
याजकों का राज्य
24 मार्च 2022
ख्रीष्ट में
31 मार्च 2022वह पर्याप्त है

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का सातवां अध्याय है: यीशु की महायाजकीय प्रार्थना
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रदर्शनकार पी. टी. बार्नम (रिंगलिंग ब्रदर्स और बार्नम और बैली सर्कस के बार्नम) से प्रेरित 2017 का संगीत कार्यक्रम महान प्रदर्शनकार (The Greatest Showman) प्रसिद्धि के लिए मिशन पर एक व्यक्ति की कहानी बताता है। महत्वाकांक्षी और अनवरत, बार्नम दरिद्रता की गहराईयों से विश्वव्यापी हलचल की अकल्पनीय ऊँचाईयों तक पहुँचता है। परन्तु यह रंक से राजा होने की कोई साधारण कहानी नहीं है। आसाधारण सफलता से असन्तुष्ट, बार्नम अधिक की लालसा करता है। अपनी प्रसिद्धि की ऊँचाईयों पर, बार्नम ने अपने आलोचकों को सन्तुष्ट करने हेतु प्रसिद्ध ओपेरा कलाकार का उपयोग करने के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया। बार्नम की इच्छाओं की सच्ची विडम्बना को दिखाते हुए, ओपेरा गायक का आच्छादन गाथागीत (capstone ballad) “कभी पर्याप्त नहीं” की बार-बार दोहराए और स्मरण आने वाली पुकार है, जो कि बार्नम की अतृप्त भूख और अन्ततः पतन पर एक टिप्पणी के रूप में कार्य करती है। वह गाती है “सोने की मीनारें अभी भी बहुत छोटी हैं, ये हाथ संसार को थाम सकते हैं परन्तु यह कभी पर्याप्त न होगा।”
यह कहानी और गीत लोगों को समझ में हैं क्योंकि वे निस्सन्देहः मानव हृदय की सामान्य पुकार को प्रतिध्वनित करते हैं। जब से हव्वा ने अधिक की इच्छा की और सर्प के प्रलोभन के आगे झुक गयी, असन्तोष ने हमारे संसार को ग्रस्त कर दिया। महान प्रदर्शनकार का बार्नम निस्सन्देहः इक्कीसवीं शताब्दी के अमरीका के लिए प्रतिमानात्मक है। इतने विस्तृत असन्तोष की कभी इतनी अधिकता नहीं हुई। कितना पर्याप्त है? “बस थोड़ा और”, जॉन डी. रॉकफेलर ने प्रख्यात रूप से ठट्ठा करते हुए कहा। भले ही हम अपने युग की इस सामान्य प्रकृति का विरोध करते हैं, हम फिर भी विज्ञापन के माध्यम से वह फैला रहे हैं कि जो कि हमें यह समझाने का प्रयास करता है कि हमारे पास जो भी है, वास्तव में, कभी भी पर्याप्त नहीं है।
तो फिर, कैसे, यीशु ख्रीष्ट का सुसमाचार इस सामान्य खोज के विषय में और अधिक बोलता है? दसवीं आज्ञा, “तू लालच न करना” (निर्गमन 20:17), इस विषय के केन्द्र में प्रत्यक्ष रूप से जाती है। वेस्टमिन्स्टर की छोटी प्रश्नावली 147 “अपनी स्वयं की स्थिति के साथ, अपने पड़ोसियों के प्रति आत्मा के उचित और उदार दशा के साथ, और वह सब जो उसका है, के साथ पूर्ण सन्तोष” के रूप में यहाँ आवश्यक कर्तव्यों की माँग की पहचान करती है। इसके साथ हम सच्चे सन्तोष के एक ईश्वर-केन्द्रित और एक बाहरी व्यवहार दोनों को देखते हैं।
सन्तुष्टि का ईश्वर-केन्द्रित पहलू को दस आज्ञाओं की प्रस्तावना में सबसे अच्छी रीति से समझा जाता है जब प्रभु इस्राएल को स्मरण कराता है कि वह ही है जो “तूझे मिस्र देश अर्थात् दासत्व के घर से निकाल ले आया” (निर्गमन 20:2)। वाचा के प्रभु के रूप में, याहवे ने अपने लोगों को बन्धुवाई से बचाया था, उसने सृजित क्षेत्र और इस संसार के प्रत्येक तथा-कथित देवता पर प्रभुत्व का प्रदर्शन किया, और ऐसा उसने उनके लिए अपने महान प्रेम के कारण किया—इसलिए नहीं कि उन्होंने इसे अर्जित किया था या इसके योग्य थे। न ही केवल प्रभु ने उन्हें छुड़ाया था, परन्तु, आने वाले दिनों में उनकी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने की प्रतिज्ञा के साथ, उसने इस्राएल को विश्राम का देश भी दिया।
हम जो यहाँ सीखते हैं वह यह है कि सच्चा सन्तोष परमेश्वर के चरित्र और उसकी विश्वासयोग्यता के इतिहास को जानने और प्रदान करने के लिए उसकी सम्प्रभु बुद्धि और भलाई पर भरोसा करने में मिलता है। हमारे भाग्य के लिए निष्क्रिय समर्पण के भावहीन विचार से दूर, ईश्वरीय सन्तोष सकारात्मक आश्वासन, आनन्द, और आभार है कि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से हम पर दृष्टि रखता और हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। सच्चे सन्तोष का अर्थ है उसमें सन्तुष्ट होना, उसकी विश्वासयोग्यता पर भरोसा करना, और इस सत्य को थामें रखना कि पृथ्वी पर यहाँ कुछ भी उस विरासत के तुलना में नहीं है जो अनन्त काल की प्रतीक्षा कर रहा है। सच्चा सन्तोष हमारे लिए परमेश्वर के पैत्रिक प्रयोजन के प्रति स्वतन्त्र रूप से समर्पित होना और उसमें आनन्दित होना है, फिर चाहे वह कुछ भी हो।
अपने पड़ोसी के प्रति सन्तोष का व्यवहार थोड़ा अधिक जटिल है। यह विडम्बनात्मक है कि यह आज्ञा स्पष्ट रूप से हमारे पड़ोसी के विषय में बात कर रही है, और फिर भी यह ही एकमात्र आज्ञा है जो हमारे पड़ोसी नहीं देख सकते। भले ही हम साधारण जीवन जीएँ, लोभ फिर भी उपस्थित रहता है, या हमारी जीवनशैली को केवल एक व्यक्तिगत प्राथमिकता के रूप में देखा जा सकता है। अन्ततः, उद्देश्य पूर्वक कुछ ही समान रखने में आजकल एक निश्चित गर्व और प्रतिष्ठा है। व्यक्तिगत उन्नति और शान्ति के साधन के रूप में अतिसूक्ष्मवाद नीतिवाद और झूठे धर्म की एक सामान्य अभिव्यक्ति है। इसके विपरीत, ईश्वरीय सन्तोष अपने पड़ोसी की समृद्धि पर वास्तविक आनन्द, जो आवश्यकता में हैं उन्हें देने की एक उत्सुकता, और ऐसा जीवन जीने में निहित है जो कि हमारी परिस्थिति और सम्पत्ति पर ख्रीष्ट की उपस्थिति और प्रभुत्व की साक्षी देता है। हमारी बुलाहट केवल कम से सन्तुष्ट होने की नहीं है परन्तु जब हमारे पड़ोसी के पास पर्याप्त न हो तब असन्तुष्ट होने की है —इतना अधिक कि हम उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने प्रावधानों से देने के लिए इच्छुक रहें। इस प्रकार से सन्तोष अपने साधनों की तुलना से कमतर जीने में निहित है।
तब, कैसे, हम बार्नम में खींचे गए चित्र “कभी पर्याप्त नहीं” से बच सकते हैं और उस संसार में नमक और ज्योति के रूप में जी सकते हैं जो कि कभी सन्तुष्ट नहीं होता है। इसका उत्तर इच्छाओं की कमी में नहीं वरन् उचित वस्तुओं की उत्साही इच्छा में पाया जाता है। जैसा कि ऑगस्टीन ने प्रख्यात रूप से प्रार्थना की, “हमारे हृदय तब तक व्याकुल रहता है जब तक कि वह तुझ में विश्राम नहीं पाता।” केवल ख्रीष्ट हमारी भूख को सन्तुष्ट और हमारी प्यास को बुझाता है (यूहन्ना 6:35)। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने पहले स्वयं को पिता की इच्छा के अधीन दीन किया और फिर अपने सिद्ध जीवन, प्रायश्चित की मृत्यु, और विजयी पुनरुत्थान के द्वारा विजय प्राप्त की। ख्रीष्ट ने सब कुछ का पालन किया और सब कुछ पर विजय पायी, स्वर्ग समेत, जिसे वह हमें स्वतन्त्र रूप से अनुग्रह से देता है, जो केवल विश्वास द्वारा प्राप्त होता है। तब, इस जागरुकता के साथ जीने से कि उसने स्वयं को हमारे लिए दे दिया, कि वह उपस्थित है और हमें न कभी छोड़ेगा न त्यागेगा (इब्रानियों 13:5), हम हमारे लिए उसकी निरन्तर सामर्थ के माध्यम से सीखते और सन्तोष का प्रारूप बनाते हैं (फिलिप्पियों 4:12-13) उस अन्तिम दिन तक जब तक कि हम सब कुछ उसी में विरासत न पा लें। तब, सन्तोष, केवल कम की इच्छा करना नहीं है परन्तु दृढ़पूर्वक इच्छा करना है जिसे कभी दूर नहीं किया जा सकता।
प्रभु की मेज़ पर, मैंने कभी-कभी स्वयं को रोटी के एक छोटे टुकड़े और एक छोटे से प्याले से थोड़ा अधिक चाहते हुए पाया है। परन्तु ऐसे समयों में, मुझे स्मरण कराया जाता है कि यह पवित्र भोजन आने वाले अन्तिम भोजन का एक पूर्वानुभव है। भले ही यह एक अल्प हिस्सा है, यह वह है जिसे परमेश्वर ने चुना है हमें उपहार स्वरूप देने के लिए। और क्योंकि जब हम इसमें सहभागी होते हैं हमारे पास उसकी उपस्थिति की प्रतिज्ञा है, वह उपस्थिति सदैव पर्याप्त से अधिक होती है।