बुद्धि क्या है?
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पाँचवीं शताब्दी के आरम्भ में जब ऑगस्टीन से पूछा गया कि एक पास्टर को किन तीन गुणों की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, तो उन्होंने बिना कुछ सोचे जवाब दिया, “नम्रता; नम्रता; नम्रता।” जब पास्टरीय गुणों की बात आई, तो महान् अफ़्रीकी बिशप ने नम्रता को स्वर्ण, रजत और काँस्य पदक से सम्मानित किया।
जैसे-जैसे मैं पवित्रशास्त्र से और अपने गर्वित हृदय से जूझता हूँ, उतना ही अधिक मुझे विश्वास होता है कि ऑगस्टीन एकदम ठीक कह रहे थे। नम्रता सबसे आवश्यक गुण है, केवल मसीही पास्टरों के लिए ही नहीं, परन्तु सभी के लिए। यदि अभिमान हर दोष का जड़ है, तो नम्रता हर सद्गुण की जड़ होनी चाहिए। वास्तव में, यह गुणों का गुण है।
यह तब और स्पष्ट हो जाता है जब हम इसके मूल स्वभाव को समझते हैं। नम्रता है क्या? सरल शब्दों में कहें तो यह परमेश्वर उन्मुख आत्म-बोध का अधोमुखी स्वभाव है। आइए इस परिभाषा को समझें जिससे कि हम देख सकें कि ऑगस्टीन नम्रता को इतना महत्व क्यों देते थे और हमें भी क्यों देना चाहिए।
सर्वप्रथम, नम्रता प्राण का अधोमुखी स्वभाव है। पवित्रशास्त्र इसे एक दीन आत्मा के रूप में सन्दर्भित करता है। नीतिवचन 29:23 में कहा गया है, “मनुष्य का घमण्ड उसे नीचा कर देगा, परन्तु नम्र आत्मा वाला आदर पाएगा।” इसी तरह परमेश्वर अपने भविष्यवक्ता के माध्यम से घोषणा करता है, “मैं ऊँचे पर और पवित्रस्थान में निवास करता हूँ और उसके संग भी रहता हूँ जो आत्मा में नम्र और दीन है” (यशायाह 57:15)। दुःख की बात है कि जंगल में इस्राएल राष्ट्र का स्वभाव इसके ठीक विपरीत था। वे परमेश्वर के न्याय के द्वारा नाश हो गए क्योंकि “उनका [सामूहिक] मन घमण्ड से भर गया था” (होशे 13:6)। नम्र हृदय वह है जो आत्मनिर्भरता के भ्रम और स्वयं की महिमा के उद्देश्य से घमण्डी नहीं होता है। नम्रता स्वयं को नीचे रखने की आन्तरिक प्रवृत्ति है।
परन्तु, यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि बाइबल में नम्र आत्मा से क्या अभिप्राय नहीं है। कभी-कभी नम्रता को त्रुटिपूर्वक स्वयं के विषय में निम्न दृष्टिकोण रखने या सम्भवतः अक्षमता, हीनता और अतिसंवेदनशीलता की दुर्बल करने वाली भावनाओं के साथ भ्रमित किया जाता है जो कुछ लोग अनुभव करते हैं। परन्तु यह नम्रता की बाइबलीय समझ नहीं है। स्वयं के विषय में निम्न दृष्टिकोण कभी-कभी उसी घमण्ड की अभिव्यक्ति होती है जो स्वयं के विषय में उच्च दृष्टिकोण को बढ़ावा देती है। चाहे हमारी आत्मा स्वयं के विषय में कमतर दृष्टिकोण से व्याकुल हो या स्वयं के विषय में उच्च दृष्टिकोण से प्रसन्न हो, हमारी समस्या एक ही हो सकती है, अगर हमारा ह्रदय आत्म-उपभोग और मनुष्य की महिमा से भरा हुआ है।
इसलिए, प्रत्येक दीन भावना को नम्रता के बराबर नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यह महत्वपूर्ण गुण परमेश्वर उन्मुख आत्म-बोध का अधोमुखी स्वभाव है। नम्रता की नीच भावना स्वयं को दूसरे लोगों के सामने नहीं परन्तु परमेश्वर के सामने खड़े हुए देखने का प्रतिबिंब है। यही कारण है कि शास्त्रों ने नम्रता और परमेश्वर के भय को एक साथ अविभाज्य रूप से बाँध दिया है। समानार्थी समानता का उपयोग करते हुए, सुलैमान लिखते हैं, “यहोवा का भय ही बुद्धि पाने के लिए शिक्षा है, तथा आदर प्राप्त करने से पूर्व नम्रता आती है” (नीतिवचन 15:33)। आगे वह कहते हैं, “नम्रता तथा यहोवा के भय मानने का प्रतिफल धन, सम्मान और जीवन है” (नीतिवचन 22:4)। यह ऐसा है कि जब हमारे प्राण परमेश्वर के प्रति भय में ऊपर की ओर बढ़ता हैं, तभी वे स्वयं के प्रति नम्रता में नीचे की ओर बढ़ती हैं। परमेश्वर का भय मानने का अर्थ है एक हृदय का उसकी महानता और भलाई की पकड़ में होना। जैसे-जैसे हम उसकी असीम महानता को समझते हैं, हम अपने सीमित प्राणी में स्वयं को देखने लगते हैं। जैसे-जैसे हम उसकी असीम भलाई को समझते हैं, हम अपने गिरे हुए भ्रष्टाचार में स्वयं को देखने लगते हैं।
नम्रता की एक लोकप्रिय धारणा यह है कि इसमें स्वयं को भूल जाना सम्मिलित है। इसके स्थान पर, नम्रता ह्रदय की आन्तरिक संरचना है जो स्वयं को वैसे ही देखने से उत्पन्न होती है जैसे हम वास्तव में हैं। अभिमान की समस्या यह नहीं है कि यह स्वयं को देखता है, परन्तु यह है कि यह स्वयं को त्रुटिपूर्ण रूप से देखता है। नम्रता परमेश्वर की महिमा के सामने स्वयं को उसके उचित स्थान पर रखना है। जैसा कि जॉन कैल्विन ने अपनी पुस्तक इन्स्टीट्यूट्स के आरम्भ में तर्क दिया था, “मनुष्य अपनी दीन अवस्था के विषय में जागरूकता से कभी भी पर्याप्त रूप से प्रभावित नहीं होता है जब तक कि वह स्वयं की तुलना परमेश्वर की महिमा से न कर ले।”
जब हम परमेश्वर के स्व-प्रकाशन के सामने अपनी सृष्टिपन और भ्रष्टता को समझ लेते हैं, तो यह हमें केवल एक ही स्थान पर ले जा सकता है: वह है सुसमाचार में परमेश्वर का अनुग्रह। नम्रता स्व-धार्मिकता के भ्रम को त्याग देती है और आत्म-उद्धार के सभी प्रयासों को अस्वीकार कर देती है। नम्र प्राण पहचानता है कि यदि उसे बचाना है, तो परमेश्वर को स्वयं कार्य करना होगा। इसके अतिरिक्त, यह इस तथ्य पर आश्चर्यचकित होता है कि परमेश्वर ने अपनी प्रेममयी दया में कार्य किया है, क्योंकि परमेश्वर के पुत्र ने अनन्त सृष्टिकर्ता के रूप में हमारे प्राणी रूपी सीमितता को अपने ऊपर ले लिया है। उसने ऐसा इसलिए किया जिससे कि हमारे भ्रष्ट पतन के लिए शाप को सह सकें जिससे कि हम उसके साथ एक प्रेमपूर्ण बन्धन में पुनः स्थापित हो सकें। नम्र प्राण उस उद्धार में आनन्दित होता है जिसे परमेश्वर ने केवल अनुग्रह से केवल विश्वास के माध्यम से, केवल ख्रीष्ट में, केवल परमेश्वर की महिमा के लिए किया है। सुसमाचार में परमेश्वर द्वारा सेवा किए जाने के कारण, नम्र प्राण अपने साथी मनुष्य की वचन और कर्म से सेवा करने से नहीं बच सकता, जिससे वह दिन शीघ्र आ जाएगा जब परमेश्वर ही सब कुछ होगा।
क्या आप यह समझने लगे हैं कि ऑगस्टीन ने इस गुण को इतना महत्व क्यों दिया और आपको भी इसे क्यों महत्व देना चाहिए? नम्रता आपकी बहुत बड़ी आवश्यकता है, और यह मेरी भी है।
यह लेख सद्गुणों और अवगुणों के संग्रह का भाग है
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।