राज्य की व्यक्तिगत ईश्वरभक्ति
9 अक्टूबर 2024राज्य में प्रवेश करना
14 अक्टूबर 2024स्वर्गीय राज्य और संसारिक राज्य
मत्ती 7:1–12 “राज्य के जीवन के लिए नियमावली” का भाग है जिसे पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5–7) भी कहा जाता है, जो वास्तव में कुछ समय की अवधि में दी गई राज्य पर यीशु की शिक्षा का एक संग्रहण प्रतीत होता है (मत्ती 4:17, 23 को देखें)। परमेश्वर या स्वर्ग का राज्य ख्रीष्ट के पुनरागमन पर परिपूर्ण होने वाली नई सृष्टि है। संसार की पहली सृष्टि या संसार का राज्य (प्रकाशितवाक्य 11:15) अपने लोगों के लिए पाप और मृत्यु द्वारा शासित है, जबकि हम जो ख्रीष्ट पर भरोसा करते हैं, नई-सृष्टि में नागरिकता का अनुग्रहपूर्ण उपहार प्राप्त करते हैं, भले ही अब हमें अन्तिम परिपूर्णता तक थोड़े समय के लिए कष्ट उठाना होगा (मत्ती 5:3, 10–12; 1 पतरस 1:6; 5:10 देखें)।
यीशु की शिक्षा स्पष्ट करती है कि स्वर्ग के राज्य में जीवन के उत्तराधिकारी पुरानी सृष्टि में महिमा के इस पार रहते हैं और इस प्रकार उन लोगों के समक्ष रहते हैं जो संसार के हैं। हम संसार के नहीं हैं, परन्तु हम संसार में हैं और हमें सांसारिक राज्य के लिए नमक और ज्योति के रूप में कार्य करना है, भले ही हम कुछ समय के लिए इसके कष्टों में भागीदार हों (यूहन्ना 15:16-19; 2 कुरिन्थियों 4:16-5:5, 17; फिलिप्पियों 3:19-21)। हमारे लिए, कष्ट पवित्रीकरण के साधन हैं, ईश्वरीय न्याय के कार्य नहीं (रोमियों 8:1; याकूब 1:2-4), और हम जानते हैं कि इस युग में ख्रीष्ट के प्रति हमारी साक्षी परमेश्वर के धैर्य का भाग है जबकि वह खोए हुए लोगों को पश्चाताप करने का समय देता है (प्रेरितों के काम 17:30-31; रोमियों 2:4; 2 पतरस 3:9-10)।
हमारा खण्ड, मत्ती 7:1-12, चार भागों से मिलकर बना है: पद 1-5, 6, 7-11, और 12। हमारे सामने आने वाले मुख्य चुनौती यह है कि ये खण्ड एक दूसरे से किस प्रकार सम्बन्धित हैं, जिसे हम क्रम से प्रत्येक को देखते हुए समझेंगे।
मत्ती 7:1–5 (लूका 6:41–42 को देखें) की व्याख्या करना अपने आप में सरल है। यह परमेश्वर के लोगों के मध्य पाखण्डी कठोरता के विरुद्ध एक कड़ी और साथ में हास्यपूर्ण चेतावनी है। प्रभु के कथन की कठोरता उनकी फटकार से रेखांकित होती है: “हे पाखण्डी” (मत्ती 7:5; बुद्धि और प्रभु की फटकार पर ध्यान देने के लिए, नीतिवचन 3:11 देखें)। अन्य स्थान पर, यीशु बाहर वालों को पाखण्डी कहता है (उदाहरण के लिए, मत्ती 6:2, 5, 16; 15:7; 22:18) जिन पर वह “हाय” की घोषणा करता है (देखें मत्ती 23:13, 15, 23, 25, 27; 24:51)। परन्तु यहाँ, अत्यधिक आलोचनात्मक पाखण्डी की निन्दा हमारा ध्यान आकर्षित करती है और हमारे अपने जीवन और दृष्टिकोणों पर गम्भीरता से विचार करने की माँग करती है।
मत्ती 7:1–5 में हास्यपूर्ण बात उस तुलना में पाई जाती है जो पाखण्डी की आँख में “लट्ठा” (या छत की बीम) और उसके भाई की आँख में “तिनका” (या चूरा का कण) के बीच में है। एक विद्वान ने इस प्रकार के स्थानों पर यीशु की शिक्षाओं के “अतिशयोक्ति” के विषय में कहा है कि यह यीशु के श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से और ऐसी स्थिति में, अति-आलोचनात्मक पाखण्डी की मूर्खता पर बल देने के उद्देश्य से उपयोग किया गया है। अन्ततः, स्वर्ग के राज्य के नागरिकों में पाखण्ड का कोई स्थान नहीं हो सकता है, और यह विशेष रूप से घृणित है क्योंकि यह परमेश्वर का अनादर करता है (सन्दर्भ में रोमियों 2:23 को देखें)। इसके स्थान पर, हमारे जीवन को परिवर्तित वास्तविकता के अनुरूप होना चाहिए कि हम आत्मा के माध्यम से नई सृष्टि का एक दिव्य कार्य हैं (रोमियों 6:4; इफिसियों 2:10)। मत्ती 7:1-5 का लागूकरण एक ऐसे राजा के प्रति आज्ञाकारिता में होकर दूसरों के प्रति प्रेम और दया की शुद्ध है, जो स्वयं सभी के प्रति कोमल करुणा प्रदर्शित करता है (उदाहरण के लिए, मत्ती 11:28-29)।
जब हम मत्ती 7:6 को देखते हैं, तो यीशु एक रूपक का उपयोग करता है जो कुत्तों से जुड़ा है, जो प्राचीन यहूदी संस्कृति में नीच पशु समझा जाता था (उदाहरण के लिए, निर्गमन 22:31; 2 राजा 8:13; प्रकाशितवाक्य 22:15) जो मूर्खों (नीतिवचन 26:11) या किसी मण्डली के बीच के झूठे शिक्षकों (फिलिप्पियों 3:2; 2 पतरस 2:1-22) के बराबर थे। सूअर भी अशुद्ध पशु माने जाते थे (2 पतरस 2:22) जिसके कारण उड़ाऊ पुत्र की नीचता सूअरों को खिलाने और यहाँ तक कि उनके न खाने योग्य चारे के लिए तरसने से भी स्पष्ट होती है (लूका 15:15-16)। मोती प्राचीन संसार में विशेष रूप से मूल्यवान थे (उदाहरण के लिए, मत्ती 13:46; प्रका. 21:21), परन्तु वे सूअरों के लिए स्पष्ट रूप से व्यर्थ हैं। ये कुत्ते, जिन्हें फेंकी गई पवित्र वस्तुओं में कोई रुचि नहीं थी, जंगली कुत्ते थे जो झुण्डों में नगरों में घूमते थे (भजन 59:6, 14), न कि घरेलू कुत्ते जो मेज़ के नीचे पड़े हुए टुकड़ों को खाते थे (उदाहरण के लिए, मत्ती 15:27)।
तो फिर, मत्ती 7:6 में यीशु द्वारा स्मरणीय कथन देने का क्या अर्थ है? सबसे अच्छा उत्तर इसे पद 1-5 से जोड़ता है, जहाँ यीशु ने अपने “भाई” के पाखण्डी दोष लगाने के खतरे के विषय में चेतावनी दी है, जो दूसरे व्यक्ति को कलीसिया के साथी सदस्य के रूप में पहचानता है, भले ही वह वह भाई हो या बहन। परन्तु फिर यीशु इस अपेक्षा के साथ समाप्त करता है कि हम एक-दूसरे की सहायता करने के लिए बाध्य हैं, भले ही इसमें उपदेश और फटकार सम्मिलित हो: “पहिले अपनी आँख का लट्ठा निकाल ले, तब अपने भाई की आँख का तिनका निकालने के लिए तू स्पष्ट देख सकेगा” (मत्ती 7:5)। नए नियम कई स्थान में हमारी इस उत्तरदायित्व की पुष्टि करता है जो एक-दूसरे के प्रति है (उदाहरण के लिए, मत्ती 18:15-17; गलातियों 6:1; 1 थिस्सलुनीकियों 5:14; इब्रानियों 3:13), जिसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण अन्ताकिया में पतरस को पौलुस द्वारा दी गई फटकार है (गलातियों 2:11-14)।
तो, मत्ती 7:6 में यीशु कह रहा है कि कलीसिया में किसी भाई या बहन को चेतावनी देते समय सावधानी बरतनी चाहिए। इसके लिए बुद्धि और समझदारी की आवश्यकता होती है कि कोई इसे कैसे करे और किसे दे। हमारे द्वारा बाहरी लोगों को फटकारना—प्रभु के स्थान पर— सम्भावित विफलता से भरा हुआ है, जैसा कि पद 6 में दृष्टान्त बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाता है (यहूदा देखें)। परन्तु भाई या बहन की पुनःस्थापना सर्वदा बहुत महत्वपूर्ण होती है और “असंख्य पापों को ढाँप देता है” (याकूब 5:19-20)।
हम यह भी पाते हैं कि अगला भाग (मत्ती 7:7–11) सामान्य रूप से समझना कठिन नहीं है, परन्तु इसे आस-पास के कथनों से जोड़ना कठिन है। पद इस आश्वासन के साथ आरम्भ होता है कि हमारे पिता से की गई प्रार्थना का उत्तर उसकी पितृत्वपूर्ण भलाई के कारण मिलेगा, जिसमें होकर वह अपने बच्चों के लिए जो आवश्यक है उसे पूरा करने में प्रसन्न होता है। यहाँ “खोज” (पद 7) मत्ती 6:25–34 में प्रभु के द्वारा हमारे लिए अधिक आपूर्ति के विषय में यीशु की शिक्षा का स्मरण दिलाता है, जो हमें कल की चिन्ता से मुक्त करता है।
फिर भी 7-11 पद सन्दर्भ में कैसे सटिक बैठते हैं? इसका उत्तर लूका (लूका 11:9-13) के समानान्तर खण्ड में दिया गया है, जिसके अन्त में मत्ती के विवरण से एक महत्वपूर्ण अन्तर है। मत्ती में, पिता उन लोगों को “अच्छी वस्तुएँ” प्रदान करता है जो माँगते हैं और खोजते हैं (मत्ती 7:11), जबकि लूका 11:13 में यीशु कहता है, “तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनको जो उस से मांगते हैं पवित्र आत्मा क्यों न देगा!” पवित्र आत्मा परमेश्वर की सन्तानों को दिया जाने वाला सर्वोत्कृष्ट अच्छा उपहार है, क्योंकि उसमें हमारे पास इस जीवन में ईश्वर-भक्ति में वृद्धि और आने वाले युग में पुनरुत्थान के जीवन के लिए सभी बातें हैं।
अब हम मत्ती 7:7–11 का इसके सन्दर्भ से सम्बन्ध देखते हैं। जब किसी भाई या बहन को सुधार और पश्चाताप की आवश्यकता होती है, तो एक-दूसरे के लिए पहल करना हमारा सौभाग्य है (मत्ती 7:5–6)। “यदि कोई अपने भाई को ऐसा पाप करते देखे जिसका परिणाम मृत्यु न हो, तो वह प्रार्थना करे और परमेश्वर उसके कारण—उन्हें जिन्होंने ऐसा पाप किया हो जिसका परिणाम मृत्यु नहीं है, जीवन देगा” (1 यूहन्ना 5:16)। कुछ प्रकरणों में, ऐसी मध्यस्थता बाहर के लोगों के लिए भी दी जाती है (उदाहरण के लिए, मत्ती 18:15; 1 कुरिन्थियों 7:16; 1 पतरस 3:1)। पवित्र आत्मा के माध्यम से अनन्त जीवन वह सर्वोच्च उपहार है जो पिता हमें दे सकता है, इसलिए हमें मत्ती 7:7–11 में यीशु द्वारा सिखाई गई बातों के प्रकाश में दूसरों के लिए और भी अधिक उत्साह से प्रार्थना करनी चाहिए।
परन्तु यदि मत्ती 7:1–11 में हमारा ध्यान परमेश्वर के राज्य के साथी नागरिकों के साथ हमारे व्यवहार पर रहा है, तो पद 12 अब इसे इस संसार के नागरिकों के प्रति हमारे कार्यों को विस्तारित करता है (“अन्य”; लूका 10:29–37 देखें)। यीशु यहाँ मूल रूप से वही शिक्षा देता है जिसे वह दूसरे स्थान पर अधिक स्पष्टता से देता: हम स्वर्ग के राज्य के दूतों के रूप में पृथ्वी में नमक और ज्योति हैं। राज्य के दूत के बिना, पृथ्वी स्वादहीन, अन्धी और घोर अन्धकार में टटोलती हुई है (प्रेरितों के काम 17:27 देखें)। परन्तु जिस प्रकार से हम कलीसिया के भीतर और बाहर दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं, वह हमारे भीतर हो रहे नई-सृष्टि के कार्य का स्पष्ट प्रमाण है: “यदि तुम आपस में प्रेम रखोगे, तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो” (यूहन्ना 13:35)। यूहन्ना में यह स्थान मत्ती 7:1–12 में हमारे राजा की शिक्षा का एक अच्छा सारांश है।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।