यहूदी जगत का यूनानी-रोमी सन्दर्भ - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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यहूदी जगत का यूनानी-रोमी सन्दर्भ

नए नियम को पढ़ते समय क्या आपको कभी लगता है कि आप कुछ भूल रहे हैं? मैं उस अनुभव को कभी नहीं भूलूँगा जब मैंने पहली बार बाइबल को उत्पत्ति से लेकर प्रकाशितवाक्य तक पढ़ा। जब मैं सुसमाचारों में पहुँचा, तो तुरन्त ही मेरा सामना फरीसी और सदूकी जैसे धार्मिक और राजनीतिक समूहों से हुआ। पर वे कहाँ से आए? मुझे स्मरण नहीं है कि मैंने उनके विषय में पुराने नियम में पढ़ा था। हेरोदेस महान् को “यहूदियों का राजा” कहा जाता था, पर उसको वह उपाधि कैसे प्राप्त हुई? निस्सन्देह रोमी लोगों का राज्य चल रहा था, पर यह कैसे हो गया कि यहूदी राष्ट्र पर रोमियों का राज्य चल रहा हो? पुराने नियम में तो फारस का राजा कुस्रू उन पर शासन कर रहा था, और उसने लोगों को अनुमति दी थी कि वे अपने देश को लौटकर मन्दिर को पुनःनिर्मित करें। आखिर मलाकी और मत्ती के बीच के उस खाली पृष्ठ में क्या-क्या हो गया?

वही समय था जब मैंने यह समझा कि मुझे नए नियम की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक पृष्ठभूमि समझने की आवश्यकता है। इस लेख में मैं दिखाना चाहता हूँ कि कैसे खण्ड की पृष्ठभूमि उसकी अग्रभूमि को ज्योतिर्मय करती है, और कि जब यहूदियों के यूनानी-रोमी जगत को समझने की बात आती है, तो हमें छुटकारे के इतिहास के इस महत्वपूर्ण समय के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक सन्दर्भ को समझने की आवश्यकता है।

यूनानी-रोमी जगत का इतिहास

सिकन्दर महान् ने 332 ई.पू. में इस्राएल को अपने नियन्त्रण में लिया और उसने यहूदी राष्ट्र पर बलपूर्वक यूनानी जीवनशैली को लागू किया — उसने पवित्र देश को “यूनानीकृत” कर दिया। उसने यूनानी संस्कृति को फैलाया, यूनानी नगर स्थापित किए, यूनानी भवन बनाए, यूनानी मुद्रा का प्रवेश कराया, और यूनानी भाषा को फैलाया। यद्यपि सिकन्दर ने यूनानियों को अपने पूर्वजों की व्यवस्था के अनुसार जीने की अनुमति दी, यूनानी जीवनशैली विशेष यहूदी पहचान को बनाए रखने के लिए सबसे बड़ा खतरा बना।

कुछ यहूदियों को, विशेषकर नई पीढ़ी के यहूदियों को, अपनी पहचान में यह परिवर्तन अच्छा लगा। वे यूनानियों के जैसे टोपी पहनने लगे और मन्दिर में अपने कार्यों को शीघ्रता से करने लगे जिससे कि वे यूनानियों के समान ही निर्वस्त्र होकर यूनानी व्यायामशाला में व्यायाम कर सकें। कुछ लोगों ने तो अपने ख़तने के चिह्न को मिटाने के लिए शल्यचिकित्सा भी करवाया।

अन्य यहूदी हतोत्साहित थे और यहूदी नियन्त्रण से छूटना चाहते थे। 323 ई.पू. में सिकन्दर की मृत्यु के बाद, सेल्युकसी साम्राज्य ने यहूदियों को अपने अधीन कर दिया। किन्तु उस समय तक, विद्रोह की भावना जाग्रत हो चुकी थी। और 167 ई.पू. में अन्ततः इस विद्रोह की घटना घटी। सेल्युकसी राजा एंटिओकस चतुर्थ एपिफेन्स ने यहूदी पवित्रशास्त्र की लिपियों को नष्ट किया, ख़तना को निषेध किया, सब्त और पर्वों के मनाए जाने को निषेध किया, और उसने होमबलि की वेदी पर सुअर का बलिदान चढ़ाया। इस ईशनिन्दा के प्रतिउत्तर में, एक साहसी परिवार—अर्थात् मक्काबियों के परिवार ने, यहूदी विद्रोह आरम्भ किया।

मत्तियाह और उसके पुत्र एक ऐसे अत्याचारी शासन को कर देने से तंग आ गए थे जो उनके यहूदी धर्म को, अर्थात् उनकी पहचान को मिटाने का प्रयास कर रहा था। उसका बड़ा पुत्र, यहूदा मक्काबी, छापामार युद्ध का विशेषज्ञ था। उसने मूर्तियों की वेदियों को हटा दिया, बलपूर्वक बच्चों का ख़तना किया, और ऐसे यहूदियों को मार भी दिया जो प्रसन्नतापूर्वक यूनानीकृत (hellenized) होकर रह रहे थे। यहूदा और उसके दल ने आखिरकार यरूशलेम पर चढ़ाई की और एंटिओकस चतुर्थ एपिफेन्स द्वारा अशुद्ध किए गए मन्दिर को शुद्ध भी किया। यह 14 दिसम्बर 165 ई.पू. में हुआ था। इस घटना को स्मरण करने के लिए यहूदी पंचांग में एक नया त्यौहार जोड़ा गया: हनुक्काह (अर्थात् “समर्पण”; यूहन्ना 10:22 देखें)।

यहूदी लोग अब मक्काबी सम्राज्य के नियन्त्रण के अधीन थे (या उनके पूर्वज हशमोन के नाम पर उनको हसमोनी भी कहा जाता था)। परन्तु 142 ई.पू. में शमौन मक्काबी ने सम्पूर्ण यहूदी स्वतन्त्रता को स्थापित किया। और शमौन के पुत्र यूहन्ना हिर्कैनस के द्वारा, जो 135 से 104 ई.पू. तक यहूदी राष्ट्र का महायाजक और शासक था, किए गए विस्तार के कारण, यहूदियों ने उतनी ही भूमि को अपने अधिकार में कर लिया जो दाऊद और सुलैमान के समय में थी।

कई हसमोनी शासकों ने “राजा” और/या “महायाजक” की उपाधि ली, परन्तु उनके शासन में शान्ति नहीं थी। इसके विपरीत, उनका शासनकाल विश्वासघात, गुप्तघात, और राजनैतिक और धार्मिक भ्रष्टता से चिन्हित था। इस्राएल एक विभाजित देश था, जो “यूनानी-समर्थक” और “यूनानी-विरोधियों” में बट गया था। सदूकी प्रथम समूह के समर्थक थे, और फरीसी दूसरे समूह के समर्थक थे।

इस घरेलू संघर्ष के मध्य, रोमी सेनानायक पोम्पे महान् (Pompey the Great) ने 63 ई.पू. में इस्राएल को अपने नियन्त्रण में लिया। जिस प्रकार से इस्राएलियों को अश्शूरियों, बेबिलोनियों, मादी-फारसियों, यूनानियों, टॉलमियों, और सेल्युकसियों को कर देने के द्वारा अधीन होना पड़ा था, उनको अब रोमियों को कर देकर अधीन होना पड़ा। परन्तु पोम्पे ने यहूदा और इदुमिया पर महायाजक के रूप में राज्य करने के लिए एक हसमोनी शासक को नियुक्त किया, जिसका नाम हिर्कैनस द्वितीय था। और उसने यहूदियों को एक स्तर तक की स्वतन्त्रता भी दी। परन्तु हिर्कैनस द्वितीय केवल रोम का एक अधीन राजा था (या कहा जा सकता है कि वह एक कठपुतली राजा था)।

पोम्पे की हत्या के पश्चात्, जूलियस सीज़र ने 48 ई.पू. में शासन सम्भाला। उसके शासन के समय, यहूदियों ने उसकी कृपादृष्टि पाई। उसने कर के स्तर को घटाया और उन्हें बलपूर्वक सेना में भर्ती होने की माँग को हटाया। उसने दो हसमोनी शासकों को अधीन राजाओं के रूप में नियुक्त किया, जिसमें से एक को उसने यहूदा का अधिकारी (ऐन्टीपेटर), और दूसरे को “लोगों का शासक” (हिर्कैनस द्वितीय) नियुक्त किया।

44 ई. पू. में कैसियस और ब्रूटस के द्वारा सीज़र की हत्या के पश्चात, यहूदियों को अधिक कर देने पड़े। बाद मे, मार्क ऐन्टनी और ऑक्टेवियन ने रोम को नियन्त्रण में ले लिया। उन्होंने हेरोदेस को “यहूदियों का राजा” ठहराया। हेरोदेस, जो यूनानी संस्कृति का प्रशंसक था, अब औपचारिक रीति से रोमियों का मित्र और साथी था। (क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि मक्काबी परिवार को कितना बुरा लगता यदि वे जीवित होते?) एक कठपुतली राजा के रूप में वह रोम की इच्छा को पूरी करने के लिए बाध्य था। और उसके समान उसके वंशजों को भी ऐसा ही करना था: अर्थात् हेरोदेस अरखिलाउस (मत्ती 2:2), हेरोदेस फिलिप्पुस (लूका 3), हेरोदेस ऐन्टीपास (मरकुस 6; लूका 23:7 भी देखें), हेरोदेस अग्रिप्पा प्रथम (प्रेरितों के काम 12), और हेरोदेस अग्रिप्पा द्वितीय (प्रेरितों के काम 26) को।

प्रथम शताब्दी में शासन करने वाले कई रोमी सम्राटों ने इस्राएल के लिए राज्यपाल नियुक्त किए। यद्यपि अनेक राज्यपाल थे, किन्तु सबसे प्रसिद्ध रोमी राज्यपाल पुन्तुस पिलातुस था। बाइबल के बाहर के स्रोत उसके शासन को अत्याचारी के रूप में दर्शाते हैं, जिसकी पुष्टि लूका 13:1 में होती है।

अत्याचार का सबसे बड़ा कार्य रोमी-यहूदी युद्ध के अन्त में आया (66-70 ईसवी)। सम्राट वेस्पेसियन के पुत्र तीतुस ने येरूशलेम पर घेराबन्दी की थी। परन्तु नगर के भीतर की भुखमरी, महामारी, रोग, भूख, और हिंसा उस सबसे घृणित कार्य की तुलना में कुछ नहीं थे: जो कि 70 ईसवी में मन्दिर का विनाश था। इस घटना ने यहूदी पहचान, विश्वदर्शन, और धार्मिक विधियों को परिवर्तित कर दिया, जिसके परिणाम आज भी प्रकट होते हैं।

रोमियों की अधीनता में यहूदी जीवन

पहली शताब्दी में यहूदियों के प्रति कोई एक विशेष रोमी युक्ति नहीं थी। कुछ सम्राट दूसरों से अधिक दयालु थे, और उन्होंने यहूदी लोगों को अधिक मूलभूत सुविधाएँ दी, जैसे कि कर घटाना, बलपूर्वक सेना में भर्ती होने से छूट, और अपना धर्म मानने की स्वतन्त्रता। वास्तव में, यहूदीवाद को एक रेलिजियो लिसिटा (स्वीकृत धर्म) माना जाता था, भले ही यहूदी लोग एकेश्वरवादी थे जो अन्य धर्मों के प्रति असहनशील थे।

किन्तु बहुत सारे रोमी सम्राट यहूदियों के धार्मिक असहनशीलता से घृणा करते थे, विशेषकर जब रोमी ईश्वरों की आराधना की बात आती थी। इसके कारण यहूदी सन्देह, घृणा, और सताव के पात्र बने। और यहूदियों की गहरी इच्छा कि एक मसीहा आकर उन्हें “निर्वासन” से छुड़ाएगा रोमियों की दृष्टि में अच्छी नहीं थी, जैसे कि प्रेरितों के काम 5:36-37; 21:38 और यहूदी इतिहासकार जोसीफस (Josephus) के लेखों में कई उपद्रवों और विद्रोहों के विषय में वर्णन किया गया है। इन घटनाओं ने यहूदियों के प्रति सन्देह को बढ़ाया और उनकी राजनैतिक शक्ति को सीमित किया।

यहाँ तक सत्ता में बैठे यहूदी भी रोम के प्रति आभारी थे। वे प्रायः इस्राएल के परमेश्वर को प्रसन्न करने से अधिक कैसर को प्रसन्न करने के विषय में चिन्तित होते थे। वे अधीन राजाओं के समान ही थे, जो कैसर की इच्छा को पूर्ण करने के लिए रोम द्वारा बाध्य किए गए थे। उनमें से कई तो पूर्ण रीति से यूनानीकृत हो गए थे, जो कि अपने उन पूर्वजों के समान थे जिन्होंने सिकन्दर के यूनानीकरण की रणनीति को अपनाया था।

अन्ततः, यहूदी कभी भी पूर्ण रीति से केवल रोमी नियन्त्रण के अधीन नहीं थे। इतिहास को चलाने वाला, जो “समयों और युगों को बदलता है” और “राजाओं को हटाता और स्थापित करता है” (दानिय्येल 2:21), उसने अपने ईश्वरीय प्रावधान में होकर “समय पूरा” होने तक (गलातियों 4:4), जब सच्चे राजा का जन्म होगा तब तक उसने अपनी कलीसिया का मार्गदर्शन किया (मीका 5:2)।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

डेविड ई. ब्रियोनेस
डेविड ई. ब्रियोनेस
डॉ. डेविड ई. ब्रियोनेस फिलाडेल्फिया में वेस्टमिन्स्टर थियोलॉजिकल सेमिनरी में नए नियम में सहायक प्रध्यापक हैं और ऑर्थोडॉक्स प्रेस्बिटेरियन चर्च में शिक्षक एल्डर हैं। वे पौलुस की आर्थिक कूट-नीति: एक सामाजिक-ईश्वरविज्ञानीय प्रस्ताव (Paul’s Financial Policy: A Socio-Theological Approach)।