पहुँचा। इसकी सीमाएँ अदन के किनारों तक फैल गयीं और इसके लोग गिनती में असंख्य हो गए (1 राजा :20-21‌), जैसा कि परमेश्वर ने अब्राहम से प्रतिज्ञा की थी।

सुलैमान ने परमेश्वर के निवास-स्थान और सिंहासन कक्ष के रूप में मन्दिर का निर्माण किया (1 इतिहास 28:2; यशायाह 6:1), और स्वयं सुलैमान का सिंहासन परमेश्वर के सिंहासन का विस्तार था (1 इतिहास 28:5-6; 29:23)। तम्बू के समान, मन्दिर और उसकी साज सज्जा अदन की आकृति को दिखाती थी। दोनों संरचनाएँ बाहर से उस स्थान के होने के आत्मिक उद्देश्य को प्रतिबिम्बित करती थी जहाँ परमेश्वर वास करता है और अपने लोगों से मिलता है। परन्तु यहाँ भी, कुछ कमी थी। परमेश्वर अपने लोगों के साथ वैसे नहीं चलता था जैसा कि वह वाटिका में आदम के साथ चलता था।

बाद में, स्वयं सुलैमान भी अविश्वासयोग्य हो गया। इसलिए, उसके पुत्र रहूबियाम के दिनों में, राज्य दक्षिण में यहूदा और उत्तर में इस्राएल के मध्य विभाजित हो गया था (1 राजा 12:16-24)। अन्ततः, उत्तरी और दक्षिणी दोनों राज्यों को नए निर्वासन में ले जाया गया। जिस प्रकार से उन्होंने स्वयं को आत्मिक रूप से परमेश्वर से दूर कर लिया था, उसी प्रकार भौगोलिक रीतिसे वे यरुशलेम में उसके सिंहासन से हटा दिए गए थे।

अन्तिम राज्य

एज्रा और नहेमायाह के दिनों में राज्य को पुनःस्थापित करने का एक और प्रयास किया गया था, परन्तु वह लड़खड़ा गया क्योंकि लोग अविश्वासयोग्य थे। अन्ततः, परमेश्वर ने वह किया जिसके करने के लिए उसके लोग अयोग्य या अनिच्छुक थे। उसने अपने पुत्र को भेजा अपने लोगों को निर्वासन से निकालने और संसार भर में स्वर्ग के राज्य का निर्माण करने के लिए।       

तो अब हमारे पास क्या विकल्प हैं? क्या हम निर्वासन में जी रहे हैं, या हम पृथ्वी पर परमेश्वर के स्वर्गिक राज्य में जी रहे हैं? कुछ अर्थों में, दोनों ही है। जहाँ तक कि परमेश्वर का राज्य यहाँ आ चुका है, यह मुख्य रूप से आत्मिक है (लूका 17:20-21)। इसलिए, हम शारीरिक रूप से निर्वासित हैं, परन्तु आत्मिक रूप से निर्वासित नहीं हैं। हम शारीरिक संसार, भ्रष्ट शरीर, और पाप की उपस्थिति (रोमियों 7:14-25; गलातियों 5:17) से संघर्ष करते हैं। परन्तु आत्मिक रूप से, हम परमेश्वर के राज्य के नागरिक हैं, पवित्र आत्मा हम में वास करता है, और स्वर्गीय स्थानों में ख्रीष्ट के साथ विराजमान हैं (इफिसियों 2:4-7)।     

फिर भी, यीशु अभी तक स्वर्ग और पृथ्वी को नया करने के लिए लौटा नहीं है, और यह अदन की वाटिका नहीं है —या फिर, नया यरुशलेम। अनुग्रह की वाचा यह निश्चितता देती है कि जब परमेश्वर के राज्य की परिपूर्णता आएगी, हम फिर कभी दुख नहीं उठाएंगे (प्रकाशितवाक्य 21:4)। तब तक, यह मुख्य रूप से हमें आश्वासन देता है कि हम दुख उठाएंगे (2 तीमुथियुस 3:12)। यह हमारे जीवनों को बहुत सीमा तक अब्राहम के जीवन के समान बनाती है। विश्वास से जीते और चलते हैं, यह जानते हुए कि परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ तब भी सत्य हैं जब वे सत्य प्रतीत न हों।          

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया

रा मैकलॉघलिन
रा मैकलॉघलिन
रा मैकलॉघलिन थर्ड मिलेनियम मिनिस्ट्रीज़ में संचालन और वित्त के उपाध्यक्ष हैं।