नौवीं आज्ञा और सत्य का परमेश्वर
7 अक्टूबर 2021सत्य को जानना
14 अक्टूबर 2021यीशु सत्य बताने वाला
सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का तीसरा अध्याय है: सत्य
लोकप्रिय यीशु दन्तकथाएं हमें भरोसा दिलाती हैं कि उसने कभी किसी का सामना नहीं किया, किसी को असहज अनुभव नहीं कराया, या किसी की जीवन शैली का न्याय नहीं किया। यीशु ने सभी से प्रेम किया, जिसका अर्थ बहुतों के लिए यह है कि उसने लोगों को वैसे ही स्वीकार किया जैसे वे हैं। वे कल्पना करते हैं, कि यीशु विविधता के समर्थक थे। यीशु एक संयुक्त किया हुआ समुदाय की स्थापना करने आए थे जिसमें सभी प्रकार के सभी लोगों का स्वीकार किया जाएगा और कोई भी, चाहे उनकी प्रवृत्ति कुछ भी हो, बाहर नहीं किये जाएंगे।
वास्तव में यीशु ने एक ऐसी कलीसिया की स्थापना की जिसमें वे सांसारिक श्रेणियाँ नहीं हैं जिनके आधार पर लोग संघर्षात्मक शिविरों में विभाजित हैं। वह एक नई मानवजाति का प्रधान है, “एक शरीर” के साथ “एक नया मनुष्य,” उनके साथ “शान्ति” स्थापित करते हुए “जो दूर थे और जो निकट थे” (इफिसियों 2:15-17)। क्या इसका अर्थ यह है कि यीशु की इच्छा थी कि धार्मिक और नैतिक श्रेणियाँ लुप्त हो जानी चाहिए? क्या प्रेम, जिसका अर्थ स्वीकरण और समावेशन माना जाता है, सत्य को नष्ट करता है? आइए कुछ उदाहरणों को देखें।
सामरी स्त्री कुएँ के पास उस जीवन के जल तक पहुँचने के लिए उत्सुक है जो यीशु देता है। फिर भी जब वह इसके लिए मांगती है, तो यीशु उसके पति सम्बन्धित असहज विषय को सामने लाता है, जबकि उसके पास पाँच पति हो चुके थे, उस पुरुष की गिनती न करते हुए जिसके साथ वह उस समय रह रही है (यूहन्ना 4:15-18)। आह। कठिन क्षण। कोई सोच सकता है कि यीशु द्वारा स्थिति को सम्भालने में कुशलता की कमी है। फिर भी क्योंकि उसके लिए यीशु के बचाने के कार्य से लाभ उठाना, शिष्य बनना, हम कह सकते हैं कलीसिया में जुड़ना, उसकी वर्तमान जीवन शैली को त्यागने पर निर्भर है, उसकी नैतिक जीवन के विषय में उसका सामना करना आवश्यक था। यीशु ने सुविधा से आधिक सत्य को प्राथमिकता दी।
यीशु व्यभिचार में पकड़ी गई स्त्री को पाखंडी भीड़ के क्रोध से बचाता है। वह उसको अपराधी ठहराने से मना करता है, परन्तु उसके बाद उससे कहता है कि “जाओ, और अब से पाप न करना” (8:11)। वह उसके विवाह से बाहर के मनमाने व्यवहार को पाप के रूप में पहचानता है और उसे रोक देने के लिए कहता है। वह उसके नैतिक चुनावों का अनदेखा नहीं करता है। वह विभिन्नता में उसके योगदान का स्वागत नहीं करता है। वह स्पष्ट रूप से उसे चेतावनी देता है कि उसके वर्तमान पथ पर बने रहना उसके प्राण के लिए विनाशकारी होगा। क्यों? क्योंकि यदि उसे बचना होगा तो उसे पश्चात्ताप करना होगा। सत्य ने उसकी भावनाओं से अधिक प्राथमिकता लिया।
धनी युवा अधिकारी यह सुनिश्चित करना चाहता है कि वह अनन्त जीवन का उत्तराधिकारी है। वह एक “भला पुरुष है।” उसकी अपनी साक्षी के अनुसार, उसने सब आज्ञाओं का पालन किया है। यीशु ने, हमें स्पष्ट रूप से बताया गया है, “उससे प्रेम किया।” फिर भी यीशु ने कहा, “तुझमें अब भी एक बात की कमी है: जा, जो कुछ तेरा है उसे बेचकर गरीबों में बांट दे और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा, और आकर मेरे पीछे चल”(मरकुस 10:21)। कठिन शब्द। अभूतपूर्व मांग। यीशु को लगा कि उस नवयुवक के हृदय में एक मूर्ति है और यदि उसे बचना है, तो उसे प्रकट करने की आवश्यकता है। क्या ऐसा करने से भावनाओं को ठेस पहुुँची? हाँ। क्या वह धनी युवा अधिकारी “दुखी” हो गया? हाँ। क्या यीशु की माँग ने उसे बाहर कर दिया? हाँ। “वह चला गया” (पद 22)। क्या यीशु ने प्रहार को हल्का किया? नहीं, उसने दोगुना बढ़ा दिया। उसने धनवानों के उद्धार की तुलना एक ऊँट के सुई के नाके से निकल जाने से की—मनुष्य के लिए असम्भव, केवल परमेश्वर के साथ सम्भव (पद 23-26)। सत्य ने सम्भावित अपराध पर प्रथम स्थान लिया।
इन तीन उदाहरणों के अतिरिक्त प्रमाण बताते हैं कि यीशु ने संवेदनशील आत्माओं के लिए एक आरामदायक वातावरण बनाने के बारे में चिन्ता करने में बहुत समय नहीं लगाया। उसने पाप का सामना किया। जब व्यवस्थापकों में से एक ने अभियोग किया कि यीशु फरीसियों का अपमान कर रहा है, तो यीशु ने और अधिक बढ़कर दोगुने रूप में कहा, “तुम व्यवस्थापकों पर भी हाय!” (लूका 11:45-52)। सत्य पर धीमें होने के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा था। जब दूसरों द्वारा सूचना पाकर कि उसकी शिक्षा “कठिन” थी, तो यीशु अपनी बात का बचाव करने वाला नहीं था। “क्या तुम्हें इससे ठोकर लगती है?” उसने पूछा (यूहन्ना 6:61)। उसने उन लोगों के विषय में कहा जो विश्वास नहीं करते हैं सरलता से कहा, “कोई भी मेरे पास नहीं आ सकता जब तक कि यह पिता की ओर से न हो” (पद 65)। इसका अर्थ यह नहीं है कि यीशु असंवेदनशील था या उसको दूसरों की निर्बलताओं में कोई रुचि नहीं थी। वास्तविकता पूर्णतया इसके विपरीत है। जब यीशु ने ऐसे लोगों की भीड़ को देखा जो भ्रमित थे और जिनको सिखाया नहीं गया था, तो उसने उन्हें “पीड़ित और असहाय, जैसे बिना चरवाहे की भेड़” के रूप में देखा (मत्ती 9:36)। उसे “उन पर तरस आया” और वह बीमारों को चंगा करने, और भूखों को भोजन कराने, और उन्हें बहुत सी बातें सिखाने लगा (15:32-39; मरकुस 8:2-10)। लाज़र के कब्र पर, यूहन्ना हमें बताता है कि यीशु “आत्मा में अत्यन्त व्याकुल और दुःखी हुआ,” कि “यीशु रोया,” लाज़र के रोते हुए परिजनों के साथ दुःखी होते हुए (यूहन्ना 11:33,35,38)।
यद्यपि यीशु करुणा से भरा हुआ था, सत्य प्राथमिकता थी। भावनाओं के प्रति उदासीन न होते हुए भी, वह दूसरों के साथ एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जुड़ता है जो जानता है कि केवल सुसमाचार का सत्य बचाता है। उसने सिखाया कि, सत्य “तुम्हें स्वतंत्र करेगा” (यूहन्ना 8:32)। यीशु का उद्देश्य “सत्य की गवाही देना” (18:37) था। नए नियम में छियासठ बार सुसमाचार को केवल “सत्य,” अर्थात एकमात्र सत्य के रूप में पहचाना गया है। चाहे दूसरों को यह सत्य कितना ही असुविधाजनक अनुभव कराए, चाहे अविश्वासियों के कानों को सत्य कितना ही अपमानजनक लगे, चाहे सत्य कितना भी असामयिक दिखे, यीशु ने सर्वदा सत्य कहा, और हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।