यहूदी आराधना - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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यहूदी आराधना

एक ऐसे संसार में जो प्रायः प्रतिकूल है, परमेश्वर के लोगों के लिए अपनी पहचान बनाए रखने में आराधना एक महत्वपूर्ण रीति है। द्वितीय मन्दिर के युग (516 ई.पू–70 ईसवी) के अन्तिम भाग के यहूदियों के लिए, मन्दिर और वहाँ की जाने वाली आराधना की भूमिका प्राथमिक थी, जैसा कि प्राचीन इस्राएल में भी हुआ करता था। विशेषकर तितर-बितर रहने वाले यहूदियों के लिए (जो इस्राएल के बाहर रहते थे), पवित्रशास्त्र पर बल देने वाला स्थानीय आराधनालय अत्यधिक महत्वपूर्ण बनने लगा। आरम्भिक मसीही कलीसिया और आराधनालय के मध्य अनेक समानताओं को देखना कठिन नहीं है।

नए नियम के पाठक मन्दिर और आराधनालयों से परिचित हैं, विशेषकर यीशु और पौलुस की सेवाओं से। फिलो (Philo) और जोसीफस (Josephus) जैसे अन्य प्राचीन लेखक और पुरातत्व भी इन संस्थाओं का अध्ययन करने में सहायक हैं। 200 ईसवी के पश्चात्त मन्दिर और आराधनालय के अनेक विवरण अधिक संदिग्ध हैं, जैसे कि मिशनाह, जिसके विषय में कुछ विद्वान तर्क करते हैं कि वह रब्बियों की विधियों को बढ़ावा देने के लिए लिखा गया था।

मन्दिर
19 ई.पू. से आरम्भ करते हुए, हेरोदेस महान् ने मन्दिर को पुनःनिर्मित किया और सुन्दर बनाया और मन्दिर की पहाड़ी को इतना भव्य बनाया कि वह प्राचीन जगत का सबसे बड़ा ऊँचा स्थान बन गया। अयहूदियों को अनुमति थी कि वे बाहरी आँगन में जा सकते थे, जिसमें दुकान और मुद्रा परिवर्तक होते थे। यहूदी उस आँगन में प्रवेश कर सकते थे जो मन्दिर से सटा हुआ था और मन्दिर के आँगन के बाहरी भाग में भी। केवल याजक ही वेदी और मन्दिर में प्रवेश कर सकते थे।

मन्दिर की आराधना में प्रतिदिन के लिए, सब्त के लिए, नए चाँद, पर्वों के लिए और विभिन्न अवसरों के लिए निर्धारित संख्या में बलिदान होते थे। उदाहरण के लिए, हर भोर को और सन्ध्या को याजक मन्दिर के अन्दर धूप की वेदी पर धूप जलाते थे और मन्दिर के बाहर वेदी पर एक मेमने की होमबलि चढ़ाते थे। इस विधि में सम्भवतः लेवियों की गायक-मण्डली द्वारा गाए गए भजन, नरसिंगे के गीत, और आराधना और प्रार्थना के लिए एकत्रित लोगों के लिए एक याजकीय आशिष होते थे। बाद के रब्बियों के साहित्य के अनुसार, बलिदान चढ़ाने से पहले, आशिष बोलने, तोराह (पुराने नियम की व्यवस्था) के भाग पढ़ने, और तीन आशिष-वचन बोलने के लिए एक कक्ष में मिलते थे।

यहूदी लोग तीन तीर्थ पर्वों के लिए और आवश्यक बलिदानों के लिए मन्दिर की ओर यात्रा करते थे, जैसे कि बच्चे के जन्म के पश्चात् शुद्धिकरण के लिए। मन्दिर के पास आने के लिए उनको विधि के अनुसार शुद्ध होने की आवश्यकता थी, जिसके लिए सम्भवतः वे मन्दिर के पास स्थित वैधानिक स्नान के स्थानों (इब्रानी में मिकवाओट) में स्वयं को धोते थे। यदि वे बलिदान ले आ रहे होते, तो वे उस पर अपना हाथ रखकर उसे याजकों के पास प्रस्तुत करते, जो उसको वध करते और बलिदान के अनुसार उसके लहू को वेदी पर छिड़कते अथवा नीचे गिराते थे। पशु को तैयार करने के पश्चात, याजक उचित भागों को वेदी पर जलाते थे।

मन्दिर याजकों के नियन्त्रण में था, और याजकों में सदूकी प्रमुख थे, यद्यपि मन्दिर की क्रियाओं को फरीसी और एसेन (Essenes) जैसे अनेक समूह भी प्रभावित करना चाहते थे। याजकों और लेवियों को चौबीस दलों में बाँटा गया था, और प्रत्येक दल वर्ष में लगभग दो बार एक सप्ताह के लिए मन्दिर में अपने कार्य करने के लिए यरूशलेम आता था। बाद के रब्बियों के साहित्य के अनुसार, समान्य यहूदियों को भी दलों में बाँटा गया था, और कुछ सामान्य यहूदी भी याजकों और लेवियों के साथ एक सप्ताह के लिए मन्दिर के बलिदानों को देखने के लिए यरूशलेम आते थे। उन दिनों के लिए घर में रहने वाले लोग सप्ताह में सृष्टि के वर्णन को पढ़ने और उपवास रखने के लिए एकत्रित होते थे।

आराधनालय
आराधनालय के लिए अंग्रेज़ी शब्द सिनागॉग (synagogue) एक यूनानी शब्द से आता है, जिसका अर्थ “संग्रहण” है, और सप्तति (Septuagint, पुराने नियम का यूनानी अनुवाद) में इसका उपयोग इस्राएल की मण्डली कि लिए किया गया है। नए नियम और अन्य प्राचीन साहित्य में, भवनों को भी आराधनालय कहा गया है, यद्यपि उसमें भी मण्डली का विचार बना हुआ था। यहूदियों के लिए इन एकत्रित होने के स्थानों को, विशेषकर तितर-बितर क्षेत्रों के, प्रार्थना भवन और विद्यालय भी कहा जाता था। द्वितीय मन्दिर युग में इस्राएल में पाए जाने वाले आराधनालयों में एक मुख्य आयताकार सभागृह होता था, जिसमें सामान्यतः किनारों पर पत्थर की बेंच होती थी और बीच में खाली स्थान होता था, जहाँ बैठने के लिए सम्भवतः और स्थान था।

नए नियम के समय में, यहूदी सब्त के समय नियमित रीति से आराधनालय में एकत्रित होते थे। यह अस्पष्ट कि जनसंख्या में से कितने प्रतिशत लोग एकत्रित होते थे और यह भी कि क्या सभाओं में स्त्रियाँ और बच्चे सर्वदा उपस्थित होते थे। प्रमुख कार्य पन्चग्रन्थ (तोराह, पुराने नियम की पहली पाँच पुस्तकें) से पढ़ना था, सम्भवतः पहले इब्रानी में और उसके बाद अरामी में। उन क्षेत्रों मे जहाँ यूनानी बोली जाती थी, सम्भवतः यूनानी ही में सब कुछ पढ़ा जाता था। प्रायः नबियों की पुस्तक से भी एक पाठ पढ़ा जाता था। पढ़ने के बाद, प्रायः शिक्षा दी जाती थी, जैसा कि नए नियम में वर्णित किया गया है (लूका 4:16-30; प्रेरितों के काम 13:15-52)। पढ़ना और शिक्षा देने का कार्य कोई ऐसा जन करता जो समाज में प्रतिष्ठित था, जिनमें याजक भी होते थे। बाद के रब्बियों के साहित्य में वर्णन किया गया है कि एक निर्धारित पद्धति थी कि पन्चग्रन्थ के कौन से भाग पढ़े जाने थे और पाठ से पहले और पश्चात् कितनी प्रार्थनाएँ की जानी चाहिए और कितने आशिष वचन होने थे, परन्तु यह निश्चित नहीं है कि क्या नए नियम के समय में यह निर्धारित हो चुका था या नहीं।

आराधनालय में अधिकार का ढाँचा सम्भवतः क्षेत्र के अनुसार परिवर्तित होता था। एक पद जिसका प्रायः उल्लेख किया जाता है वह आराधनालय का शासक है, वह व्यक्ति एक ऐसा पुरुष रहा होगा जो समाज में प्रतिष्ठित था। कई शिलालेखों में आराधनालय का शासक वह व्यक्ति था जिसने आराधनालय का निर्माण किया था। एक शिलालेख में वर्णन है कि यह पद किसी याजकीय परिवार में पिता से पुत्र तक उत्तराधिकार में दिया जाता था।

व्यापक रूप में, आराधनालय के उद्गम के लिए विद्वान दो सम्भावनाओं को लेकर विवाद करते देते हैं। कुछ सोचते हैं कि यह एक नई संस्था थी जो किसी प्रकार की आपदा के समय में बनाई गई थी—जैसा कि जब बाबुल के निर्वासन के समय पहला मन्दिर नाश किया गया था। अन्य लोग पहले की सामुदायिक संस्थाओं के साथ निरन्तरता देखते हैं, जैसे कि प्राचीन इस्राएल में नगर के फाटक के पास लोगों का एकत्रित होना (रूत 4)। निस्सन्देह इन दो सम्भावनाओं को जोड़ने के कई उपाय हैं।

कई अर्थों में, यह विवाद द्वितीय मन्दिर के युग में आराधनालय के विषय में भिन्न विचारों के कारण है। क्या यह प्राथमिक रीति से एक आराधना केन्द्र था या एक सामुदायिक केन्द्र था? निस्सन्देह कई धार्मिक तत्व थे, और वे तत्व बाद के समय में और प्रबल होते गए, विशेषकर 70 ई.वी में मन्दिर के विनाश के पश्चात्। किन्तु आराधनालय न्याय और दण्ड, नगर के समारोह, यात्रियों के लिए निवास स्थान, सामुदायिक भोज, विद्यालय, और धन इकट्ठा करने का स्थान भी था। द्वितीय मन्दिर के युग में आराधनालय के इस मिश्रित स्वभाव को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

जोशुआ जे. वैन ई
जोशुआ जे. वैन ई
डॉ. जोशुआ जे. वैन ई, कैलिफॉर्निया के वेस्टमिन्स्टर सेमिनरी में इब्रानी के सहायक प्राध्यापक हैं।