
भेदसूचक साहित्य को कैसे पढ़ें?
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24 जून 2025यीशु जीवन की रोटी कैसे है?

– जोशुआ ओवेन
यूहन्ना 6:48 में, हम यीशु के सात “मैं हूँ” कथनों में से पहले कथन को सुनते हैं। इनमें से छह कथनों में एक विधेय कर्तावाचक सम्मिलित है (यह बताया जाता है कि यीशु क्या है)—रोटी (यूहन्ना 6:48), ज्योति (यूहन्ना 8:12; 9:5), द्वार (यूहन्ना 10:7, 9), अच्छा चरवाहा (यूहन्ना 10:11, 14), पुनरुत्थान और जीवन (यूहन्ना 11:25), मार्ग, सत्य और जीवन (यूहन्ना 14:6)—जो हमें यीशु के व्यक्ति और कार्य के विषय में बहुत कुछ बताता है। इनमें से एक कथन, यूहन्ना 8:58, में कोई विधेय कर्तावाचक नहीं है, परन्तु इसमें यीशु ईश्वरीय नाम, “मैं हूँ” का उपयोग करता है, जिसे परमेश्वर ने मूसा को उस समय प्रकट किया जब उसने परमेश्वर का नाम जानने की इच्छा की (निर्गमन 3:14)। यूहन्ना 8:58 में पूर्ण कथन, “इस से पहिले कि इब्राहीम उत्पन्न हुआ, मैं हूँ,” यह स्पष्ट करता है कि यीशु के प्रत्येक “मैं हूँ” कथन उसके ईश्वरत्व की पुष्टि है। क्योंकि यहूदी धार्मिक अगुवे यह नहीं मानते थे कि यीशु मसीहा था, इसलिए उन्होंने उसके इस कथन को ईशनिन्दा माना। इसलिए, “उन्होंने उसे पथराव करने के लिए पत्थर उठाए” (यूहन्ना 8:59)। उन्होंने यीशु द्वारा अपने ईश्वरीय स्वभाव के विषय में घोषणा को समझा, परन्तु उन्होंने उस पर विश्वास नहीं किया। जब हम “मैं हूँ” कथनों में से पहले कथन की जाँच करेंगे, तब हम देखेंगे की यह अविश्वास कोई छोटी बात नहीं है। यीशु के शब्द जीवन और मृत्यु के विषय हैं।
यीशु ने अपने अनुयायियों के साथ एक लम्बी वार्तालाप के समय कहा, “मैं जीवन की रोटी हूँ” (यूहन्ना 6:48)। यह प्रवचन पाँच हज़ार लोगों को पाँच रोटियों और दो मछलियों से लेकर खिलाने के तुरन्त बाद आया (यूहन्ना 6:5-14) और फसह और झोपड़ियों के पर्व से ठीक पहले हुआ (यूहन्ना 6:4)। दोनों घटनाएँ यह समझने के लिए हमें महत्वपूर्ण सन्दर्भ प्रदान करती हैं कि यीशु के जीवन की रोटी होने का क्या अर्थ है।
झोपड़ियों के पर्व पर, लोग उस देखभाल और संरक्षण का उत्सव मनाते थे जो परमेश्वर ने मिस्र में दासत्व से छुड़ाए जाने के बाद जंगल में इस्राएलियों के लिए दिखाई थी। जंगल एक सत्कारशील स्थान नहीं हो सकता। यह मानव जीवन को बनाए रखने के लिए आवश्यक संसाधनों के अभाव से पहचाना जाता था, जैसे कि भोजन, पानी, दिन में छाया और रात में प्रकाश। फिर भी, इस बंजर भूमि में उनकी यात्राओं के समय, समस्त पृथ्वी का प्रभु एक उदार परिचारक के रूप में सिद्ध हुआ, जिसने ख्रीष्ट यीशु में महिमा के अपने धन से उनकी सभी आवश्यकताओं को पूरा किया (फिलिप्पियों 4:19; 1 कुरिन्थियों 10:1-4 देखें)। प्रावधान का एक पहला आश्चर्यकर्म था परमेश्वर द्वारा उनकी दैनिक रोटी की आपूर्ति करना। जब लोगों ने पहली बार इस रोटी को देखा, तो वे नहीं जानते थे कि यह क्या है, इसलिए उन्होंने इसे मन्ना कहा। भजन 78:23-25 इस्राएलियों को जंगल में रोटी प्रदान करने में प्रभु की भलाई को स्मरण दिलाता है:
फिर भी उसने आकाश के बादलों को आज्ञा दी,
और स्वर्ग के द्वार खोले।
उसने उनके खाने के लिए मन्ना बरसाया,
और स्वर्ग से अन्न दिया।
मनुष्यों ने स्वर्गदूतों की रोटी खाईं;
उसने उनके लिए बहुतायत से भोजन भेजा।
यूहन्ना 6 में, यहूदियों ने माँग की कि यीशु मूसा के जैसे आश्चर्यकर्म करके स्वयं को प्रमाणित करें, जैसे मूसा ने यहूदियों के पूर्वजों को मन्ना दिया था। यीशु ने उनकी त्रुटि दिखाते हुए समझाया कि वह मूसा का आश्चचर्यक्रम नहीं था, वरन् उसके पिता का आश्चचर्यक्रम था जिसने यहूदियों को मन्ना दिया था। उसने आगे बताया कि वह स्वयं स्वर्ग से उतरी मन्ना या रोटी है जो उनके प्राणों को पोषण देगी। मन्ना परमेश्वर की ओर से एक उत्तम उपहार था जिसने प्रतिज्ञा किए गए देश में प्रवेश करने से पहले चालीस वर्षों तक इस्राएलियों के शरीर को पोषण दिया। परन्तु मन्ना खाने वाले मर गए। यीशु ने कहा, “जो मेरा माँस खाता और मेरा लहू पीता है, अनन्त जीवन उसका है” (यूहन्ना 6:54)।
जब यीशु ने पाँच हज़ार लोगों को खाना खिलाया, तो वह वही कर रहा था जो परमेश्वर ने मूसा के दिनों में किया था, जिससे कि यह दिखाया जा सके कि वह स्वयं ही उत्तम भोजन उपलब्ध कराने वाला प्रभु है, कोई और नहीं। परन्तु जब लोग पुनः उसे ढूँढ़ने आए, तो उसने उन्हें चेतावनी दी कि वे अनुचित इच्छा से प्रेरित हो रहे हैं। वे उस भोजन के लिए परिश्रम कर रहे थे जो नष्ट हो जाता है। इसके स्थान पर, उन्हें उस भोजन के लिए परिश्रम करना चाहिए जो अनन्त जीवन तक बना रहता है। तब यीशु ने उन्हें समझाया कि यीशु स्वयं ही जीवन की रोटी है।
रोटी की भाषा और यीशु का माँस खाने और उसका लहू पीने की भाषा स्पष्ट रूप से उसके मानवीय स्वभाव को दर्शाती है। यीशु पर विश्वास करना उसके मानवीय जीवन का बलिदान प्राप्त करना है। फिर भी, “मैं हूँ” कथन यीशु के ईश्वरीय स्वभाव की भी बात करते हैं। इसलिए यीशु को न केवल उसके बलिदान पर विश्वास के द्वारा प्राप्त किया जाता है, वरन् देहधारी परमेश्वर के रूप में उसके अविनाशी जीवन पर विश्वास के द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। भोजन करना उद्धारकारी विश्वास का वर्णन करने का एक उपयुक्त मार्ग है क्योंकि खाया गया भोजन जीवन को पोषण देने और स्वास्थ्य को शक्तिशाली करने के लिए शरीर के भीतर जाता है। परन्तु भोजन से भिन्न पर ख्रीष्ट का जीवन प्रेमपूर्ण कार्यों के द्वारा ना ही थकता है और ना ही समाप्त होता है। उसका अविनाशी जीवन सदा के लिए परमेश्वरोन्मुख जीवन को बनाए रखता है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।