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– केविन गार्डनर
हमारे समय में, यह प्रायः सुना जाता है कि किसी के दृष्टिकोण को दूसरे से अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, कि किसी का भी सत्य पर एकाधिकार नहीं है, और अन्ततः सब कुछ व्यक्तिगत मत का विषय है। यह दृष्टिकोण पवित्रशास्त्र पर भी लागू किया जाने लगा है, यह मानते हुए कि बाइबल का अर्थ किसी के भी अनुसार बदला जा सकता है, और यह व्याख्या के लिए अनन्त रूप से लचीला है। परन्तु धर्मसुधारवादी कलीसियाई परम्परा इस दृष्टिकोण को निरन्तर अस्वीकार करती आई है, इस सरल कारण से कि पवित्रशास्त्र परमेश्वर का वचन है, और परमेश्वर को इसकी चिन्ता है कि उसका वचन कैसे पढ़ा और समझा जाता है। अन्ततः, वैसे ही पढ़ा जाना चाहिए जैसे परमेश्वर निर्देशित करता है।
बाइबल के स्थलों की व्याख्या और समझ अर्थनिरूपण के अन्तर्गत आने वाला क्षेत्र है। अर्थनिरूपण का व्याख्याशास्त्र से गहरा सम्बन्ध है, जिसमें वे सिद्धान्त अन्तर्भूत हैं जिनके अनुसार पवित्रशास्त्र का अध्ययन और व्याख्या की जाती है। इसलिए, यह एक विशेष खण्ड के लिए व्याख्याशास्त्र का व्यावहारिक अनुप्रयोग है। इस लेख में सुधारवादी कलीसियाई परम्परा के अनुसार बाइबल की व्याख्या करने हेतु कुछ सिद्धान्त दिए गए हैं।
हमें बाइबल की व्याख्या विनम्रता से करनी चाहिए।
बाइबल कोई साधारण पुस्तक नहीं है। यह एक अद्वितीय पुस्तक है, स्वयं परमेश्वर का वचन है, विश्वास और अभ्यास का एकमात्र अचूक नियम है, और इसलिए जब हम इसे पढ़ते हैं, तो हम यह समझने का प्रयास कर रहे होते हैं कि जीवित परमेश्वर हमसे क्या कहना चाहता है। अन्य सभी अधिकार—यहाँ तक कि वे भी जो हमें यह बताते हैं कि पवित्रशास्त्र की व्याख्या कैसे करें—पवित्रशास्त्र के अधीन हैं। इस प्रकार, जबकि हम मानवीय लेखकों द्वारा अभिप्रेत अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं, तो अन्ततः हम ईश्वरीय लेखक द्वारा अभिप्रेत अर्थ को समझने का प्रयास करते हैं।
इसका अर्थ है स्वयं को बाइबल के अधीन रखना, न कि उसके ऊपर। जब हम किसी ऐसे खण्ड पर आते हैं जिसका स्पष्ट अर्थ हमें असुविधाजनक लगता है, तो हम उसे समझाने या उसे अनदेखा करने का प्रयास नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, यूहन्ना 6 में प्रभु यीशु उन लोगों को जो उस पर भरोसा करते हैं विश्वास में लाए जाने में परमेश्वर के चुनावी अनुग्रह की प्राथमिकता के विषय में बात करता है। बहुतों ने इस शिक्षा को अत्यधिक कठोर कहकर उसे अस्वीकार कर दिया (यूहन्ना 6:66), और आज भी कई लोग चुनाव पर पवित्रशास्त्र की शिक्षा के महत्व को कम करने का प्रयास करते हैं। फिर भी हमें पवित्रशास्त्र की शिक्षा को जैसा वह है वैसा समझने और उसके अधीन होने का प्रयास करना चाहिए, न कि जैसा हम चाहते हैं वैसा।
हमें बाइबल की व्याख्या विश्वासयोग्यता से करनी चाहिए।
विश्वासयोग्यता से बाइबल की व्याख्या करने का अर्थ है किसी दिए गए खण्ड को ठीक वैसे ही पढ़ना जैसे वह पढ़ा जाना चाहिए। इस प्रकार से पढ़ना शैली और भाषण के अलंकारों जैसी बातों पर ध्यान देता है और किसी दिए गए खण्ड के ऐतिहासिक और साहित्यिक सन्दर्भ को ध्यान में रखता है, और इस बात पर ध्यान देता है कि स्थल लिखे जाने के समय उपयोग किए गए शब्दों को कैसे समझा गया था। इस पद्धति को प्रायः ऐतिहासिक-व्याकरणिक अर्थनिरूपण कहा जाता है, और इसका उद्देश्य लेखक द्वारा उपयोग किए गए शब्दों और सन्दर्भ में उनके अर्थ पर ध्यान केन्द्रित करके यह पता लगाना है कि लेखक क्या व्यक्त करना चाहता था।
बाइबल को विश्वासयोग्यता से पढ़ना स्थल के बारे में कुछ प्रमुख प्रश्न पूछने से आरम्भ होता है, जिनमें सम्मिलित हैं: इसका लेखक कौन है? उसके लेखन का सन्दर्भ क्या था? लिखने का उसका उद्देश्य क्या था? पाठ की शैली क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर बहुधा स्थल में ही मिल सकते हैं, लेकिन कभी-कभी बाहरी संसाधन जैसे टिप्पणियाँ और बाइबल शब्दकोश विशेष सहायता प्रदान कर सकते हैं।
शब्दों के सामान्यतः एक से अधिक अर्थ या संकेतार्थ होते हैं, और सन्दर्भ हमें यह निर्धारित करने में सहायता करता है कि किसी शब्द का कौन सा विशेष अर्थ सभी सम्भावित अर्थों में से अभिप्रेत है (उदाहरण के लिए, नए नियम में “संसार” शब्द के विभिन्न प्रकार से उपयोग को देखें: मत्ती 4:8; 13:22; 25:34; मरकुस 4:19; लूका 2: 1; यूहन्ना 1:29; 3:16; प्रेरितों 17: 6; रोमियों 3:6; इफिसियों 2:2)। इसलिए, वरन्, परन्तु,* इसके बजाय*, और इसी प्रकार के प्रमुख शब्द लेखक के विचार के प्रवाह को इंगित करते हैं, और किसी खण्ड का व्याकरण उस खण्ड के मुख्य विषय की ओर संकेत दे सकता है (जैसे, लूका 12:5)।
किसी खण्ड की शैली निर्धारित करने से हमें यह समझने में भी सहायता मिल सकती है कि लेखक की मंशा क्या है। बाइबल में कविता, नबूवत, भेदसूचक साहित्य, निर्देश इत्यादि के खण्ड सम्मिलित हैं, प्रत्येक की अपनी परम्पराएँ हैं जो बताती हैं कि किसी स्थल को किस प्रकार से समझा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई खण्ड कविता है, तो इसमें सम्भवतः ऐसी आकृतियाँ और चित्र सम्मिलित हैं जो एक ऐसे अर्थ की ओर संकेत करते हैं जो ठोस से परे हैं। यही बात भेदसूचक साहित्य के लिए भी लागू होती है। यदि यह वर्णनात्मक है, तो इसका अर्थ केवल घटनाओं की एक श्रृँखला को बताना हो सकता है, परन्तु वे घटनाएँ बाद में होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास करा सकती हैं या छुटकारे के इतिहास में गहरी भूमिका निभा सकती हैं।
स्थल के इन आयामों की खोज हमें बता सकती है कि जब यह लिखा गया था तो इसका क्या अर्थ था। वहाँ से, हम यह समझने का प्रयास कर सकते हैं कि इस स्थल का अब हमारे लिए क्या अर्थ है। इस प्रक्रिया में ख्रीष्ट के आगमन के आलोक में स्थल के अर्थ को निर्धारित करना सम्मिलित है। अब जब ख्रीष्ट आ गया है, तो हमें इस आज्ञा को कैसे समझना चाहिए या इस वर्णन को कैसे पढ़ना चाहिए? नए नियम के कलीसिया के सदस्यों के रूप में हमें इसे कैसे देखना चाहिए। क्या यह एक प्रतिज्ञा है जिसे हमें विश्वास से ग्रहण करना है या क्या यह आज्ञा है जिसे हमें मानना है या क्या यह चेतावनी है जिससे हमें सावधान होना है या क्या यह हमारे घावों पर लगाने के लिए एक मरहम है?
हमें बाइबल की व्याख्या विश्वसनीय ढंग से करनी चाहिए।
क्योंकि परमेश्वर ही पवित्रशास्त्र का अंतिम और सर्वोच्च लेखक है, इसलिए केवल वही इसकी निश्चित व्याख्या प्रदान करता है। इसका अर्थ यह है कि पवित्रशास्त्र स्वयं ही पवित्रशास्त्र की व्याख्या करता है। वेस्टमिंस्टर विश्वास-अंगीकार वचन में कहा गया है, “पवित्रशास्त्र की व्याख्या का अचूक नियम स्वयं पवित्रशास्त्र है: और इसलिए, जब किसी भी पवित्रशास्त्र (जो अनेक नहीं, वरन् एक ही है) की सच्ची और पूर्ण भावना के बारे में कोई प्रश्न हो, तो इसे पवित्रशास्त्र के अन्य स्थानों पर ही खोजा जाना चाहिए जो अधिक स्पष्ट रूप से बोलते हैं” (1.9)। कठिन खण्डों पर प्रकाश डालने के लिए हमें प्रायः बाइबल में ही अन्य स्थानों पर देखना चाहिए। पवित्रशास्त्र की निश्चित व्याख्या पवित्रशास्त्र के भीतर ही पाई जाती है, न कि परम्परा, कलीसिया के अगुवों, या जनमत में।
वेस्टमिंस्टर विश्वास-अंगीकार वचन में यह भी कहा गया है कि “सामान्य साधनों के उचित उपयोग में” पवित्रशास्त्र के सन्देश को उजागर किया जा सकता है (1.7)। पवित्रशास्त्र को किसी भी अन्य पुस्तक के समान, व्याकरण और साहित्य के सामान्य नियमों का उपयोग करते हुए, सामान्य रिति से पढ़ा जाना चाहिए, और यह केवल अटकलों, रूपक व्याख्या और कल्पना की उड़ानों के लिए एक प्रारम्भिक बिन्दु नहीं होना चाहिए। इसे गम्भीरता से पढ़ा जाना चाहिए – “सामान्य साधनों के उचित उपयोग के साथ।” कोई भी बाइबल को तुच्छतापूर्ण ढ़ंग से लेते हुए उसे समझ से परे घोषित नहीं कर सकता है।
अन्ततः, हम यह जानना चाहते हैं कि बाइबल हमसे, परमेश्वर कौन है, और उसने ख्रीष्ट में हमारे लिए क्या किया है, के बारे में क्या कहती है। बाइबल का प्रत्येक खण्ड अर्थ से भरा हुआ है और उसे हमारे जीवन में लागू किया जा सकता है, फिर भी यह महत्वपूर्ण है कि हम देखें कि ये लागूकरण विश्वास के माध्यम से ख्रीष्ट के साथ हमारे मिलन से कैसे प्रवाहित होते हैं। हमें अप्रतिबन्धित रूप से समृद्ध जीवन की प्रतिज्ञा नहीं की गई है। उदाहरण के लिए, यिर्मयाह 29:11 में, परमेश्वर ने मूल रूप से बेबीलोन में निर्वासित इस्राएलियों को आशिष की आशा दी थी। परन्तु ख्रीष्ट, सम्पूर्ण रूप से आज्ञाकारी पुत्र और सच्चा इस्राएल, और परमेश्वर के सभी प्रतिज्ञाओं का उत्तराधिकारी बना और परमेश्वर के सभी पुरस्कारों को अर्जित किया, और उसके साथ हमारे मिलन के कारण, हमें अनगिनत आशिष प्राप्त होते हैं (इफिसियों 1:3-11)। यही वास्तव में सुसमाचार है, और यह पवित्रशास्त्र के हर पृष्ठ पर प्रकट होता है।
यह लेख व्याख्याशास्त्र संग्रह का भाग है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।