धार्मिकता से न्याय करना - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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धार्मिकता से न्याय करना

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का सातवा अध्याय है: चिन्ता

मसीही जीवन से सम्बन्धित कुछ ही ऐसे विषय हैं जो, व्यक्तिगत न्याय और परख की तुलना में अधिक आत्म्सन्देह, तनाव और चिन्ता उत्पन्न करते प्रतीत होते हैं। यह एक कभी न समाप्त होने वाला संघर्ष है जो अधिकाधिक रूप से जटिल होता प्रतीत हो रहा है। प्रेम में सत्य बोलना कैसा लगता है इस पर हम निरन्तर अपने दिमाग में सोचते रहते हैं। हम इच्छा रखते हैं कि हम औरों से अच्छे से प्रेम करें, करुणामयी हों, और ख्रीष्टसमान दीनता और नम्रता का उदाहरण बनें की। साथ ही, हम जानते हैं कि हम धार्मिकता के पीछे चलने और परमेश्वर और उसके वचन के सत्य की घोषणा करने के लिए अपने समर्पण से समझौता न करने और दृढ़ रहने के लिए बुलाए गए हैं। हम जानते हैं कि प्रायः इसका अर्थ होता है कि हमें निकट सम्बन्धियों से और अनजान लोगों से कठिन बातें कहने की आवश्यकता है। ये दोनों ही स्थितियाँ अलग-अलग रूप से अत्यन्त ही कठिन हैं।

सम्भवतः आप भी इस आभास को भली-भाँति जानते होंगे। एक ऐसा स्थान जहाँ मैंने व्यक्तिगत रूप से निरन्तर इस तनाव के साथ कड़ा संघर्ष किया वह तब था जब मैं मध्य फ्लॉरिडा में रहता था और मेरे पास जॉन बैरोस के साथ एक स्थानीय गर्भपात चिकित्सालय, ऑरलैंडो महिला केन्द्र के बाहर उनकी सेवकाई में प्रति सप्ताह सेवा करने का अवसर था। प्रति सप्ताह में प्रत्येक आयु के महिलाओं और पुरुषों को देखता था—पति, पुरुष मित्र, मित्र, पिता, माताएँ, दादा, दादी—युवा महिलाओं को चिकित्सालय में लाते हुए, उनकी सन्तान की हत्या और निष्कासन को कराने के लिए जिनका गर्भधारण हो चुका था।

आप हर एक उस मुख पर इसे देख सकते हैं जो प्रवेश कर रहा है—पीड़ा, भ्रम, कड़वाहट, क्रोध। जिस निराशा का अनुभव वह कर रहे होंगे उसको मानते हुए आप उनकी सेवा करने का प्रयास कर रहे हैं और कुछ विशिष्ट रीति से सहायता का प्रस्ताव रख रहें हैं, साथ ही आप, सुस्पष्ट रूप से जो दुष्टता वे करने जा रहे हैं उसे समझने और इसके लिए पश्चाताप करने और अपनी सन्तान का जीवन संरक्षित करने के लिए कह रहे हैं। जैसे ही हमने फुटपाथ से निवेदन किया, सबसे अधिक जो प्रतिक्रिया हमें मिली वह यह थी: “आप इतने आलोचनात्मक क्यों हो रहे हैं? आप मुझे नहीं जानते हैं। केवल परमेश्वर ही मेरा न्याय कर सकता है।”

भले ही मैंने कितनी बार उस कथन को सुना और इसे आत्मिक रूप से संवेदनहीन व्यक्ति के रक्षात्मक बचाव के रूप में समझना चाहा, परन्तु शब्द अभी भी चोट दे रहे थे। वे चोट दे रहे थे क्योंकि, एक मसीही होने के कारण, मैं देखने वाले संसार के द्वारा इस प्रकार का व्यक्ति नहीं दिखना चाहता हूँ जो आलोचनात्मक हो। वे शब्द इसलिए भी चोट दे रहे थे क्योंकि मैं जितना भी इसका विरोध करूँ, मैं तब भी एक ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में रहता हूँ जिसका मुझ पर आरम्भ से ही प्रभाव डाला है कि समानुभूति और सहनशीलता प्रमुख गुण हैं, और इसलिए निश्चयता या चुनौती के शब्दों को बोलना असंवेदनशील या आलोचनात्मक होगा जो किसी भी प्रकार से भावनाओं को आहत करने का कारण बनें या किसी को अपने अनुभव को छोड़कर किसी और बात के प्रति सहमत होने के लिए बल दे।

तो, नैतिक दुविधा के संसार में, एक मसीही कैसे पूर्ण रूप से और विश्वास सहित जान सकता है, कि किस प्रकार से यूहन्ना 7:24 में यीशु के शब्दों को उचित रूप से जीना है, जहाँ वह कहता है, “मुँह देखा न्याय मत करो, परन्तु धार्मिकता से न्याय करो”? ”धार्मिकता से न्याय” से यीशु का क्या तात्पर्य है, और वह अपने श्रोताओं से इसे कैसे लागू करने की अपेक्षा करता है?

जब हम इस प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करते हैं, तो यीशु की शिक्षा का सन्दर्भ लाभदायक है। यूहन्ना 7 में, यीशु झोपड़ियों के पर्व के समय मन्दिर में खुल कर शिक्षा दे रहा है, और जो यहूदी उसे सुनते हैं इस बात पर चकित होते हैं कि बिना शिक्षा पाए कोई कैसे इतना ज्ञानी हो सकता है। यीशु पद 16-18 में उत्तर देता है:

“यह उपदेश मेरा नहीं, परन्तु उसका है जिसने मुझे भेजा। यदि कोई मनुष्य उसकी इच्छा पूरी करने को तैयार है तो वह इस शिक्षा के विषय जान जाएगा कि यह परमेश्वर की ओर से है या मैं अपनी ओर से कहता हूँ। जो अपनी ओर से कहता है वह अपनी ही बड़ाई चाहता है, परन्तु जो अपने भेजने वाले ही बड़ाई चाहता है, वही सच्चा है,  और उसमें कोई अधर्म नहीं”।

यीशु यहाँ चर्चा की सीमाओं को निर्धारित करता है सटीक रीति से यह परिभाषित करते हुए कि इन यदूदियों के लिए क्या आवश्यक है जिससे कि वे उसके विषय में और उसकी शिक्षा के विषय में उचित न्याय कर सकें। संक्षेप में, वह उनके सामने निम्नलिखित प्रश्न रखता है: “क्या तुम्हारी इच्छा परमेश्वर की महिमा है या तुम्हारी स्वयं की महिमा?” यीशु के जीवन और सेवकाई ने उसे प्रकाशमान रूप से ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रदर्शित किया है जिसकी गहरी इच्छा उसके पिता की इच्छा पूरी करने और उसकी महिमा की खोज करने की थी, जिसने उसे भेजा था—धार्मिकता से कार्य करने के लिए, बुद्धिमानी से परामर्श देने के लिए, और हर घड़ी परमेश्वर के सत्य को बोलने के लिए। सच में, यीशु में कोई झूठ न था, जो उन सभी के लिए स्पष्ट था जिनके पास देखने के लिए आँखें थी।

परन्तु जैसा कि शेष अध्याय प्रदर्शित करते हैं, यीशु के विरोधी मात्र अपनी महिमा को खोजने के लिए अपने हृदय की सच्ची इच्छा को प्रकट करते हैं, क्योंकि जैसा यीशु उन्हें उनके सामने दिखायी दिया उन्होंने उसके अनुसार उसको लज्जित करने का प्रयास करते हैं। इन पुरुषों ने स्वयं को सही अर्थों में आलोचनात्मक और पाखण्डी के रूप में उजागर किया क्योंकि वे यीशु को लज्जित और निन्दित करके स्वयं के लिए सम्मान प्राप्त करने की खोज में थे। उन्होंने स्वयं के अधिकार के आधार पर बात की और अपनी महिमा की खोज की और इस प्रकार उन्होंने स्वयं को धार्मिकता से न्याय करने के अयोग्य ठहराया। वे न्यायवाद में गिर गए।

 स्-परीक्षा के लिए वही बुलाहट हमें भी दी गयी है। क्या परमेश्वर के नाम की महिमा देखना मेरी इच्छा है? क्या मैं दीनता और उस पर निर्भरता में बढ़ने के लिए ख्रीष्ट का आत्मा द्वारा पवित्र किया जा रहा हूँ, जैसा कि मुझे उसके वचन और आत्मा द्वारा ज्ञान तथा सत्य और अनुग्रह के प्रति समर्पण में बढ़ने के लिए निर्देश दिया गया है? यदि नहीं, तो मैं सम्भवतः मैं आलोचनात्मक व्यक्ति हूँ, जो अपनी स्वयं की महिमा को खोजता है जब मैं दूसरों का न्याय करता हूँ और अपनी महिमा को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करता है। परन्तु यदि मैं वास्तव में प्रभु यीशु पर निर्भर हूँ और पहले उसके राज्य की खोज करता हूँ, तो मुझे दृढ़ रहना चाहिए, ख्रीष्ट के प्रेम से प्रेम करना चाहिए, और यह जानना चाहिए कि मेरी परख सही है, क्योंकि यह स्वयं प्रभु पर निर्भर है।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
ऐन्ड्रू सरनिकि
ऐन्ड्रू सरनिकि
रेव ऐन्ड्रू सरनिकि फोर्ट वर्त, टेक्सस के ग्रेस कम्यूनिटी प्रेस्बिटेरियन चर्च के सहाययक पास्टर है।