मत्ती 7:1 - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
यिर्मयाह 29:11
31 मई 2022
मत्ती 18:20
7 जून 2022
यिर्मयाह 29:11
31 मई 2022
मत्ती 18:20
7 जून 2022

मत्ती 7:1

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का चौवथा अध्याय है: उस पद का अर्थ वास्तव में क्या है?

हमारे दिनों में कुछ ही स्थलों को मत्ती 7:1 से अधिक त्रुटिपूर्वक समझा गया है: “दोष न लगाओ जिससे तुम पर भी दोष न लगाया जाए।” यह वार्तालाप में प्रायः तब सामने आता है जब कोई किसी दूसरे व्यक्ति का नैतिक मूल्यांकन करने का साहस करता है जो कि सुनने वाले में क्रोध ले आता है। “आप कौन होते हैं दोष लगाने वाले?” प्रत्युत्तर आता है।

यीशु किस प्रकार के “दोष लगाने” की बात कर रहा है? जैसा कि सभी स्थितियों में होता है, यह समझने में कि यीशु क्या बात कर रहा है, सन्दर्भ को देखना एक बड़ी सहायता होगा। यह पद पहाड़ी उपदेश में है, जो सच्ची धार्मिकता की तुलना में सतही धर्म की प्रकृति का प्रदर्शन करता है। इस पद में, यीशु दोहरे मानकों के पाखण्ड के विषय में चिन्तित है। उसकी बात का प्रमाण उस उदाहरण में है जो पद 3-5 में आता है:

तू क्यों अपने भाई की आंख के तिनके को देखता है, और अपनी आंख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? अथवा तू अपने भाई से कैसे कह सकता है, ‘ला, मैं तेरी आंख से तिनका निकाल दूँ’, जबकि देख, लट्ठा तो स्वयं तेरी आंख में है? हे पाखण्डी, पहिले अपनी आंख का लट्ठा निकाल ले, तब अपने भाई की आंख का तिनका निकालने के लिए तू स्पष्ट देख सकेगा। 

यूनानी स्थल में भाषा और भी अधिक सुस्पष्ट है, जिसमें “लट्ठा” उस बड़े डण्डे के समान है जो कि एक भवन में कड़ी के रूप में उपयोग होता है। ऐसा चित्रण सुनने वालों के हंसी ले आया होगा कि जिस व्यक्ति की स्वयं की आँख में बड़ी लकड़ी है, वह दूसरे व्यक्ति की आँख से तिनका निकालने का प्रयास कर रहा है। इसलिए, पाखण्डी वह है जो स्वयं वैसा ही व्यवहार करता है, या उससे भी बुरा व्यवहार करता है, और फिर भी दूसरे की निन्दा करता है। यीशु के कुछ श्रोता शास्त्री और फरीसी थे, जो इस प्रकार के पाखण्ड के विशेषज्ञ थे। वे दूसरों की निन्दा करने के लिए आतुर रहते थे जबकि स्वयं भी वही करते थे। यह अनुचित प्रकार का दोष लगाना है।

परन्तु क्या कभी ऐसा समय आता है जब लोग “दोष लगाने” या दूसरे व्यक्ति का नैतिक मूल्यांकन करने में सही हो सकते हैं? अवश्य ही। वास्तव में, पवित्रशास्त्र ऐसा करने की हमसे अपेक्षा करता है:

अन्यत्र, यीशु कहता है, “मुँह देखा न्याय मत करो, परन्तु धार्मिकता से न्याय करो”(यूहन्ना 7:24)। यह “धार्मिकता से न्याय” कैसा दिखता है? थोड़े ही बाद में मत्ती के सुसमाचार में, यीशु सिखाता है कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से बात करनी चाहिए जिसने उसके विरुद्ध पाप किया हो (मत्ती 8:15)। इस खण्ड में कई महत्वपूर्ण बिन्दु हैं जो हमें “धार्मिकता से न्याय” करने के विषय में सिखाते हैं।

पहला, मूल्यांकन परमेश्वर के मापदण्ड पर आधारित होना चाहिए, न कि व्यक्तिगत प्राथमिकताओं पर। “पाप” कहलाने के लिए, यह परमेश्वर के वचन का उल्लंघन होना चाहिए। यहाँ “दोष लगाने” के लिए आधुनिक आपत्तियों में से एक है। लोग मापदण्ड पर असहमत होते हैं। वही लोग जो “अपनी सच्चाई” के अनुसार जीवन जीते हैं, वे एक सदा-चलित स्थितिपरक मापदण्ड के अनुसार जी रहे हैं जो उनके व्यवहार को प्रतिबिम्बित और स्वीकृति देने के लिए होता है। “यदि मैं सोचता या आभास करता हूँ कि यह सही है, तो यह सही होना चाहिए”, वे तर्क देते हैं। परन्तु नैतिकता के वास्तविक स्तर हैं। सही और त्रुटि का मापदण्ड है, और यह बाइबल में निहित है।

दूसरा, दूसरे व्यक्ति का सामना करने की उचित प्रेरणा सर्वदा दोषी की पुनःस्थापना होनी चाहिए। दूसरे व्यक्ति का उसके पाप के विषय में सामना करने का कारण उसे सहमत कराना है, उसे नीचा दिखाना, उसकी निन्दा करना, या स्वयं को उससे श्रेष्ठ अनुभव कराना नहीं है। इसी बात पर शास्त्री और फरीसी (और कभी-कभी हम भी) अपेक्षा अनुरूप नहीं होते। यही गतिशीलता गलातियों 6:1 में देखी जा सकती है। पौलुस लिखता है: “हे भाइयों, यदि कोई मनुष्य किसी अपराध में पकड़ा भी जाए तो तुम जो आत्मिक हो नम्रतापूर्वक उसे सम्भालो (पुनःस्थापना करो), परन्तु सतर्क रहो कि कहीं तुम भी परीक्षा में न पड़ जाओ।” यहाँ पुनः हम “किसी अपराध” के उद्धरण को देखते हैं, जो कि परमेश्वर के मापदण्ड के उल्लंघन की ओर इंगित करता है। हम यह भी देखते हैं कि लक्ष्य भाई या बहन की पुनःस्थापना है। हमें सदैव भटकने वालों की भलाई के प्रति चिन्तित रहना चाहिए। एक दूसरा तत्व हम गलातियों के उद्धरण में देखते हैं वह है दूसरे व्यक्ति को सुधारने में व्यक्ति के व्यवहार महत्वपूर्ण है। पौलुस लिखता है कि अपराधी की “नम्रतापूर्वक” पुनःस्थापना होनी चाहिए। यह एक नम्रता को व्यक्त करता है जो कि दूसरे पापी का सामना करते हुए एक पापी की विशेषता होनी चाहिए। हमें भी स्मरण कराया गया है कि “सतर्क रहो कि कहीं तुम भी परीक्षा में न पड़ जाओ।” यह व्यवहार उन स्व-धर्मी लोगों से बिल्कुल भिन्न है जो दूसरों की निन्दा के लिए आतुर रहते हैं परन्तु स्वयं को ऊँचा करते हैं।

यह अन्तिम अवलोकन की ओर ले जाता है कि हमें सबकुछ परिदृश्य में रखना चाहिए, यह स्मरण रखते हुए कि परमेश्वर अन्तिम न्यायी है, और उसी के प्रति हम सब जवाबदेह हैं। यीशु ने कहा: “दोष न लगाओ जिससे तुम पर भी दोष न लगाया जाए, क्योंकि जिस प्रकार तुम दोष लगाते हो उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जाएगा। और जिस नाप से तुम नापते हो, उसी नाप से तुम्हारे लिए भी नापा जाएगा”(मत्ती 7:1-2)। यह अन्तिम अवलोकन पहले वालों का समर्थन करता है। स्मरण रखें कि परमेश्वर वह न्यायी है जो हमें स्मरण कराता है कि उसका वचन धर्मी ठहराने का मापदण्ड होना चाहिए। इसका परिणाम नम्रता में भी होना चाहिए, जो हमें यह पहचानने देता है कि हम में से प्रत्येक के हृदय में पाखण्ड अभी प्रचुरता में शेष है।        

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया
टिमोथी ज़ेड. विट्मर
टिमोथी ज़ेड. विट्मर
टिमोथी ज़ेड. विट्मर ने न्यू हॉलैण्ड, पिन्सिल्वेनिया में, सेन्ट स्टीफन रिफॉर्म्ड चर्च के पास्टर के रूप में सेवा की, और वे वेस्टमिन्स्टर थियोलॉजिकल सेमिनेरी में व्यावहारिक ईश्वरविज्ञान के सेवामुक्त प्राध्यापक हैं। वे माइन्डस्केप (Mindscape) पुस्तक के लेखक हैं।