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यिर्मयाह बाइबल की सबसे चुनौतीपूर्ण पुस्तकों में से एक है। शब्दों की संख्या के सम्बन्ध में, यह पूरी बाइबल में सबसे लम्बी पुस्तक है। यह अचानक ही काव्यात्मक छवियों और वृत्तान्तों के बीच घूमती रहती है, प्रायः बिना किसी चेतावनी के, साथ ही, यह घटनाओं को कालानुक्रमिक क्रम में प्रस्तुत नहीं करती। इस पुस्तक की अधिकाँश सामग्री गम्भीर न्याय और भयंकर पाप के विषय में है, जिसमें आशा की कुछ झलकियाँ हैं। इसलिए जब लोग जब इसे पढ़ने का प्रयास करते हैं तो प्रायः उलझन में पड़ जाते हैं।

किन्तु परमेश्वर ने हमें यह पुस्तक हमारे प्रोत्साहन के लिए दी है (रोमियों 15:4)। यदि हम इस पुस्तक को पढ़ते समय तीन मुख्य बातों को ध्यान में रखें, तो हम इस चुनौतीपूर्ण पुस्तक को हमें देने में परमेश्वर की अद्भुत बुद्धिमत्ता और प्रेम को समझना आरम्भ कर देंगे। 

1. पुस्तक का विषय न्याय से पुनर्स्थापना तक है। 

यद्यपि यह पुस्तक जटिल है, परंतु यिर्मयाह की सम्पूर्ण पुस्तक दो आधारभूत विषयों की व्याख्या करती है: न्याय और पुनर्स्थापना। इस पुस्तक का मुख्य विषय पद इन दो विषयों पर प्रकाश डालता है: प्रभु ने यिर्मयाह को “जातियों और राज्यों पर नियुक्त किया, कि वह उखाड़ डाले और ढा दे, नष्ट करे और उसका तख़्ता पलट दे, निर्माण करे और रोपे” (यिर्मयाह 1:10)। पहली चार क्रियाएँ न्याय (उखाड़ना, ढा देने, नष्ट करना और गिराना) के विषय में हैं। अन्तिम दो पुनर्स्थापना (निर्माण और रोपण) के विषय में हैं।

न्याय वाले स्थल प्रथामिक रूप से 586 ईसा पूर्व में बेबीलोनियों के हाथों यरूशलेम के पतन का उल्लेख करते हैं। परमेश्वर यह स्थापित करना चाहता था कि यह भयानक घटना यहूदा के घोर पाप का उचित परिणाम थी। व्यवस्थाविवरण 28 में वर्णित वाचा के शापों का बार-बार उल्लेख दिखाते हैं कि प्रभु उस बात के प्रति विश्वासयोग्य है जो उसने कहा था कि वह तब करेगा जब उसके लोग उससे विश्वासघात करेंगे। वास्तव में, वह धैर्यवान से भी बढ़कर रहा है।

यिर्मयाह की सेवकाई के समयकाल में यहूदा का पतन एक अपरिहार्य घटना बन गया। कोई भी पश्चाताप या प्रार्थना इसे टाल नहीं सकती थी। यही कारण है कि प्रभु ने यिर्मयाह को लोगों के लिए प्रार्थना करने से मना किया (यिर्मयाह 7:16; 11:14)। इस प्रकार, यहूदा के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र उपाय न्याय को स्वीकार करना था, जिसमें प्रतिज्ञा किए गए देश से निर्वासन भी सम्मिलित था (यिर्मयाह 21:8-10)।

परन्तु  यिर्मयाह के संदेश का सबसे आश्चर्यजनक भाग यह है कि प्रभु – वही परमेश्वर जिसने उन पर कठोर न्यायदण्ड लेकर आया – वह शाप को फिर से उलट देने की मनसा भी रखता है (यिर्मयाह 31:28) और वह अपने लोगों को चंगा करना चाहता है (यिर्मयाह 30:12-17; तुलना करें व्यवस्थाविवरण 32:39)। वह यहूदा को निर्वासन से पूर्व स्थिति में वापस लाने से कहीं अधिक करेगा। वह एक नया उपहार देने की मनसा रखता है: नई वाचा, जहाँ परमेश्वर पाप की समस्या से निपटेगा जिसके कारण पहला निर्वासन हुआ था। प्रभु अपने लोगों के हृदयों पर अपने नियम को लिखेगा (यिर्मयाह 31:31-34) और उन्हें विश्वास में दृढ़ रहने में सक्षम बनाएँगे (यिर्मयाह 32:40)। पाप अब और प्रबल नहीं होगा।

इसलिए, यिर्मयाह की पुस्तक यहूदा को उनकी कहानी के इस भयानक और चरमोत्कर्षपूर्ण के अन्त से निपटने में सहायता करने के लिए दी गई थी। यद्यपि उनका राष्ट्र प्रत्येक स्तर (राजा, मन्दिर, भूमि, वाचा) पर उखाड़ फेंका गया था, यिर्मयाह दिखाता है कि प्रभु के पास एक छूटकारे का उद्देश्य था। उसने इन छाया मात्र वाले उपहारों को हटा दिया जिससे की अन्तिम,  युगान्तविज्ञानीय उपहारों के लिए मार्ग तैयार किया जा सके जो कभी समाप्त नहीं होंगे। इस्राएल की कहानी का वास्तविक अन्त अन्ततः क्रोध नहीं, वरन् अनुग्रह और महिमा ही होगा।

2.पुस्तक में परिवर्तन को दर्शाने के लिए वक्ता कभी-कभी बिना किसी परिचय के ही अपना विषय बदल देता है। 

लोग प्रायः यिर्मयाह के काव्यात्मक भागों को समझने में संघर्ष करते हैं। ये समृद्ध खण्ड समझ में आने लगते हैं जब हम अनुभूति करते हैं कि यिर्मयाह प्रभु, और लोगों के बीच वार्तालाप को चित्रित कर रहा है। कभी-कभी वह लोगों को “स्त्री सिय्योन” (यिर्मयाह 10:19-20) की शैलीगत छवि का उपयोग करके चित्रित करता है, जहाँ यरूशलेम को एक स्त्री के रूप में दर्शाया जाता है।

इन नाटकीय संवादों में, कभी-कभी वक्ता बिना किसी परिचय के ही एक विषय से दूसरे विषय में परिर्वतन कर देता है। उदाहरण के लिए, यिर्मयाह 8:18–9:3 में, वक्ता पाँच बार अपने विषयों में परिवर्तन करता है। इसलिए, हमें खण्ड में संकेतों के आधार पर वाणी में परिवर्तन का पता लगाना सीखना चाहिए। यदि आप स्वयं से पूछें कि, “इस पद में कौन बोल रहा है?” और यह आपेक्षा करें कि वक्ता प्रायः अपने विषय में परिवर्तन करता है, तो फिर आप कठिन स्थलों को भी समझ सकते हैं। इस सम्बन्ध में टिकाऐं अवश्य ही हमारे लिए बहुत सहायक हो सकती हैं।

 3. यह पुस्तक यीशु ख्रीष्ट और कलीसिया की ओर संकेत करती है।

प्रभु यीशु, जो अन्ततः यिर्मयाह की पुस्तक का लेखक है (1 पतरस 1:11),  हमें बताता है कि यह पुस्तक अंततः उसके विषय में है (लूका 24:25-27)। और यदि यिर्मयाह की पुस्तक यीशु के विषय में है, तो फिर यह उसकी कलीसिया के विषय में भी है, जो कलीसिया के साथ एक है।

जब हम यिर्मयाह की पुस्तक को पढ़ते हैं, तो हमें यीशु के साथ जीवन-देने वाले मिलन की अपेक्षा करनी चाहिए। साथ ही हमें अपने विषय में भी जीवन-देने वाले वचनों की भी अपेक्षा करनी चाहिए। प्रभु यीशु दाऊद की वंशावली से धर्मी शाखा है, जिसे “प्रभु हमारी धार्मिकता है”  (यिर्मयाह 23:5-6)  कहा जाएगा। परन्तु कलीसिया को भी इसी नाम से पुकारा जाता है (यिर्मयाह 33:16)। परमेश्वर की धार्मिकता न केवल उसके अनन्त राजा पर, साथ ही उसके लोगों पर भी छा जाएगी।

यीशु के आगमन के विषय में ये प्रत्यक्ष नबूवतें आरम्भ मात्र हैं। वह न्याय जो यहूदा और राष्ट्रों पर आया—जिसे नबी “प्रभु का दिन” कहते हैं—यह आने वाले अन्तिम न्याय के दिन का एक छोटा सा पूर्वानुमान है, जिसकी ओर यीशु का क्रूस पर मरना संकेत करता है (ध्यान दे कि जब यीशु मरा तो पृथ्वी हिल गई और आकाश में अँधेरा हो गया, यह प्रभु के दिन का एक चित्र है, मत्ती 27:45, 51)।  इस प्रकार, जब यिर्मयाह यहूदा और राष्ट्रों पर प्रभु के न्याय के विषय में बोलता है, तो हम ख्रीष्ट के क्रूस को अच्छे रीति से समझ सकते हैं। और इसी प्रकार से, यिर्मयाह द्वारा पुनर्स्थापना का समृद्ध वर्णन (यिर्मयाह 30-33) परमेश्वर के अनन्तकाल के राज्य की ओर संकेत करता है, जो यीशु के पुनरुत्थान में आ चुका है, यद्यपि सम्पूर्ण रीति से और अन्तिम रूप से नहीं।

 इस प्रकार, यिर्मयाह की पुस्तक हमारी कहानी की साक्षी देती है। ख्रीष्ट के पुनःआगमन पर, जिस न्याय के विषय में यिर्मयाह बात करता है, उसकी अन्तिम पूर्ति होगी। और पुरानी सृष्टि पर वह न्याय हमें उस अनन्त पुनर्स्थापना की ओर ले जाएगा जिसकी यिर्मयाह ने नबूवत की थी। इसलिए, यिर्मयाह की पुस्तक प्रत्येक युग में पाठकों के लिए सहायक बनी हुई है।

 यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

मैथ्यू एच. पैटन
मैथ्यू एच. पैटन
डॉ. मैथ्यू एच. पैटन वैन्डेलिया, ओहायो में कवनेन्ट प्रेस्बिटेरियन चर्च के पास्टर हैं।