सदगुण और अवगुण
3 नवम्बर 2024संयम क्या है?
6 नवम्बर 2024प्रेम क्या है?
गर्मियों की रात में बाहर खड़े होकर आँधी को आते देखना अद्भुत होता है। घने बादल ऊपर चाँद और तारों की चमक को रोक देते हैं, और सब कुछ घने अन्धेरे में ढप जाता है। फिर, एक क्षण के लिए, वह अन्धकार टूट सा जाता है, जब आकाश में बिजली चमकती है और उसकी चमक चकाचौंध हो जाती है। जब वह ओझल हो जाती है, उसका स्थायी प्रभाव लुप्त नहीं होता है, और उसकी चमक मन की आँखों पर अंकित हो जाती है। निर्जीव सृष्टि में बिजली से अच्छा प्रेम का कोई प्रतीक नहीं है। काव्यात्मक रूप से, सुलैमान ने ऊपर की ओर देखा और इस प्रकार से प्रेम का वर्णन किया: “उसकी लपटें तो आग की लपटें हैं, हाँ, यहोवा ही की लपटें हैं” (श्रेष्ठगीत 8:6)।
निर्जीव सृष्टि की कारीकरी ही प्रभु की लपटें और अग्नि का एकमात्र चित्र नहीं है। यीशु ने, जो सच्ची ज्योति से सच्ची ज्योति है, इस अन्धकारमय पापी संसार में प्रवेश किया और परमेश्वर के प्रेम को प्रकाशमान किया। उसके शारीरिक प्रस्थान में, उस प्रेम की स्थायी छाप, पवित्र आत्मा द्वारा परमेश्वर के सन्तानों के हृदयों पर अंकित की जाती है। यीशु आज्ञा देता है: “जैसा मैंने तुम से प्रेम रखा है, वैसे ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो” (यूहन्ना 13:34)।
प्रेम के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर बताना कठिन होगा। यह प्रेम के कारण ही है कि परमेश्वर ने अपने लोगों पर अपना अनुग्रह दिखाया है (इफिसियों 1:4-5)। यह उसका प्रेम ही है जो हमारे प्रेम को उत्पन्न करता है (1 यूहन्ना 4:10-11)। यह प्रेम हमारे भीतर आत्मा के जीवन का प्रमाण है (गलातियों 5:22)। यह प्रेम हमारे हृदयों में ईश्वरभक्ति को पोषित करता है (इफिसियों 3:17)। यह प्रेम वह मार्ग है जिस पर हम चलते हैं (इफिसियों 5:2), हमारे मन के लिए चिंतन है (फिलिप्पियों 4:8), हमारी जीभ के लिए लगाम है (इफिसियों 4:15), अन्धकार में हमारी सुरक्षा है (1 थिस्सलुनीकियों 5:8), हमारी संगति का बन्धन है (कुलुस्सियों 2:2), और मसीही पूर्णता का माप है (1 यूहन्ना 4:18)। प्रेम, जैसा कि पौलुस ने कहा, न केवल एक उत्कृष्ट मार्ग है परन्तु सबसे उत्कृष्ट मार्ग है (1 कुरिन्थियों 12:31-13:13)।
इस समय मसीहीयत की एक सबसे बड़ी आवश्यकताओं है प्रेम की सही परिभाषा देना। प्रेम स्व-निर्धारित नहीं होता, और जिसे “प्रेम” कहा जाता है, वह वास्तव में प्रेम नहीं है। प्रेम क्या है, यह बताने के लिए हमें संसार के परिभाषा की ओर फिरने के स्थान पर, परमेश्वर की ओर फिरना चाहिए क्योंकि वह प्रेम को उचित रूप से परिभाषित करता है। परन्तु, यहाँ भी, प्रेम को परिभाषित करना एक चुनौती हो सकती है क्योंकि प्रेम के कई पहलू और अभिव्यक्तियाँ हैं, और एक सही परिभाषा के लिए उन सभी को एकीकृत करने की आवश्यकता होगी। जोनाथन एडवर्ड्स ने इस पर विचार किया जब उन्होंने लिखा कि मसीही प्रेम “अपने सिद्धान्त के अनुसार एक है, भले ही वह जिस भी उद्देश्य से किया जाता है; यह हृदय में एक ही झरने या सोते से आता है, परन्तु यह अलग-अलग माध्यमों और अलग-अलग दिशाओं में बह सकता है।” यद्यपि यह चुनौतीपूर्ण हो सकता है, फिर भी बाइबल हमें प्रेम नामक इस वस्तु की चमक को देखने में सहायता करने के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण देती है। तो, प्रेम क्या है?
हम इस प्रश्न का उत्तर कथन के रूप से दे सकते हैं। यूहन्ना ने लिखा: “परमेश्वर प्रेम है” (1 यूहन्ना 4:8)। यह सरलता से त्रुटिपूर्ण रीति से समझा जा सकता है यदि हम सोचें कि इसका अर्थ यह है कि केवल प्रेम ही परमेश्वर के अस्तित्व का केन्द्र या मूल है और उसके अन्य गुण परिधीय हैं। परमेश्वर वह सब है जो बिना किसी परिवर्तन या भाग के है, और वह प्रेम है।
हम इस प्रश्न का उत्तर सम्बन्धात्मक रूप से भी दे सकते हैं। यीशु ने शिक्षा दी कि परमेश्वर से प्रेम और पड़ोसी से प्रेम सबसे प्रमुख और दूसरी आज्ञा है (मरकुस 12:30-31)। प्रेम को यीशु ख्रीष्ट के माध्यम से परमेश्वर के साथ हमारे सम्बन्ध को चित्रित करना चाहिए। क्योंकि हमारा मिलन उसके साथ हुआ है, इसलिए प्रेम को भी उन लोगों के साथ हमारे सम्बन्धों में यही विशेषता होनी चाहिए जो उसके स्वरूप को धारण करते हैं। इसमें, प्रेम ऊपर और बाहर की ओर केन्द्रित है और हमारे जीवन में हर एक सम्बन्ध की विशेषता है—विवाह, परवरिश, मित्रता और संगति।
हम इस प्रश्न का उत्तर समग्र रूप से भी दे सकते हैं। हम प्रेम को परमेश्वर के नैतिक नियम की श्रेणी से अलग नहीं मान सकते। पौलुस ने लिखा: “प्रेम करना व्यवस्था को पूरा करना है” (रोमियों 13:10)। इसका अर्थ यह नहीं है कि पुराने नियम की कलीसिया के पास दस आज्ञाएँ थीं और अब, ख्रीष्ट में, हमने उन आज्ञाओं को प्रेम से आदान-प्रदान किया है। नहीं, प्रेरित कह रहा है कि प्रेम उन्हीं आज्ञाओं को पालन करने में (आज भी) स्वयं को अभिव्यक्त करता है (तुलना करें यूहन्ना 14:15)। परमेश्वर के प्रति प्रेम पहली चार आज्ञाओं को पालन करने में और पड़ोसी के प्रति प्रेम अन्य छह आज्ञाओं में प्रदर्शित होता है।
हम इस प्रश्न का उत्तर परिभाषा के आधार पर भी दे सकते हैं। पौलुस ने कुरिन्थियों की कलीसिया से कहा कि दान के बिना वह “कुछ भी नहीं” है और उसे कुछ भी लाभ नहीं होता (देखें 1 कुरिन्थियों 13, KJV)। उसने दान को इस आधार पर परिभाषित किया कि दान क्या है और क्या नहीं है। पौलुस की परिभाषा हमें इस विचार से परे ले जाती है कि प्रेम केवल एक भावना है। प्रेम एक ऐसा स्वभाव है जो स्पष्ट रूप से उस व्यक्ति की भलाई और सुख की खोज करता है जिसे प्रेम किया जाता है।
हम इस प्रश्न का उत्तर उदाहरण के रूप में भी दे सकते हैं। यीशु ने कहा: “इस से महान् प्रेम और किसी का नहीं, कि कोई अपने मित्रों के लिए अपना प्राण दे।” (यूहन्ना 15:13)। ख्रीष्ट यीशु से अधिक किसी ने इसका उदाहरण नहीं दिया है—पिता का एकमात्र और प्रिय पुत्र, जिसने निस्वार्थ प्रेम से व्यवस्था को पूरा किया और अपने लोगों के पापों के लिए क्रूस की मृत्यु को सहा: “इतना अद्भुत, इतना ईश्वरीय प्रेम, मेरी आत्मा, मेरा जीवन, मेरा सब कुछ माँगता है” (“वेन आय सरवे द वनड्रस क्रॉस” गीत के शब्द)
प्रेम का स्रोत स्वयं परमेश्वर है, और हमें प्रेम दिखाने में वह हमें प्रेम व्यक्त करने की क्षमता देता है; उस प्रेम को उसे और दूसरों को लौटाना है। परमेश्वर की स्तुति हो कि उसने हमें अन्धकार में भटकते हुए नहीं छोड़ा, परन्तु उसने अन्ततः हमारे लिए अपना प्रेम यीशु मसीह प्रदर्शित किया है, जो प्रेम का सच्चा आदर्श है, और जो जगत की ज्योति है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।