सत्य को जानना - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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सत्य को जानना

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का चौवथा अध्याय है: सत्य

हम ज्ञान के खोने और पुन: प्राप्त करने के सम्बन्ध में सृष्टि, पतन, और पुनर्स्थापना के बाइबलीय वर्णन पर टिप्पणी करते हुए “सत्य को जानने” के विषय पर विचार करेंगे, यह ध्यान देते हुए कि रोमियों को लिखी गई अपनी पत्री के आरम्भिक अध्यायों में पौलुस मानव जाति की दुर्दशा के बारे में किस प्रकार लिखता है। यद्यपि यह पतित है, मानव जाति में परमेश्वर का स्वरूप बना हुआ है (उत्पत्ति 9:6; याकूब 3:9)। स्वरूप  शब्द जब उत्पत्ति में उपयोग किया गया केवल एक प्रशंसापूर्ण साहित्यिक साधन नहीं है परन्तु कुछ ऐसा है जिसमें गहरा महत्व है। हम अपने सृष्टिकर्ता के स्वरूप को उस क्षमता के द्वारा प्रकट करते हैं जिस में होकर हम परमेश्वर को जान सकते हैं जैसे वह हमें जानता है। परन्तु अपने अपरिवर्तनीय परमेश्वर से भिन्न, हम अविश्वास में गिर गए हैं।

जानने और इच्छा का स्वरूप बना रहता है, यद्यपि यह बिगड़ गया है। हमारे पास समझ और इच्छा के कार्य हैं, और बाइबल इसे विभिन्न रीतियों से प्रकट करती है। इनमें दो प्रमुख हैं: झूठे विश्वास बनाने की हमारी क्षमता और बुरे लक्ष्य रखने की हमारी क्षमता। बाइबल इन्हें आत्म-धोखे और हमारे विवेक पर पतन के प्रभाव के कार्य के परिणाम के रूप में देखती है। हम मूर्तियों का निर्माण करते हैं और हमारे पास दूषित विवेक हैं। हम किसी न किसी रूप में सृष्टि की आराधना करते हैं, न कि अपने सृष्टिकर्ता की। यह ज्ञान की हानि के रूप में पापमय होने का पौलुस का विषय है। पौलुस के लिए, ज्ञान की हानि तथ्यों के संग्रह को भूलने की बात नहीं है परन्तु ऐसे मस्तिष्क रखने की है, जो सब सीखी गई बातों को विकृत कर देता है। हम असंतुलित और विकृत हैं। मानवजाति के पास पहले परमेश्वर का ज्ञान था—“परमेश्वर के विषय में जो जाना जा सकता है वह स्पष्ट है….. क्योंकि परमेश्वर ने इसे प्रकट किया है” (रोमियो 1:19)—जिस सीमा तक कि परमेश्वर ने अपना ईश्वरीय स्वभाव, अपना सामर्थ्य, और स्वयं को और अधिक प्रकट किया है, जो हमारे गिरावट के होते हुए भी, बाद की पीढ़ियों तक उसके स्वभाव को देखने के बराबर है।

परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने के लिए हम उत्तरदायी है। हम बिगड़ते हैं, हम सीधे सोचना बंद कर देते हैं, हम अनुमान लगाते हैं, और हमारे हृदय अज्ञानता के बादल से घिरे हुए हैं, और परमेश्वर के स्वरूप में बनाया गया मनुष्य परमेश्वर के स्वरूप को जानवरों और यहाँ तक ​​कि स्वयं के रूप में बनाता है। परमेश्वर का आदर न करने या उसका धन्यवाद न देने से, मनुष्य अपने कार्यों में निष्फल हो जाता है और अपने हृदय में अंधकारमय हो जाता है (रोमियों 1:21)। वह “मनुष्यों, और पक्षियों, और पशुओं, और रेंगने वाले जन्तुओं के सदृश” प्रतिमा बनाता है (पद 23)। उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने के परिणामस्वरूप, मनुष्य ने धन्य सृष्टिकर्ता की आराधना करने के स्थान पर परमेश्वर को सृष्टि के कुछ आकृतियों की आराधना करने एवं स्वयं की आराधना में बदल देता है (पद 25)। यह वृत्ताकार चक्कर यौन अनैतिकता तक पहुँचता है (पद 24, 26, 28)। और हम आगे विभिन्न रीतियों से भ्रष्ट होते हैं जिसमें खराई का पतन सम्मिलित है। चाहे हम यहूदी हों या अन्यजाति, हमारे अन्धकारमय मन के दो मापदण्ड हैं। यद्यपि अन्यजाति, जिनके पास परमेश्वर की प्रकट व्यवस्था तक पहुँच नहीं है, चोरी को दोषी ठहरा सकते हैं, हम स्वयं चोरी करते हैं। यह इस बात को दिखाता है कि यह ज्ञान कुछ तथ्यों की स्वीकृति नहीं है, परन्तु परमेश्वर का ज्ञान हमारी इच्छा-शक्ति को सम्मिलित करता है। यह हृदय की स्थिति है जो बुरे कार्यों की ओर अगुवाई करता है। इस दुर्दशा में अन्यजातियों के दो मापदण्ड  हैं, जैसे कि यहूदियों के पास है (2:12–29)। सभी हृदय स्वयं को धोखा देने वाले हैं। यहूदी, परमेश्वर का विशेष प्रकाशन रखने के बाद भी, अविश्वासयोग्य हैं (पद 20-21)। पौलुस कठोरता से कहता है, “तू जो दूसरों को शिक्षा देता है, क्या स्वयं नहीं सीखता है?… तू जो व्यवस्था पर घमण्ड करता है, क्या व्यवस्था को उल्लंघन करके परमेश्वर का अनादर करता?” (पद 21, 23)।

यहाँ तक की यहूदी भी परमेश्वर के बचाने वाले अनुग्रह की आवश्यकता में उतने ही हैं जितने की गै़रयहूदी हैं। अविश्वासी यहूदियों की दुर्दशा उनके धोखे और पाखण्ड में वास करता है। एक प्रकार से परमेश्वर के अनुग्रह, जो अन्यजातियों के पास नहीं है, तक पहुँच रखते हुए भी, यहूदी पूरी रीति से भटक गए हैं। उस दुर्दशा के विभिन्न पहलू हैं। उदाहरण के लिए, आत्म-धोखा मनुष्य को परमेश्वर द्वारा नियुक्त मार्ग का अनुसरण करने के स्थान पर अन्य मार्गों पर जाने के लिए अगुवाई करता है। पौलुस कहता है कि हमारा प्राणी सम्बन्धी, निर्भर, कोमल स्वभाव हमें यह आभास कराता है कि हमारे पास एक सृष्टिकर्ता है और यह कि सृष्टि केवल एक बहुत बड़ी दुर्घटना नहीं है। हमारे विवेक में, हमारे पास एक प्रकार का आन्तरिक न्यायाधीश होता है जो इस बात की जाँच करता है, जो हम सोचते और करते हैं। परमेश्वर के स्वरूप को धारण करने वाले ये आवश्यक परिणाम हैं। सारी मानवजाति, यहूदी और गैरयहूदी, पाप के अधीन है, उसके बोझ को सहते हुए।

परन्तु पौलुस इस बिन्दु पर अपने ज्ञान के विषय को नहीं छोड़ता है। वह यीशु ख्रीष्ट का प्रेरित है। अच्छा समाचार यह है कि व्यवस्था से पृथक परमेश्वर की धार्मिकता प्रकट हुई है, यद्यपि व्यवस्था और नबी भी इसके विषय में साक्षी देते हैं। हमें क्या सीखने की आवश्यकता है? “परमेश्वर की वह धार्मिकता जो यीशु मसीह में विश्वास द्वारा सब विश्वास करने वालों के लिए है” प्राप्त करने का मार्ग  (3:22)। हमारे विकृत स्वार्थ से छुटकारे का एक मार्ग।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
पॉल हेल्म
पॉल हेल्म
डॉ. पॉल हेल्म लंदन के किंग्ज़ कॉलेज में इतिहास तथा धर्म के दर्शनशास्त्र के सेवामुक्त प्राध्यापक हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें परमेश्वर का प्रावधान (The Providence of God) और जॉन केल्विन के विचार (John Calvin’s Ideas) सम्मिलित हैं।