परमेश्वर के स्वरूप में मनुष्य - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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परमेश्वर के स्वरूप में मनुष्य

परमेश्वर की सृष्टि का सबसे उत्तम भाग अधिक समय के लिए गुप्त नहीं रखा गया है। आखिरकार, वह बाइबल के प्रथम अध्याय में पाया जाता है। फिर भी उस अध्याय में उसके आने तक समय लिया जाता है, जो परमेश्वर के कार्य को सन्दर्भ में रखता है जिससे कि जब वह आए तो हम सच में उसकी सराहना करें। परमेश्वर के स्वरूप धारण करने वालों का प्रकट होना विश्व के चित्रफलक पर अन्तिम और सर्वोत्तम चित्रकला है।

फिर परमेश्वर ने कहा, “हम मनुष्य को अपने स्वरूप में, अपनी समानता में बनाएँ।” . . .

और परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में सृजा।

अपने ही स्वरूप में परमेश्वर ने उसको सृजा।

उसने नर और नारी करके उनकी सृष्टि की। (उत्पत्ति 1:26-27)

परमेश्वर का वचन स्पष्ट रूप से और कलात्मक रूप से मनुष्य की सृष्टि की बात करता है। हम इन पदों को शाब्दिक और साहित्यिक रीति से पढ़ते हैं। यह अन्य खण्डों में भी सच होता है जहाँ पवित्र आत्मा इतिहास में परमेश्वर के अद्भुत कार्यों के विषय में बात करता है, और वह भी काव्यात्मक रीति से। उदाहरण के लिए, इस्राएल द्वारा लाल समुद्र पार करने के पश्चात्, मूसा ने उत्सव मनाने के लिए और परमेश्वर के लोगों के छुटकारे को स्मरण करने के लिए एक गीत लिखा। इसी रीति से, सृष्टि के अनोखे दिनों में, न केवल बाइबल क्या कहती है परन्तु बाइबल इस बात को कैसे कहती है हमें इस स्पष्ट निष्कर्ष की ओर ले जाती है: परमेश्वर द्वारा मनुष्य का बनाया जाना पूर्ण रीति से अद्वितीय है।

बाइबल इसे कैसे बताती है

सृष्टि की कहानी में जिस रीति से उत्पत्ति के पहले अध्याय को व्यवस्थित किया गया है, यह परमेश्वर के नए संसार में मनुष्य के विशेष स्थान की ओर संकेत करता है। जब हम पूरे अध्याय को समग्र रूप से देखते हैं, तो इसकी स्पष्ट विशेषताओं में से एक इसकी रूपरेखा है। सृष्टि को छः दिनों के ढाँचे में रखा गया है। प्रत्येक नया दिन उस आने वाले नए प्राणी की अपेक्षा की ओर बढ़ता है जो अपना उपयुक्त स्थान लेगा। जैसे-जैसे सृष्टि का कार्य और विशेष, विशिष्ट, और जटिल होता जाता है, गति बढ़ती जाती है। सब कुछ उत्साह के साथ सप्ताह के छठवें दिन की ओर बढ़ता है। जब आखिरकार छठवाँ दिन आता है (जो केवल तभी आता है जब परमेश्वर ने सारे पौधों को और पशुओं को उत्पन्न किया है), अब प्रस्तुत किए जाने के लिए एक ही प्राणी शेष है: मनुष्य, जो परमेश्वर के बोले गए वचन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। यदि पाठक इन पदों के विकास को समझने में विफल होता है, तो उत्पत्ति का दूसरा अध्याय पुनः मनुष्य की सृष्टि का वर्णन करता है और मानवजाति के विशेष स्थान, सौभाग्य, और बुलाहट को समझाता है।

उत्पत्ति 1 को ध्यान से देखते हुए, हम अवश्य ध्यान देते हैं कि कैसे परमेश्वर के कार्य का वृतान्त काव्यात्मक विशेषताओं से युक्त है। सृष्टि की कहानी में कुछ बातें बार-बार दोहराई जाती हैं

परमेश्वर ने कहा, “. . . हो”

और परमेश्वर ने देखा कि वह अच्छा है।

तब सन्ध्या हुई, फिर सवेरा हुआ। इस प्रकार . . . दिन हो गया।

ये वाक्यांश वृतान्त में एक लय को उत्पन्न करते हैं जिससे कि उसे सरलता से पढ़ा जा सकता है। यह बात कम से कम मनुष्य की सृष्टि तक सच है, जब वृतान्त अचानक अपने ढाँचे से हट जाता है। पहली बार परमेश्वर केवल बोलकर किसी वस्तु को अस्तित्व में नहीं लाता है। अब त्रिएक परमेश्वर के व्यक्ति एक दूसरे से बात करते हैं और सब जीवित प्राणियों के चर्मोत्कर्ष के विषय में एक विचारशील आत्मभाषण प्रस्तुत करते हैं। ईश्वरीय सभा इस बात पर मनन करती है कि सृष्टि में आने वाले इस नए प्राणी का क्या महत्व होगा। सृष्टि के किसी और पहलू के विषय में इस प्रकार की बात नहीं की जाती है।

किसी और के विषय में नहीं परन्तु केवल मनुष्य के विषय में उसके विशेष कर्तव्य की चर्चा की जाती है, जिसको सृष्टि का भण्डारीपन करना है और उस पर प्रभुता करना है।

“और सारी पृथ्वी और हर एक रेंगनेवाले जन्तु पर
जो पृथ्वी पर रेंगता है, प्रभुता करें”…“फूलो-फलो और
पृथ्वी में भर जाओ और उसे अपने वश में कर लो, और
पृथ्वी पर चलने-फिरने वाले प्रत्येक जीव-जन्तु पर अधिकार रखो।” (उत्पत्ति 1:26, 28)

स्त्री और पुरुष के पूरक लिंग होने के समान किसी भी अन्य जाति की विस्तार से चर्चा नहीं की गई है।

और परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में सृजा।

अपने ही स्वरूप में परमेश्वर ने उसको सृजा।

उसने नर और नारी करके उनकी सृष्टि की। (उत्पत्ति 1:26-27)

और मानव जाति के आने तक सृष्टि को “बहुत अच्छा” नहीं कहा जाता है (उत्पत्ति 1:31)। पहले सृष्टि “अच्छी” थी—जो कि उच्च प्रशंसा की बात है। अब इसकी सर्वोच्च प्रशंसा की जाती है।

किसी और प्राणी का इतना विस्तृत वर्णन नहीं किया जाता है क्योंकि और कोई प्राणी मनुष्य के तुल्य नहीं है। मानवता परमेश्वर का सबसे उत्कृष्ट कार्य है, और वह कहानी के ताल को रोक देता है जिससे कि हम सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी के प्रस्तुतिकरण को सराहें। स्थल की रूपरेखा और लिखने की रीति हमें यही बात दिखाती है। परन्तु स्थल इस बात को स्पष्टता से भी बताता है कि केवल मानवता ही परमेश्वर के स्वरूप में सृजी गई है।

बाइबल क्या कहती है

यदि बाइबल में मनुष्य की सृष्टि को प्रस्तुत करने की रीति शेष सृष्टि के तुलना में मनुष्य के महत्व की ओर संकेत करती है, तो बाइबल मनुष्य के विषय में जो कहती है वह उसके सृष्टिकर्ता के सम्बन्ध में उसके अद्वितीय सारत्तत्व (essence) की ओर संकेत करता है। शेष प्राणियों का स्थान उनके प्राणी जगत में पाया जाता है। मनुष्य का मूल स्थान परमेश्वर के सम्बन्ध में पाया जाता है। सम्पूर्ण सृष्टि में केवल मनुष्य ही है जो पृथ्वी और स्वर्ग को छूता है। उसका सारत्तत्व ही है कि वह वास्तव में स्वर्ग के परमेश्वर की समानता में बनाया गया है।

फिर परमेश्वर ने कहा, “हम मनुष्य को अपने स्वरूप में, अपनी समानता में बनाएँ।” . . .

और परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में सृजा।

अपने ही स्वरूप में परमेश्वर ने उसको सृजा।

उसने नर और नारी करके उनकी सृष्टि की। (उत्पत्ति 1:26-27)

बाइबल में सृष्टि के विषय में सबसे महत्वपूर्ण दृढक़थन यह है कि मनुष्य परमेश्वर का स्वरूप है। यह दिखाता है कि सृष्टि में मनुष्य की प्रधानता और उस पर उसकी प्रभुता इस बात से प्रवाहित होती है कि वह सारतात्विक रीति से परमेश्वर के स्वरूप को धारण करता है। यह मानवजाति की मूलभूत एकता की ओर संकेत करता है, जो मानवता के सम्पूरक (complementary) लिंगों पर लागू होती है: “हम मनुष्य को अपने स्वरूप में, अपनी समानता में बनाएँ।” . . . और परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में सृजा। अपने ही स्वरूप में परमेश्वर ने उसको सृजा। उसने नर और नारी करके उनकी सृष्टि की (उत्पत्ति 1:26-27)। परमेश्वर द्वारा अपने स्वरूप में “मनुष्य” की सृष्टि करना इस बात का समानान्तर है कि उसने “नर और नारी” करके उनकी सृष्टि की। इसमें दोनों समतुल्य हैं। नर और नारी दोनों सामान्य रूप से परमेश्वर के साथ संगति में हैं। दोनों सामान्य रूप से परमेश्वर की नैतिक इच्छा के विषय में ज्ञान प्राप्त करते हैं। दोनों सामान्य रूप से इस आदेश को पाते हैं कि उन्हें वाटिका रूपी मन्दिर की देखरेख और रक्षा करने के द्वारा पृथ्वी पर शासन करना है (उत्पत्ति 1:28)। हव्वा के बिना, “आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं” है (उत्पत्ति 2:18)। हव्वा आदम के लिए एक उपयुक्त साथी है, जो समानता के स्तर से—उसे समझती है, उससे संचार करती है।

मानवजाति की एकता इस तथ्य पर आधारित है कि मानवजाति का प्रत्येक सदस्य एक स्वरूप-धारक है। प्रत्येक जन जिससे हम मिलते हैं, भले ही वे किसी नस्ल (या नस्लों के मिश्रण) के हों, परमेश्वर की सर्वोत्तम हस्तकला को दर्शाते हैं। व्यक्ति को आदर प्राप्त करने और गरिमा के साथ व्यवहार किए जाने के लिए यह पर्याप्त है—भले ही उनका लिंग, नस्ल, या उम्र जो भी हो, या वे जन्मे या अजन्मे हों, मसीही हों या न हों। वे स्वरूप-धारक हैं। वे हमारे जैसे हैं। कितनी निरर्थक बात है कि हम परमेश्वर को धन्य कहें और अगले ही क्षण में किसी व्यक्ति को शाप दें जो कि “परमेश्वर की समानता में बनाया गया है” (याकूब 3:9)। मानव लहू को बहाना कितनी घिनौनी और बड़ी बात है, क्योंकि “परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया है” (उत्पत्ति 9:6)।

परमेश्वर के स्वरूप-धारक परमेश्वर की सृष्टि के सर्वोत्तम भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि किसी व्यक्ति ने ख्रीष्ट पर सृष्टिकर्ता, उद्धारकर्ता, और प्रभु मानकर विश्वास नहीं भी किया हो, फिर भी उसके साथ उसी गरिमा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए जो मानवजाति के प्रत्येक सदस्य के लिए उपयुक्त है। वह पतित अवश्य है, परन्तु वह अभी भी मनुष्य है। अविश्वासी में वह स्वरूप बहुत विकृत है। परन्तु वह उपचार की सम्भावना से बाहर नहीं है। पतित मनुष्य आदर्श मनुष्य से बहुत दूर है, परन्तु फिर भी वह मनुष्य ही है। यह मानवजाति की महानता और त्रासदी है। फ्रान्सिस शेफर (Francis Schaeffer) ने कहा था, “कोई भी छोटे लोग नहीं होते हैं।” सी. एस. लूईस ने कहा था, “कोई भी सामान्य लोग नहीं होते हैं।” हम ऐसे लोगों से प्रतिदिन मिलते हैं जिनके पास प्राण हैं, जो सृष्टि के अन्य प्राणियों में नहीं है।

भौतिक सृष्टि में स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य मनुष्य ही एकमात्र आत्मिक सामंजस्य है। यही बात हमारे सार के केन्द्र और हमारे जीवन के उद्देश्य से सम्बन्धित है। हम आत्मिक आनन्द, अनन्त शान्ति, और परमेश्वर के करुणामयी प्रेम जैसी वास्तविकताओं को अनुभव कर सकते हैं। परमेश्वर के स्वरूप-धारक होने के कारण, हम अपने सृष्टिकर्ता के साथ संगति रखने के लिए सृजे गए थे। हमारा सच्चा जीवन ऊपर की बातों में है, पृथ्वी की बातों में नहीं। हम विश्वास से अपनी दृष्टि उठाकर स्वर्ग में अपने सृष्टिकर्ता और छुटकारा देने वाले को देखते हैं और यीशु ख्रीष्ट में अपने जीवन को पाते हैं (कुलुस्सियों 3:1-4)। वह “मनुष्यों की समानता” में जन्मा और उसने वह सहा जिसे हम सह नहीं सकते जिससे कि वह प्राप्त किया जाए जिसे हम प्राप्त नहीं कर पाते (फिलिप्पियों 2:7)। यीशु के पुनरुत्थान के द्वारा, परमेश्वर ने हमें नए मनुष्यत्व में चलने के लिए जिलाया है जिससे कि हम में परमेश्वर के स्वरूप का नवीनीकरण हो (इफिसियों 4:14; कुलुस्सियों 3:10)। सदाकाल के लिए यह इस बात का सार है कि हम क्या हैं और हमें क्या होना चाहिए। यह सृष्टि की कहानी में पाया जाता है—बाइबल द्वारा इसके बताए जाने की रीति में भी और बाइबल द्वारा कही गई बात में भी। और यह सुसमाचार में पूरा होता है। हम इसके लिए बनाए हए थे। हमारा नवीनीकरण इसके लिए किया जा रहा है।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

ए. क्रेग ट्रॉक्सेल
ए. क्रेग ट्रॉक्सेल
डॉय ए. क्रेग ट्रॉक्सेल कैलिफॉर्निया के वेस्टमिन्स्टर सेमिनरी में व्यावहारिक ईश्वरविज्ञान के जी. डेन डल्क प्राध्यापक (Robert G. den Dulk Professor of Practical Theology) हैं। वे व्हाट इज़ मैन? और विथ ऑल योर हार्ट? नामक पुस्तकों के लेखक हैं।