यहूदियों के भोज और पर्व
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मसीहा शब्द इब्रानी/ अरामी के मशियाख शब्द से आता है, जिसका अर्थ है “अभिषिक्त जन।” यूनानी शब्द ख्रिस्टोस इसके समकक्ष है जो ख्रि, अर्थात् “अभिषेक करना” शब्द से आता है। पहली शताब्दी में, “मसीहा” और “ख्रीष्ट” वस्तुतः एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द माने जाते थे (यूहन्ना 1:41)।
द्वितीय मन्दिर काल में मसीहाई अपेक्षाएँ
द्वितीय मन्दिर काल (516 ई.पू.–70 ईसवी) में मसीहा का सम्बन्ध शासन करने के अधिकार से जुड़ा हुआ था। द्वितीय मन्दिर के स्थल प्राचीन यहूदीवाद में मसीहा की एक समान अवधारणा की कमी का संकेत देते हैं। कभी-कभी, अपेक्षाएँ किसी विशेष जन के स्थान पर मसीहाई युग केन्द्रित होती थीं (यशायाह 2:1-5; मीका 4:1-5)। कुछ ने सोचा कि मसीहा दानिय्येल 7:13 में वर्णित रहस्यमय जन के सदृश्य किसी स्वर्गीय प्राणी के जैसा होगा। अन्य लोग, जैसे कि सामरी लोगों ने सोचा कि मसीहा मुख्य रीति से एक शिक्षक होगा (यूहन्ना 4:25)। किन्तु अधिकाँश लोग आने वाले जन के विषय में सोचते थे कि वह याजक, नबी, या राजा होगा (या फिर इनका एक मिश्रण)।
याजकीय मसीहा की अपेक्षा कुमरान (Qumran) समुदाय में पाई जाती है, जिसका आरम्भ द्वितीय शताब्दी ई.पू. के मध्य याजकों के एक समूह द्वारा यरूशलेम के मन्दिर के भ्रष्ट महायाजकों को तिरस्कारने के कारण हुआ। कुछ कुमरान के लेख (मृत-सागर-लेख) समुदाय के संस्थापक को, जिसे धार्मिकता का शिक्षक कहा जाता है, दुष्ट याजक के विपरीत प्रस्तुत खड़ा करते हैं। मसीहा को राजसी शब्दों में वर्णित करने के साथ-साथ, कुमरान की वाचा के प्रति समर्पित लोग सोचते थे कि वह एक याजकीय पात्र होगा, जो “हारून का मसीहा” होगा, परन्तु यह बात भी सत्य है कि सम्पूर्ण समुदाय मसीहाई अपेक्षा से अधिक अनुष्ठानिक शुद्धता की अधिक चिन्ता करते थे।
भविष्य के एक नबी की अपेक्षा अधिक प्रचलित थी। जब यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला प्रकट हुआ, याजकों और लेवियों ने उससे पूछा कि क्या वह एलिय्याह है या फिर नबी है (यूहन्ना 1:21, 24)। एलिय्याह की अपेक्षा की जड़ परमेश्वर की प्रतिज्ञा में निहित थी कि वह “एलियायाह नबी को” भेजेगा (मलाकी 4:5)। जब यीशु ने पाँच हज़ार लोगों को खिलाया, लोगों ने सोचा “सचमुच यह वही नबी है जो जगत में आने वाला था” (यूहन्ना 6:14; 7:40 भी देखें; व्यवस्थाविवरण 18:15, 18)। इसके साथ यह अपेक्षा जुड़ी हुई थी कि मसीहा चिन्ह और चमत्कार करेगा जैसे निर्गमन में मूसा ने किया था (यूहन्ना 6:30-31; 7:31)। विजय प्रवेश के समय, भीड़ चिल्लाकर कह रही थी, “यह गलील के नासरत का नबी यीशु है” (मत्ती 21:11, 46)।
सम्भवतः सर्वाधिक प्रचलित अपेक्षा थी कि कोई राजा या शासक आएगा, अर्थात् दाऊद के वंश से एक राजसी मसीहा, जिसका जन्म बैतलहम में होगा (यूहन्ना 7:42)। सुलैमान के भजन (एक पुस्तक जिसे नए और पुराने नियम के मध्य में लिखा गया, जिसे सुलैमान ने नहीं लिखा था) एक दाऊदीय मसीहा का वर्णन करती है जो यरूशलेम पर विजय पाएगा, अयहूदियों को दबाएगा, तथा शान्ति और धार्मिकता से शासन करेगा। कुमरान समुदाय भी एक राजसी मसीहा की अपेक्षा कर रहा था, जैसे कि यीशु के कई समकालीन लोग कर रहे थे।
पहली-शताब्दी की मसीहाई अपेक्षाएँ
द्वितीय शताब्दी के स्रोतों के अतिरिक्त, चारों सुसमाचार यीशु के दिनों में मसीहाई अपेक्षाओं की पुष्टि करते हैं। चारों सुसमाचार इस आरम्भिक मसीही विश्वास की साक्षी देते हैं कि यीशु मसीहा था। वास्तव में यीशु के लिए “ख्रीष्ट” शब्द इतने बार उपयोग किया जाता है कि लोगों ने इसे वस्तुतः यीशु के “कुलनाम” के रूप में समझा है। इसलिए, मत्ती अपने सुसमाचार का परिचय इस प्रकार से करता है: “अब्राहम के पुत्र दाऊद के पुत्र यीशु ख्रीष्ट की वंशावली की पुस्तक” (मत्ती 1:1-18)।
नबियों की भविष्यद्वाणी की पूर्ति में, यीशु का जन्म बैतलहम में हुआ था (2:4-6; मीका 5:1-3), फिर भी उसने अपनी सेवकाई गलील में आरम्भ की (मत्ती 4:12-16; यशायाह 9:1-2 देखें)। उसने अनुयायी बुलाए, यह प्रतिज्ञा करते हुए कि वह उन्हें मनुष्यों के मछुए बनाएगा (मत्ती 4:19; यिर्मयाह 16:16 देखें)। यीशु नया और महान् मूसा था जो एक नए निर्गमन में अपने लोगों की अगुवाई करेगा (मत्ती 5-7; यूहन्ना 6)। उसने रोगियों को चंगा किया, अन्धों की आँखें खोलीं, दुष्टात्माएँ निकाली, और मृतकों को भी जिलाया (मत्ती 8:14-17; 11:2-6; यशायाह 29:18; 32:1-3; 33:17; 35:5; 42:7, 18; 53:4)। बहुतों ने उसे दाऊद के पुत्र, अर्थात् अनन्त राजवंश से लिए परमेश्वर की प्रतिज्ञा के उत्तराधिकारी के रूप में पहचाना (मत्ती 9:27; 12:23; 15:22; 20:30-31; 21:9, 15; 22:42; 2 शमूएल 7:12-16 देखें)।
परमेश्वर के आत्मा ने यीशु का अभिषेक किया और उसकी पूरी सेवा के समय उस पर ठहरा रहा (मत्ती 3:16; यूहन्ना 1:32-33)। यद्यपि उसकी सेवा प्राथमिक रीति से इस्राएल के लिए थी, अन्ततः वह सम्पूर्ण मानवता तक फैलने वाली थी (मत्ती 12:15-21; यशायाह 42:1-4; यूहन्ना 3:16; 10:16;11:51-52 देखें)। इस्राएल देश ने, जिसका प्रतिनिधित्व उसके अगुवे करते थे, पवित्रशास्त्र की पूर्ति में यीशु का तिरस्कार किया (मत्ती 21:42; भजन 118:22 देखें), यद्यपि कुछ व्यक्तिगत यहूदियों (जैसे कि बारह प्रेरित) ने उस पर विश्वास किया (मत्ती 13:14-15; यूहन्ना 12:38-41; यशायाह 6:9; 53:1 देखें)। यीशु ने दृष्टान्तों में परमेश्वर के राज्य के विषय में भी सिखाया (मत्ती 13:35; भजन 78:2 देखें) और उसने इस्राएल के अगुवों को उनके कर्मकाण्डवाद के लिए झिड़का (मत्ती 15:7-9; यशायाह 29:13 देखें)।
चारों सुसमाचारों में केन्द्रीय घटना पतरस द्वारा यीशु को ख्रीष्ट के रूप में अंगीकार करना है (मत्ती 16:13-20; मरकुस 8:27-30; लूका 9:18-21; यूहन्ना 6:66-71)। जब यीशु ने पतरस को सिखाया कि उसको, अर्थात् मसीहा को, दुःख उठाना होगा, मरना होगा, और तीसरे दिन जी उठना होगा, तो पतरस ने इस विचार का बलपूर्वक खण्डन किया, जो इस बात को प्रकट करता है कि यीशु के विषय में उसका अंगीकार इस विश्वास पर निर्भर था कि यीशु एक राष्ट्रीय छुकटारा देने वाले के रूप में इस्राएल में अपना राज्य स्थापित करेगा, न कि एक धर्मी दुःख उठाने वाले के रूप में जो जो पाप का प्रायश्चित करेगा और “बहुतों की फिरौति के मूल्य में अपना प्राण” देगा (मत्ती 16:21–23; 17:22–23; 20:17–19; मरकुस 10:45; मत्ती 20:28; यूहन्ना 1:29, 36 देखें)।
जब यीशु ने क्रूसीकरण के पूर्व यरूशलेम में प्रवेश किया, तो भीड़ ने आने वाले राजा के रूप में उसका अभिनन्दन किया, बिना यह जाने कि यीशु को लोगों के लिए दुःख उठाना और मरना होगा (मत्ती 21:8-9)। यीशु ने कई झूठे मसीहा और नबियों के आने की भविष्यद्वाणी की (24:5, 11, 23-24) और उसने घोषणा की कि वह, मनुष्य का पुत्र, वैभव में और महिमा में इस युग के अन्त में पुनः आएगा (30-31 पद)।
चारों सुसमाचारों का चर्मोत्कर्ष यीशु के दुःख-भोग में होता है: उसका पकड़ा जाना, उसकी पेशी, उसका क्रूसीकरण, गाड़ा जाना, पुनरुत्थान, और अपने अनुयायियों को आदेश देना (मत्ती 26-28; मरकुस 14-16; लूका 22-24; यूहन्ना 18-20; प्रेरितों के काम 1:6-8 भी देखें)। 112 ईसवी में रोमी लेखक प्लिनी (Pliny) ने सम्राट ट्राजन (Trajan ) को लिखा कि आरम्भिक मसीहियों ने “ख्रीष्ट के लिए एक ईश्वर के रूप में” भजन गाते थे। विश्वासी मानते थे कि यीशु और इस्राएल के परमेश्वर यहोवा की एक ही पहचान थी (मत्ती 15:41; यूहन्ना 1:1, 18; 28:28)। प्रभु और परमेश्वर के रूप में यीशु की आरम्भिक आराधना का कारण यह प्रतीत होता है कि लोग यह विश्वास करते थे कि यीशु मसीहा है, अर्थात् परमेश्वर द्वारा वह विशेष रीति से अभिषिक्त जन जो आत्मा से परिपूर्ण था (रोमियों 9:5; 10:9; 1 कुरिन्थियों 8:6; 12:3; फिलिप्पियों 2:11; तीतुस 2:13; इब्रानियों 1:8; 2 पतरस 1:1)।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।