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याकूब द्वारा लिखित पत्र एक उप-संग्रह का आरम्भ करता है जिसे “विश्वव्यापी” या सामान्य पत्रों के रूप में जाना जाता है, इनको इसलिए ऐसा कहा जाता है क्योंकि वे विशिष्ट कलीसियाओं या व्यक्तियों को नहीं परन्तु (लगभग) पूरी कलीसिया को सम्बोधित हैं। यहाँ पर, पत्र “तितर-बितर होकर रह रहे बारह गोत्रों” (याकूब 1:1) को लिखा गया है, जो संसार भर में तितर-बितर हुए परमेश्वर के सभी लोगों को दर्शाने का एक समृद्ध प्रतीकात्मक रीति है। इस लेख में, हम इस पत्री के बारे में जानने के लिए तीन बातों पर विचार करेंगे।
1. यीशु के सौतेले भाई ने सम्भवतः इसे लिखा था।
आइए लेखक से आरम्भ करते हैं। “याकूब” नामक चार पुरुष सम्भावित लेखक हो सकते हैं। याकूब जो यहून्ना का भाई था (जब्दी के पुत्र, मत्ती 4:21) लेखक होने के लिए उसकी मृत्यु शीघ्र हो गई थी (प्रेरितों के काम 12:2)। याकूब जो हल्फै का पुत्र (मत्ती 10:3) और याकूब जो यहूदा का पिता था (लूका 6:16), प्रारम्भिक कलीसिया में इतने अपरिचित थे कि पत्र में केवल “याकूब” के रूप में पहचान बता सकें। इससे याकूब, जो यीशु का भाई था (मत्ती 13:55), सबसे सम्भावित लेखक बनता है। इस याकूब का आरम्भ एक अविश्वासी के रूप में हुआ (यूहन्ना 7:5), परन्त पुनरुत्थित प्रभु यीशु के (1 कुरिं. 15:7) के साथ एक प्रभावशाली आमना-सामना होने के द्वारा, वह प्रारम्भिक कलीसिया का एक स्तंभ और संभवतः एक प्रेरित बन गया (गलातियों 1:19; 2:9)। लेखक की पहचान महत्वपूर्ण क्यों है?
सबसे पहले, याकूब को सुसमाचार की सामर्थ्य के द्वारा परिवर्तित किया गया था, फिर भी वह प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए प्रभु यीशु के साथ अपने सांसारिक स्तर के सम्बन्धों का प्रयोग नहीं करता है। वह स्वयं को मात्र “प्रभु यीशु के दास…” के रूप में सन्दर्भित करता है (याकूब 1:1)। दूसरा, इसी याकूब ने यरूशलेम सभा में महत्वपूर्ण भाषण दिया, जो आमोस 9:11-12 पर आधारित है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए कि कैसे ख्रीष्ट की मृत्यु और पुनरुत्थान गैर-यहूदियों और यहूदियों को विश्वास के एक ही ध्वज के अन्तर्गत एकजुट करता है, न कि जातीय चिन्हों या कानून के कार्यों के द्वारा (प्रेरितों 15:13-21)। उसने सुसमाचार का अनुभव किया और सुसमाचार का प्रचार किया। तीसरा, याकूब ने पत्र में अपने भाई यीशु की शिक्षाओं को सीधा सम्मिलित किया है, जैसे कि निर्धन राज्य के उत्तराधिकारी होंगे (याकूब 2:5; मत्ती 5:3-5), शोकित होना और हर्ष मनाना (याकूब 4:9; लूका 6:25), दीन को प्रतिष्ठित करना (याकूब 4:10; मत्ती 23:12), और “हाँ”/ “नहीं” (याकूब 5:12; मत्ती 5:34-37)। उसके भाई का सुसमाचार उसका सुसमाचार बन गया है।
2. याकूब का लक्ष्य ख्रीष्टीय जीवन का मार्गदर्शन करना है
न केवल लेखक व्यक्तिगत रूप से सुसमाचार से प्रभावित है, परन्तु उसके पत्र का उद्देश्य भी इससे आकार लेता है। कलीसियाई पिताओं से लेकर वर्तमान टिप्पणीकारों तक, इस पत्र की सटीक संरचना और उद्देश्यों के विषय में लम्बे समय से वाद-विवाद चलता आ रहा है क्योंकि यह उस ठोस तर्क का समान रूप से पालन नहीं करता है जैसा कि हम रोमियों जैसी पत्री में पाते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें पूरी रीति से ढ़ाँचे का अभाव है। यह असपष्ट इसलिए है क्योंकि इसका उद्देश्य उन लोगों को नैतिक उपदेश देना है जो पहले से ही ख्रीष्टीय भाई-बहन हैं (याकूब 1:9, 16, 19; 5:19)। याकूब एक पास्टरीय पिता के रूप में ख्रीष्टियों को दिखाता है कि सुसमाचार को कैसे जीवन परिवर्तित करना चाहिए, और अपने पाठकों को पाप का नहीं, परन्तु ईश्वर भक्ति का मार्ग चुनने का परमार्श देता है। निम्नलिखित उदाहरणों पर विचार करें:
- आज्ञाकारिता: वचन पर चलने वाले प्रमाणित हो—केवल सुनने वाले मत हो (याकूब 1:2-27)।
- संगति: दूसरों से बिना भेदभाव के प्रेम करें—पक्षपात मत करो (याकूब 2:1-13)।
- आज्ञाकारिता: अपने विश्वास को कार्यों में दिखाओ—खोखला विश्वास मत रखो (याकूब 2:14-26)।
- संगति: अपने मुँह का उपयोग दूसरों को आशीर्वाद देने के लिए करो—इसे हानी पहुँचाने के लिए प्रयोग मत करो (याकूब 3:1-18)।
- आज्ञाकारिता: पवित्रता का अभ्यास करो—संसार के समान मत बनो (याकूब 4:1-17)।
- संगति: निर्धनों से प्रेम करो—अधार्मिकता के धन का पीछा मत करो (याकूब 5:1-6)।
- आज्ञाकारिता: धैर्य से व्यवहार करो—दुख में मत कुड़कुड़ाओ (याकूब 5:7-20)।
लेखक विभिन्न दृष्टिकोणों से आज्ञाकारिता और संगति के दो प्रमुख विषयों पर पुनः विचार करता है जिससे कि सिद्धान्त के कथन को नहीं, परन्तु पास्टरीय लागूकरणों पर बल दिया जा सके। यदि सुसमाचार जड़ पकड़ लेता है, तो यही वह फल है जो फलना चाहिए (या नहीं फलना चाहिए)।
3. याकूब, पौलुस के पत्रों का पूरक है – विरोधी नहीं।
ऐसे उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए, हम लूथर की आपत्तियों पर पुन: विचार कर सकते हैं कि याकूब में पौलुस की लेखनी के अनुसार व्यवस्था-सुसमाचार की स्पष्टता का अभाव है। यह विवाद याकूब 2:24 में सामने आता है: “तुम देखते हो कि मनुष्य केवल विश्वास से नहीं, वरन् कर्मों से धर्मी ठहराया जाता है।” सतही स्तर पर, यह पौलुस के इस दावे का स्पष्ट विरोधाभासी प्रतीत होता है कि “मनुष्य व्यवस्था के कामों से नहीं वरन् विश्वास द्वारा धर्मी ठहराया जाता है” (रोमियों 3:28)।
परन्तु इतनी शीघ्रता से नहीं। पौलुस का तर्क रोमियों (और गलातियों में) में अविश्वास से आरम्भ होता है जहाँ व्यवस्था पालन विफल हो जाता है (रोमियों 1:18–3:20), विश्वास के माध्यम से परमेश्वर के सामने धर्मी घोषित किया जाता है (रोम 3:21–4:23), लेपलकपन और पवित्रीकरण धर्मी ठहराए जाने से उत्पन्न होता है (रोमियों 5–8)। दूसरे शब्दों में, पौलुस का विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराए जाने का कथन इस तर्क से आता है कि कैसे उद्धार प्राप्त करना है।
याकूब एक अलग तर्क प्रस्तुत कर रहा है। वह उन लोगों से बात कर रहा है जो विश्वास करने का दावा करते हैं (याकूब 2:14) परन्तु इसको प्रमाणित करने के लिए हर प्रकार की ख्रीष्टीय दयालुता का अभाव है (याकूब 2:16)। ऐसा “विश्वास” वास्तव में विश्वास नहीं है यदि इसमें परिणामी “कार्यों” का अभाव है (याकूब 2:17)। यह खोखला या मृतक है, और इस प्रकार यह उस ज्ञानात्मक स्वीकृती से अलग नहीं है जिसका उपयोग दुष्टात्माएँ भी करती हैं (याकूब 2:19)।
संक्षेप में, याकूब एक अलग प्रश्न का उत्तर दे रहा है: बचाए जाने के पश्चात एक व्यक्ति क्या करता है? मैं कैसे प्रदर्शित करूँ कि मेरा विश्वास वास्तविक है? यद्यपि वह अपना उत्तर बहुत ही स्पष्ट शब्दों में देता है – “कार्यों” के माध्यम से – उसकी मूल अंतर्दृष्टि पौलुस के अन्य स्थलों पर दी गई समझ से भिन्न नहीं है (फिलि. 2:12 देखें)। बात केवल इतनी है कि पौलुस अभी तक प्रश्न के उस भाग का उत्तर नहीं दे रहा है जब वह धर्मी ठहराए जाने की बात करता है।
जब हम बातों को इस प्रकाश में देखते हैं, तो हम देखते हैं कि याकूब पौलुस के लेखन का खंडन नहीं करता है परन्तु उनका पूरक बनता है। यह उतना ही “भूसे का एक पत्र” नहीं है, जितना कि पौलुस के वे लेखन जो सुसमाचार को ख्रीष्टीय जीवन के लिए एक सुन्दर संसाधन के रूप में चित्रित करते हैं।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।