केवल विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराया जाना - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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केवल विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराया जाना

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का दूसरा अध्याय है: हम धर्मिसुधारवादी हैं

2017 में धर्मसुधार की पांच सौवीं वर्षगांठ का उत्सव बार-बार वापस आएगा केवल विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने के विषय पर, जो धर्मसुधार की सबसे महत्वपूर्ण पुनर्खोजों में से एक है। वह विषय इतना महत्वपूर्ण है कि एक अर्थ में हम उसका पर्याप्त अध्ययन नहीं कर सकते हैं। दूसरी ओर, मुझे आश्चर्य होता है कि हमें एक सिद्धान्त को समझने और उसे इतना महत्वपूर्ण मानने में इतनी कठिनाई क्यों होती है। क्या यह सिद्धान्त इतना जटिल है कि हम इसे स्मरण नहीं रख सकते? क्या बाइबल की शिक्षा इतनी अस्पष्ट है कि हम समझ नहीं सकते?

वास्तव में, बाइबल पूरी पीति से स्पष्ट है और यह सिद्धान्त अपेक्षाकृत सरल है। तो धर्मसुधार से पहले—और उसके पश्चात—कलीसिया में इतने सारे लोगों ने इससे क्यों चूक गए? कुछ प्रोटेस्टेंट बाइबल के विद्वान क्यों सुझाव देते हैं कि बाइबल स्पष्ट नहीं है अथवा कि मार्टिन लूथर और जॉन कैल्विन त्रुटिपूर्ण थे उस विषय में जिसे पौलुस सिखाता है? कुछ प्रोटेस्टेंट ईश्वरविज्ञानी इस सिद्धान्त से समझौता और/या इसे भ्रमित क्यों करते हैं? कुछ प्रोटेस्टेंट कलीसिया के अगुवों को धर्मी ठहराए जाने पर उनके विचारों और रोमी कैथोलिक कलीसिया के विचारों के मध्य कोई गम्भीर भिन्नता क्यों नहीं दिखाई देता है? अवश्य ही, इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए पुस्तकें लिखी गई हैं, परन्तु एक स्तर पर इसका उत्तर सरल है: विश्वास द्वारा धर्मी ठहराए जाने के धर्मसुधार के सिद्धान्त को अपनाने में विफलता एक आत्मिक समस्या है—एक बहुत ही गम्भीर आत्मिक विफलता। यह परमेश्वर, ख्रीष्ट, पाप, अनुग्रह, विश्वास, और परमेश्वर के साथ शान्ति पर बाइबल की शिक्षा को पूर्ण रीति से समझने में विफलता है। उन लोगों के लिए आत्मिक समस्या है जो धर्मसुधार के द्वारा प्राप्त किए गए धर्मी ठहराए जाने के बाइबलीय सिद्धान्त को अस्वीकार करते हैं, यह है कि वे परमेश्वर को सारी महिमा नहीं दे सकते। उन्हें अपने स्वयं के धर्मी ठहराए जाने के लिए योगदान देना होगा, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो। वे केवल ख्रीष्ट और केवल उसके अनुग्रह से ही सन्तुष्ट नहीं हैं।

मार्टिन लूथर को केवल एक आत्मिक संकट के पश्चात ही अपने जीवन में धर्मी ठहराया जाना समझ में आया। जॉन कैल्विन को यह बात अपने हृदय परिवर्तन के पश्चात समझ में आई। उन दोनों के लिए, बाइबल के अध्ययन ने उन्हें ख्रीष्ट के कार्य का विशेषता और उसकी दया और विवेक की शान्ति प्राप्त करने में विश्वास की भूमिका को दिखाया जिसका मसीही लोग आनन्द उठा सकते हैं।

लूथरन लोगों के लिए, ऑग्सबर्ग अंगीकार (1530), अनुच्छेद IV में सिद्धान्त को वाक्पटु अभिव्यक्ति की गई है: 

हमारे मध्य यह भी सिखाया जाता है कि हम अपने योग्यता, कार्यों, या संतुष्टि के द्वारा पापों की क्षमा और परमेश्वर के सामने धार्मिकता नहीं प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु यह कि हम अनुग्रह से पाप की क्षमा प्राप्त करते हैं और परमेश्वर के सामने धर्मी बनते हैं, ख्रीष्ट के लिए, विश्वास के द्वारा, जब हम विश्वास करते हैं कि ख्रीष्ट ने हमारे लिए दुख उठाया और उसके ही कारण हमारे पाप क्षमा किए गए और हमें धार्मिकता और अनन्त जीवन दिया जाता है। क्योंकि परमेश्वर इस विश्वास को धार्मिकता के रूप में गिनेगा और समझेगा, जैसा कि पौलुस रोमियों 3:21-26 और 4:5 में कहता है।

जॉन कैल्विन ने पच्चीस वर्ष के युवक के रूप में अपने मसीही धर्म के सिद्धान्त (Institutes of the Christian Religion) 1536 के प्रथम अध्याय में इस सिद्धान्त के विषय में स्पष्ट और भावपूर्वक लिखा:

ख्रीष्ट की धार्मिकता, जो केवल परमेश्वर की दृष्टि को सहन कर सकती है क्योंकि वह ही अकेले सिद्ध है, उसे हमारी ओर से न्यायालय में उपस्थित होना होगा, और न्याय में हमारे लिए जमानत के रूप से खड़े होना होगा। परमेश्वर से प्राप्त, यह धार्मिकता हमारे पास लाई जाती है और हम पर अभ्यारोपित की जाती है, जैसे कि यह हमारी हो। (1:32)

कैल्विन ने 1541 में अपने इंस्टीट्यूट्स का अत्याधिक विस्तृत किया और धर्मी ठहराए जाने के लिए एक पूरा अध्याय समर्पित किया। वहाँ उसने लिखा कि धर्मी ठहराया जाना

मसीही धर्म का प्रमुख लेख है, ताकि हर कोई इसे जानने के लिए अधिक से अधिक पीड़ाओं को उठा सके। क्योंकि यदि हम नहीं जानते कि परमेश्वर की हमारे प्रति इच्छा क्या है, तो हमारे पास कोई आधार नहीं है जिस पर हम अपना उद्धार स्थापित कर सकें या हमें परमेश्वर की भक्ति और भय में निर्माण कर सकें। (1:6)

हम यहाँ देखते हैं कि कैसे कैल्विन ने धर्मी ठहराए जाने के वस्तुपरक और व्यक्तिपरक दोनों पक्षों पर बल दिया। वस्तुपरक रीति से, हम वास्तव में ख्रीष्ट के कार्य के द्वारा परमेश्वर के साथ सही बना दिए गए हैं, जिसे पापी केवल विश्वास के द्वारा प्राप्त करता है। व्यक्तिपरक रीति से, जब हम धर्मी ठहराए जाने को समझते हैं, तो हम परमेश्वर के साथ शान्ति का अनुभव करते हैं और परमेश्वर के लिए जीने में बढ़ते हुए भरोसे का अनुभव करते हैं। निश्चित रूप से, यह सिद्धान्त मसीही विश्वास और जीवन के लिए पूर्णतया केन्द्रीय है।

धर्मसुधारकों ने धर्मी ठहराए जाने के इस सिद्धान्त को बाइबल में कई स्थानों पर पाया, परन्तु यह स्वीकार किया कि पौलुस ने रोमियों को लिखे गए अपने पत्र में इसे विशेष स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया। जबकि रोमियों के पत्र में गहन और कभी-कभी कठिन बातें पाई जाती हैं, पौलुस के सन्देश की मुख्य बात स्पष्ट और सीधी है। हम उसकी शिक्षा के मुख्य तत्वों पर प्रकाश डालते हुए इसकी सरलता को देख सकते हैं:

कोई धर्मी नहीं, एक भी नहीं। (3:10)

सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं। (3:23)

उसकी दृष्टि में कोई प्राणी व्यवस्था के कार्यों से धर्मी नहीं ठहरेगा। (3:20)

व्यवस्था से पृथक परमेश्वर की धार्मिकता प्रकट हुई है… परमेश्वर की वह धार्मिकता जो यीशु ख्रीष्ट में विश्वास के द्वारा सब विश्वास करने वालों के लिए है। (3:24-25)

अतः गर्व करना कहां रहा? वह तो रहा ही नहीं। (3:27)

अब उसे जो काम करता है मज़दूरी देना कृपा नहीं परन्तु अधिकार माना जाता है। परन्तु वह जो काम नहीं करता, वरन् उस पर विश्वास करता है जो भक्तिहीन को धर्मी ठहराता है, उसका विश्वास धार्मिकता गिना जाता है। (4:4-5)

इस कारण, प्रतिज्ञा अनुग्रह के अनुसार विश्वास से मिलती है जिससे कि वंशजों के लिए जो व्यवस्था वाले हैं, परन्तु उनके लिए भी जो इब्राहीम के समान विश्वास वाले हैं, जो हम सब का पिता है। (4:16)

फिर भी, परमेश्वर की प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में वह अविश्वास के कारण विचलित नहीं हुआ, परमेश्वर की महिमा करते हुए विश्वास में दृढ़ हुआ और पूर्णतः आश्वस्त होकर कि जो प्रतिज्ञा उसने की थी, वह उसे पूरा करने में भी समर्थ है। (4:20-21)

इसलिए विश्वास से धर्मी ठहराए जाकर परमेश्वर से हमारा मेल अपने प्रभु यीशु ख्रीष्ट के द्वारा है। उसी के द्वारा विश्वास से, उस अनुग्रह में हम स्थिर हैं, हमने प्रवेश पाया है, और परमेश्वर की महिमा की आशा में हम आनन्दित होते हैं। (5:1-2)

परमेश्वर अपने प्रेम को हमारे प्रति इस प्रकार प्रदर्शित करता है कि जब हम पापी ही थे ख्रीष्ट हमारे लिए मरा। (5:8)

यदि मनुष्य के अपराध के कारण अनेक मर गए, तब उस से कहीं अधिक परमेश्वर का अनुग्रह, तथा एक मनुष्य के, अर्थात् यीशु ख्रीष्ट के, अनुग्रह का दान बहुतों को प्रचुरता से मिला। (5:15)

पौलुस का धर्मी ठहराए जाने का सिद्धान्त स्पष्ट रूप से दिखाता है (1) कि सभी मनुष्य पापी हैं, और स्वयं को बचाने के लिए असहाय हैं; (2) कि केवल यीशु का सिद्ध कार्य ही पापियों को बचाता है; (3) कि केवल विश्वास—कार्य थोड़ा सा भी नहीं—यीशु के कार्य के बचाने वाले प्रभाव को प्राप्त करता है; (4) कि परमेश्वर ख्रीष्ट में धर्मी ठहराए जाने के लिए सारी महिमा प्राप्त करता है; (5) कि यह धर्मी ठहराया जाना विश्वासियों के हृदय और मन में शान्ति लाता है।

धर्मसुधार के हमारे उत्सव के मध्य में, हम महत्वपूर्ण और सरल मुख्य केन्द्रीय बात को न खोएं:  “ख्रीष्ट में परमेश्वर जगत का मेल-मिलाप अपने साथ कर रहा था. …उसी को उसने हमारे लिए पाप ठहराया कि हम उसमें परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएं” (2 कुरिन्थियों 5:19-21)। यह सन्देश वह सुसमाचार है जिसकी आवश्यकता सम्पूर्ण जगत को है। यह वह सन्देश है जिसकी आवश्यकता प्रत्येक कलीसिया और प्रत्येक मसीही हृदय को है। आइए हम इस वर्ष और प्रत्येक वर्ष इसे स्पष्टता और विश्वासयोग्यता के साथ सिखाएं।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डॉ. डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के एक सह शिक्षक हैं और कैलिफ़ोर्निया के वेस्टमिन्सटर सेमिनरी में ससम्मान सेवामुक्त अध्यक्ष और प्रोफेसर हैं। वह कलीसिया के इतिहास के सर्वेक्षण के छह-भाग लिग्निएर शिक्षण श्रृंखला के लिए विशेष रूप से शिक्षक हैं और कई पुस्तकों के लेखक, जिसमें सेविंग रिफॉर्मेशन भी सम्मिलित है।