यहूदियों के मसीहा की स्वीकृति - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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यहूदियों के मसीहा की स्वीकृति

कलीसिया के आरम्भिक वर्षों में यहूदियों ने यीशु को कैसे स्वीकार किया या अस्वीकार किया? 70 ईसवी में यरूशलेम के मन्दिर के दुःखद विनाश के प्रति यहूदी लोगों की क्या प्रतिक्रिया रही? उस घटना ने उसके बाद के दशकों में उनकी पहचान को कैसे प्रभावित किया?

आरम्भिक कलीसिया में यहूदियों का विश्वास
नवजात कलीसिया में यीशु पर यहूदियों के विश्वास को अनदेखा करना या उसके महत्व को कम आँकना एक सामान्य किन्तु दुःखद प्रवृत्ति है। यीशु स्वयं, जो नासरत का एक यहूदी था, यहूदा गोत्र के वंश से था (मत्ती 1:1-17; लूका 3:23-38; रोमियों 1:3)। बारह शिष्य भी यहूदी थे। यहाँ तक यीशु के सेवाकाल में की गई उसकी यात्राएँ भी यहूदी लोगों पर केन्द्रित थीं। चारों सुसमाचार यीशु को प्राथमिक रीति से यहूदियों को सन्देश देते हुए प्रस्तुत करते हैं। यहाँ तक कि यीशु ने स्पष्ट रीति से अपने शिष्यों से कहा: “अयहूदियों के पास न जाना, और न सामरियों के किसी नगर में प्रवेश करना। इसकी अपेक्षा इस्राएल के घराने की खोई भेड़ों के पास जाना” (मत्ती 10:5-6)। प्रेरितों के काम की पुस्तक यरूशलेम के यहूदियों में से कुछ लोगों के उद्धार और उसके बाद अयहूदियों के उद्धार का वर्णन करती है। प्रेरित पौलुस कहता है कि उद्धार “पहले यहूदी” के लिए है (रोमियों 1:16)। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अयहूदी लोग द्वितीय वर्ग के नागरिक हैं, क्योंकि यहूदी और अयहूदी दोनों सच्चे इस्राएल का निर्माण करते हैं और पुराने नियम में पाई जाने वाली अन्त के समय में पुनःस्थापना की प्रतिज्ञा को पूरी करते हैं (उदाहरण के लिए इफिसियों 3:1-13; 1 पतरस 2:9-11)।

पहली और दूसरी शताब्दियों में यहूदियों का अविश्वास
आरम्भ से ही, अधिकाँश यहूदी लोग यीशु के प्रति विरोधी बने रहे। “वह अपनों के पास आया और उसके अपनों ने उसे ग्रहण नहीं किया” (यूहन्ना 1:11)। उस पर विश्वास करने की उनकी विफलता कई कारणों से हुई: पुराने नियम को त्रुटिपूर्वक पढ़ना (लूका 24:25-27; यूहन्ना 5:38-47); मूर्तिपूजा, अर्थात् परमेश्वर के स्थान पर मानव परम्परा की आराधना (मरकुस 4:10-12; 7:13; यूहन्ना 12:37-42); और उनके द्वारा धर्मी नबियों का निरन्तर सताव (मरकुस 12:1-12)। क्योंकि इस्राएल देश ने अपने मसीहा को क्रूस पर चढ़ा दिया था, परमेश्वर ने 70 ईसवी में यरूशलेम के मन्दिर के विनाश में निर्णायक रूप से उन पर अपना प्रकोप उण्डेला।

मन्दिर का विनाश
मन्दिर का विनाश, जिसकी भविष्यद्वाणी यीशु ने की थी (मरकुस 13:24-31), 70 ईसवी में हुआ। यरूशलेम का ध्वस्त होना और इस्राएल के केन्द्र का विनाश अचानक ही नहीं हो गया। प्रथम यहूदी विद्रोह 66-70 ईसवी में हुआ और यरूशलेम के विनाश के साथ उसका अन्त हुआ। 66 ईसवी के पतझड़ में रोम के प्रतिनिधि फ्लोरस (Florus) ने मन्दिर से सोना जब्त कर लिया, जिससे यहूदियों के साथ द्वन्द्व बढ़ गया। यरूशलेम के मसीही सम्भवतः उत्तर की ओर पेल्ला (Pella) भाग गए, जो दक्षिण गलील से बीस मील दूर एक नगर था। अगले कुछ वर्षों के लिए यहूदी लोगों के साथ रोम का सम्बन्ध बिगड़ता गया। 69 ईसवी के ग्रीष्मकाल में, वेस्पेसियन (Vespasian) रोम का सम्राट बना, और उसने अपने पुत्र तीतुस (Titus) को नियुक्त किया कि वह यरूशलेम पर चढ़ाई करने हेतु रोमी सेना का नेतृत्व करे। एक वर्ष बाद, तीतुस ने यरूशलेम की एक दीवार को भेद दिया, और 70 ईसवी के अगस्त में यरूशलेम नगर का पतन हो गया। रोमी सैनिकों ने नगर को लूटा, मन्दिर को अशुद्ध किया, हज़ारों यहूदियों को घात किया, और कई लोगों को रोम निर्वासित कर दिया।

रब्बियों के यहूदीवाद (RABBINIC JUDAISM) की उत्पत्ति
मन्दिर के पतन ने यहूदी संस्कृति और नेतृत्व को बड़े रूप में प्रभावित किया। यहूदी सभा (Sanhedrin) जो यरूशलेम की सबसे शक्तिशाली शासन करने वाली सभा थी, अपने आप बन्द हो गयी। एक को छोड़कर यहूदीवाद के सब समूहों का अस्तित्व समाप्त हो गया — अर्थात् फरीसी, सदूकी, एसेन (Essenes), जोलोतेस (Zealots), और हेरोदी। केवल फरीसी खड़े रहे। ईश्वरविज्ञानी डेविड इन्स्टोन-ब्रुअर (David Instone-Brewer) स्थिति को अच्छी रीति से सारांशित करते हैं: “सदूकियों ने अपने कार्य केन्द्र [मन्दिर] को खो दिया, एसेनियों ने अपने विद्रोह का कारण खो दिया, और फरीसियों द्वारा घर, आराधनालय, और पाठशाला में मन्दिर की क्रियाओं को दोहराने के प्रयास यहूदी विधियों को व्यक्त करने का एकमात्र साधन बन गया।” मन्दिर के विनाश ने इस्राएल को उनके पवित्रशास्त्रों पर मनन करने के लिए प्रोत्साहित किया। प्रेरितों से भिन्न, जो ख्रीष्ट के जीवन, मृत्यु, और पुनरुत्थान को पवित्रशास्त्र के केन्द्र बिन्दु के रूप में देखते थे, इन यहूदी व्याख्या करने वालों ने इस्राएल राष्ट्र को केन्द्र के रूप में देखा।

यहूदी परम्परा के कुछ मतों के अनुसार, रब्बी योहानन बेन ज़क्कई (Rabbi Yohanan ben Zakkai) को, जो यहूदी व्यवस्था के हिलेल मत का एक अगुवा था, यरूशलेम के विनाश से पहले एक शवपेटी में रखकर यरूशलेम से बाहर निकाला गया था। वह फिर जाकर वेस्पेसियन से मिला और उसने भविष्यद्वाणी की कि वह शीघ्र ही रोम का सम्राट बनेगा। इसके बदले में, वेस्पेसियन ने उसे अनुमति दी कि वह इस्राएल के भूमध्य सागर के तट पर स्थित यावनेह या जाम्निया में एक पाठशाला स्थापित करे। यहाँ एक नये प्रकार का यहूदीवाद फलने लगा। हिलेलवादी यावनेह में एक एकत्रित हुए, और उनके रब्बी अनुयायियों ने बड़ी मात्रा में साहित्य को उत्पन्न किया।

रब्बियों के साहित्य में मुख्यतः दो शैली पाई जाती हैं: हालाखिक (वैधानिक) और अग्गाडिक (अवैधानिक)। हालाखिक सामग्री में, मिश्नाह (Mishnah) और टोसेफ्टा (Tosefta) का प्रमुख स्थान है। मिश्नाह, जिसे आखिरकार 200 ईसवी में संग्रहित किया गया, दोनों में से पहला है और इसमें छः विषयों के अन्तर्गत यहूदी विवाद और निर्णय पाए जाते हैं। हर विषय के कई उपभाग पाए जाते हैं, जिसका योग तिरसठ है। मिश्नाह की मौखिक परम्परा सम्भवतः प्रथम शताब्दी के आरम्भ से चली आ रही थी, और कुछ विवाद तो सुसमाचारों में भी प्रकट होते हैं (उदाहरण के लिए मत्ती 19:1-12)। दो तालमूद (Talmuds), अर्थात् बेबीलोनी और यरूशलेम के—जिनको लगभह 400-600 ईसवी में संग्रहित किया गया था—मिश्नाह के छः भागों पर टिप्पणी करते हैं और समझाते हैं। यह स्पष्टीकरण, जिसे गेमारा (gemara) कहा जाता है, पवित्रशास्त्र और व्यक्तिगत रब्बियों की कहानियों पर आधारित हैं। अन्य रब्बियों की सामग्रियों में मिड्राशीम (midrashim) और तर्गुमिम (targumim) सम्मिलित हैं।

यहूतियों का द्वितीय विद्रोह
जबकि विद्वान बार कोखबा (Bar Kokhba) विद्रोह (132-135 ईसवी) के सटीक कारण को लेकर सन्देह में हैं, कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि इसे रोम ने भड़काया था। शिमोन बेन कोसिबा (Simon ben Kosiba) (जिसे उसके चाहने वाले बार कोखबा या “सितारे का पुत्र” कहते थे; गिनती 24:17 देखें) ने अपने कार्य के लिए यहूदी मरूस्थल को अपना अड्डा बनाया; और उसने वहाँ की गुफाओं और सुरंगों को उपयोग किया। क्योंकि हमारे पास विस्तृत ऐतिहासिक विवरण का आभास है, इसलिए हम इस विद्रोह के विषय में बहुत कम जानते हैं। यद्यपि रोमी सेना को भारी हानि उठानी पड़ी, किन्तु उन्होंने अन्ततः यहूदी योद्धाओं को ध्वस्त कर दिया। रोमियों ने यरूशलेम को औपचारिक रीति से सम्राट के नाम पर ऐलिया कैपिटोलिना (Aelia Capitolina) नामक रोमी नगर बनाया, जिसके कारण यहूदियों के पास कोई घर नहीं रहा।

निष्कर्ष
परमेश्वर के लोगों का आरम्भ अदन की वाटिका में हुआ और नए आकाश और नई पृथ्वी में वे बने रहेंगे। नस्ल से यहूदी और अयहूदी विश्वासी परमेश्वर के इस सच्चे इस्राएल का निर्माण करते हैं। अधिकाँश यहूदियों ने परमेश्वर के ईश्वरीय पुत्र के रूप में यीशु का तिरस्कार किया, जिसके कारण रब्बियों का यहूदीवाद उत्पन्न हुआ, जो आज तक बना हुआ है। परन्तु सच्ची वाचा के समुदाय में परमेश्वर ने सर्वदा कुछ यहूदियों को बचाकर रखा, जो कि आज तक बने हुए हैं (रोमियों 9-11)। मसीहियों को विश्वास न करने वाले यहूदियों के लिए ख्रीष्ट के प्रतिस्थापनीय जीवन, मृत्यु, और पुनरुत्थान के शुभ सन्देश को सुनाने का प्रयास करते रहना चाहिए क्योंकि, पौलुस के शब्दों में, यहूदी लोगों को “परमेश्वर के वचन सौपे गए” थे (रोमियों 3:2)।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

बेन्जमिन एल. ग्लैड्ड
बेन्जमिन एल. ग्लैड्ड
बेन्जमिन एल. ग्लैड्ड जैक्सन, मिस्सिसिप्पी में रिफॉर्म्ड थियोलॉजिकल सेमिनरी में नए नियम के सहायक प्राध्यापक हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक या सह-लेखक हैं, जिनमें आदम और इस्राएल से कलीसिया तक (From Adam and Israel to the Church) सम्मिलित है।