यदि परमेश्वर सम्प्रभु है, तो हम प्रार्थना क्यों करें? - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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यदि परमेश्वर सम्प्रभु है, तो हम प्रार्थना क्यों करें?

परमेश्वर की दृष्टि से कुछ भी छिपता नहीं है; कुछ भी उसकी सामर्थ्य की सीमाओं के परे नहीं है। परमेश्वर सब वस्तुओं पर अधिकार रखता है। यदि मैंने एक क्षण के लिए भी यह सोचा हो कि संसार में कोई एक अकेला अणु भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नियन्त्रण और क्षेत्र के बाहर जा रहा है, तो मैं आज रात सो नहीं पाऊँगा। भविष्य के विषय में मेरा भरोसा, मेरे उस भरोसे पर टिका हुआ है, जो कि उस परमेश्वर के ऊपर है, जो इस इतिहास को नियन्त्रित करता है। परन्तु परमेश्वर कैसे उस नियन्त्रण को प्रयोग में लाता है तथा उस अधिकार को प्रकट करता है? परमेश्वर कैसे उन बातों को पूर्ण करता है जिनकी वह सम्प्रभुता से राजाज्ञा देता है?

ऑगस्टिन ने कहा था कि इस संसार में परमेश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता है, और एक निश्चित अर्थ में, जो कुछ भी होता है उसे परमेश्वर ने ठहराया है। ऑगस्टिन मनुष्यों को उनके कार्यकलापों के उत्तरदायित्व से विमुक्त करने का प्रयत्न नहीं कर रहे थे, परन्तु उनकी शिक्षा एक प्रश्न को उठाती है: यदि परमेश्वर मनुष्यों के कार्यों और विचारों पर सम्प्रभु है, तो प्रार्थना करनी ही क्यों है? एक द्वितीयक स्तर की चिन्ता इस प्रश्न के चारों ओर घूमती रहती है कि, “क्या प्रार्थना वास्तव में कुछ बदलती भी है?” मैं पहले प्रश्न का उत्तर यह कहते हुए देना चाहता हूँ कि सम्प्रभु परमेश्वर अपने पवित्र वचन के द्वारा आज्ञा देता है कि हम प्रार्थना करें। एक मसीही के लिए प्रार्थना वैकल्पिक नहीं है; यह अपेक्षित है।

हम यह पूछ सकते हैं, कि “तो फिर क्या होगा, यदि इससे कुछ भी न हो?” किन्तु यह तो मुख्य बात ही नहीं है। चाहे प्रार्थना कुछ भी भला करती हो या न करती हो, यदि परमेश्वर हमें प्रार्थना करने की आज्ञा देता है, तो हमें अवश्य प्रार्थना करनी चाहिए। यह एक पर्याप्त कारण है कि संसार का प्रभु परमेश्वर, सृष्टिकर्ता और सभी वस्तुओं को सम्भालने वाला, इसकी आज्ञा देता है। फिर भी, वह न केवल हमें प्रार्थना करने की आज्ञा देता है, परन्तु हमें अपने निवेदनों को व्यक्त करने के लिए आमन्त्रित भी करता है। याकूब कहता है, तुम्हें इसलिए नहीं मिलता क्योंकि तुम माँगते नहीं (याकूब 4:2)। वह हमें यह भी बताता है कि एक धर्मी व्यक्ति की प्रार्थना से बहुत कुछ होता है (याकूब 5:16)। बाइबल बार-बार कहती है कि प्रार्थना एक प्रभावकारी साधन है। यह उपयोगी है; और यह कार्य भी करती है।

जॉन कैल्विन, मसीही धर्म के सिद्धान्तों (द इन्स्टिट्यूट्स ऑफ द क्रिश्चियन रिलिजन) में, प्रार्थना के सम्बन्ध में कुछ गहन टिप्पणियों को प्रस्तुत करते हैं:

परन्तु, कोई कहेगा कि, क्या स्मरण दिलाए बिना, परमेश्वर ये दोनों बातें नहीं जानता है कि हम किस विषय में चिन्तित हैं और हमारे लिए क्या लाभकारी है, तो इसलिए यह एक अर्थ में अनावश्यक प्रतीत हो सकता है कि उसे हमारी प्रार्थनाओं द्वारा उत्तेजित किया जाना चाहिए—जैसे कि वह ऊँघते हुए झपकी ले रहा था या फिर सो भी रहा था जब तक कि उसे हमारी वाणी से जगाया नहीं गया? परन्तु वे जो इस प्रकार से सोचते हैं, वे यह नहीं समझते हैं कि प्रभु ने किस उद्देश्य से अपने लोगों को प्रार्थना करने के लिए निर्देश दिया था, उसने तो इसे स्वयं के लिए नहीं परन्तु हमारे लिए ठहराया है। अब वह इच्छा तो करता है—जैसा कि उचित भी है—कि जो उसको देय है यह स्वीकार करते हुए उसे लौटाया जाए, कि वह सब कुछ जिसकी अभिलाषा मनुष्य करते हैं और अपने स्वयं के लाभ के लिए अनुकूल बनाते हैं वह उसकी ओर से आता है, और प्रार्थनाओं द्वारा इसकी पुष्टि होती है। परन्तु इस बलिदान का लाभ भी, जिससे उसकी आराधना होती है, हमारे पास ही लौट कर आता है। इसी प्रकार से, पवित्र पिताओं ने, जितने अधिक आत्मविश्वास से आपस में और दूसरों के मध्य में परमेश्वर के अनुग्रह की प्रशंसा की, उतना ही अधिक वे प्रार्थना करने के लिए उत्सुक हुए . . .

फिर भी हमारे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम उसे पुकारें: पहला, कि उसे सदैव खोजने, प्रेम करने और उसकी सेवा करने के लिए हमारे हृदय उत्साही और दहकती हुई अभिलाषा से प्रज्वलित हो जाएँ, जब तक कि हम इसके अभ्यस्त न हो जाएँ कि प्रत्येक आवश्यकता में हम उसकी ओर भागें, मानो जैसे कि एक पवित्र लंगर की ओर। दूसरा, कि हमारे हृदय में ऐसी कोई भी इच्छा और कोई अभिलाषा कभी भी प्रवेश न करे जिसके लिए हमें उसे साक्षी बनाने में लज्जा आए, और इस बीच में हम अपनी सारी इच्छाओं को उसके सम्मुख रखना, और यहाँ तक ​​कि अपने सम्पूर्ण हृदय को भी उण्डेलना सीखें। तीसरा, यह कि हम हृदय की सच्ची कृतज्ञता और धन्यवाद के साथ उसके उपकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहें, वे उपकार जिन्हें हमारी प्रार्थना हमें स्मरण दिलाती है, वे उसके हाथ से प्राप्त होते हैं। (कैल्विन, द इन्स्टिट्यूट्स ऑफ द क्रिश्चियन रिलिजन, अनूदित फोर्ड लुईस बैटल, सम्पादक जॉन टी. मैकनील [लुईविल: वेस्टमिंस्टर जॉन नॉक्स, 1960], पुस्तक 3, अध्याय 20, भाग 3.)

प्रार्थना, मसीही जीवन में शेष सब बातों की नाई, इसी क्रम में परमेश्वर की महिमा और हमारे लाभ के लिए है। वह सब कुछ जो परमेश्वर करता है, वह सब जिसकी परमेश्वर अनुमति देता और ठहराता है, वह उस सर्वोच्च अर्थ में अपनी महिमा के लिए करता है। यह भी सत्य है कि जब परमेश्वर अपनी महिमा को सर्वोच्चता से ढूँढता है, तो जब परमेश्वर की महिमा होती है तब मनुष्य को लाभ होता है। हम परमेश्वर की महिमा करने के लिए प्रार्थना करते हैं, परन्तु हम इसलिए भी प्रार्थना करते हैं कि उसके हाथों से प्रार्थना के लाभों को प्राप्त करें। प्रार्थना हमारे लाभ के लिए है, इस तथ्य के प्रकाश में भी कि परमेश्वर अन्त को आदि से ही जानता है। यह हमारा सौभाग्य है कि हम अपने सम्पूर्ण सीमित अस्तित्व को उसकी असीमित उपस्थिति की महिमा में लाएँ।

धर्मसुधार (रिफॉर्मेशन-Reformation) के महान मूल-विषयों में से एक विचार यह था कि सम्पूर्ण जीवन को परमेश्वर के अधिकार के अधीन, परमेश्वर की महिमा के लिए, परमेश्वर की उपस्थिति में जीना चाहिए। प्रार्थना केवल स्वयं से ऊँचे स्वर से बात करना, या मात्र एक उपचारात्मक आत्म-विश्लेषण का अभ्यास करना, या एक धार्मिक पाठ को दोहराना नहीं है। प्रार्थना स्वयं व्यक्तिगत परमेश्वर के साथ संवाद करना है। वहाँ, प्रार्थना करने के कार्य में और उस गतिशील प्रक्रिया में, मैं अपने सम्पूर्ण जीवन को उसकी दृष्टि के अधीन लाता हूँ। हाँ, वह जानता है कि मेरे मन में क्या है, परन्तु फिर भी मेरे मन में क्या है उसे सुस्पष्ट करने का मेरे पास विशेषाधिकार है। वह कहता है: “आओ। मुझसे बात करो। अपनी विनतियों को मुझे बताओ।” तो इसलिए हम आते हैं कि उसे जानें और उसके द्वारा जाने जाएँ।

इस प्रश्न में कुछ तो त्रुटिपूर्ण है, “यदि परमेश्वर सब कुछ जानता है, तो प्रार्थना क्यों करें?” यह प्रश्न मान के चलता है कि प्रार्थना एक-आयामी है और इसे केवल निवेदन या मध्यस्थता के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके विपरीत, प्रार्थना बहुआयामी है। परमेश्वर की सम्प्रभुता आराधना की प्रार्थना पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं डालती है। परमेश्वर का पूर्वज्ञान या पूर्वनिश्चित योजना प्रशंसा की प्रार्थना को नहीं नकारती है। इसे तो केवल एक ही कार्य करना चाहिए, अर्थात् परमेश्वर जो है उसके प्रति हमारी आराधना को व्यक्त करने के लिए हमें और बड़ा कारण प्रदान करना। यदि परमेश्वर मेरे कहने से पहले ही जानता है कि मैं क्या कहने वाला हूँ, तो उसका ज्ञान, मेरी प्रार्थना को सीमित करने के स्थान पर, मेरी प्रशंसा की सुन्दरता में वृद्धि करता है।

मैं और मेरी पत्नी एक दूसरे के इतना समीप हैं जितना कि दो लोग हो सकते हैं। प्राय: मैं उसके कहने से पहले ही जान जाता हूँ कि वह क्या कहने वाली है। इसका विपरीत भी सत्य है। परन्तु मैं फिर भी उससे यह सुनना पसन्द करता हूँ कि उसके मन में क्या है। यदि मनुष्य के साथ ऐसा है, तो फिर परमेश्वर के विषय में यह कितना अधिक सत्य होगा? हमारे पास अपने अंतरतम विचारों को परमेश्वर के साथ साझा करने का एक अतुल्यनीय विशेषाधिकार है। निस्सन्देह, हम केवल स्वयं के प्रार्थना स्थल में प्रवेश कर सकते हैं, कि परमेश्वर हमारे मन को पढ़े, और उसे प्रार्थना कह सकते हैं। परन्तु वह सहभागिता नहीं है और संचार तो निश्चय ही नहीं है।

हम मुख्य रूप से वाक शक्ति के द्वारा संचार करने वाले प्राणी हैं। बोली जाने वाली प्रार्थना स्पष्ट रूप से वाक शक्ति का एक प्रकार है, हमारे लिए परमेश्वर के साथ संगति करने और संचार करने का एक मार्ग है। एक निश्चित अर्थ है जिसमें परमेश्वर की सम्प्रभुता को प्रार्थना के प्रति हमारे मनोवृति को प्रभावित करना चाहिए, कम से कम उपासना के सम्बन्ध में तो अवश्य ही। कम से कम, परमेश्वर की सम्प्रभुता के विषय में हमारी समझ को अवश्य ही हमें धन्यवाद के साथ प्रार्थनापूर्ण जीवन के लिए उत्तेजित करना चाहिए। इस प्रकार के ज्ञान के कारण, हमें देखना चाहिए कि प्रत्येक लाभ, प्रत्येक भला और उत्तम वरदान, उसके अनुग्रह की बहुतायत की अभिव्यक्ति है। जितना अधिक हम परमेश्वर की सम्प्रभुता को समझते हैं, उतनी ही हमारी प्रार्थनाएँ धन्यवाद से भरी होंगी।

परमेश्वर की सम्प्रभुता किस प्रकार से संताप की प्रार्थना, तथा पाप-अंगीकार की प्रार्थना को नकारात्मक  रीति से प्रभावित कर सकती है? सम्भवतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हमारा पाप अंततः परमेश्वर का उत्तरदायित्व है और हमारा पाप-अंगीकार स्वयं परमेश्वर के विरुद्ध दोषारोपण है। प्रत्येक सच्चा मसीही जानता है कि वह अपने पाप के लिए परमेश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकता है। मैं ईश्वरीय सम्प्रभुता और मानवीय उत्तरदायित्व के बीच के सम्बन्ध को नहीं समझ सकता हूँ, परन्तु मैं यह तो जानता हूँ कि मेरे अपने मन की दुष्टता से जो उत्पन्न होता है उसे परमेश्वर की इच्छा पर नहीं थोपा जा सकता है। इसलिए हमें उस पवित्र जन से क्षमा की याचना करते हुए जिसके विरुद्ध हमने अपराध किया है, प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि हम दोषी हैं।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।