धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को समझने के लिए महत्वपूर्ण सन्दर्भ - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को समझने के लिए महत्वपूर्ण सन्दर्भ

अधिकाँश मसीही पवित्रशास्त्र की उचित व्याख्या करने के लिए सन्दर्भ के महत्व को समझते हैं। हम समझते हैं कि पवित्रशास्त्र की पुस्तकें हजारों वर्ष पूर्व हम से भिन्न संस्कृतियों में और ऐसी भाषाओं में लिखी गईं थीं जिन्हें हम नहीं जानते हैं। हमें उन बातों के विषय में अध्ययन करना और सीखना होगा जो बातें मूल लेखकों और श्रोताओं के लिए साधारण तथा प्रतिदिन की वास्तविकताएँ थी। हम जानते हैं कि यदि हम पुराने नियम का अध्ययन कर रहे हैं, तो हमें इब्रानी और अरामी भाषाओं को सीखना होगा (या उन अनुवादकों पर भरोसा करना होगा जिन्होंने उन भाषाओं को सीखा)। और बाइबल के लेखकों को समझने के लिए हमें प्राचीन निकट पूर्व के इतिहास, भूगोल-शास्त्र, संस्कृति, और रीति-विधियों के विषय में सीखना होगा। यदि हम नए नियम का अध्ययन कर रहे होते तो हमें यूनानी भाषा सीखना पड़ता। हमें रोमी साम्राज्य के अधीन प्रथम शताब्दी के विषय में सीखना होगा। यह सब कुछ व्याकरणिक-ऐतिहासिक अर्थानुवाद (grammatical-historical interpretation) के स्वभाव के अन्तर्गत आता है।

धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान (Reformed Theology) को उचित रीति से समझने के लिए भी सन्दर्भ महत्वपूर्ण है। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान सोलहवीं शताब्दी के प्रोटेस्टेन्ट धर्मसुधार का प्रतिफल था और वह धर्मसुधार एक विशेष ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सन्दर्भ में हुआ। उस समय लिखने वाले लेखकों ने एक विशेष दार्शनिक और ईश्वरविज्ञानीय सन्दर्भ में लिखा था। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को समझने के लिए उन विभिन्न सन्दर्भों का ज्ञान होना महत्वपूर्ण है। मैं संक्षेप में ऐसे ही तीन सन्दर्भों की बात करना चाहता हूँ: ऐतिहासिक, दार्शनिक और ईश्वरविज्ञानीय सन्दर्भ।

ऐतिहासिक सन्दर्भ

प्रोटेस्टेन्ट धर्मसुधार यूँ ही एक दिन में नहीं हो गया क्योंकि कुछ रोमन कैथोलिक पादरी ऊब गए थे और उन्होंने एक भोज आयोजित किया जिसके परिणाम अनियन्त्रित हो गए। प्रोटेस्टेन्ट धर्मसुधार तो अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का चर्मोत्कर्ष था जो कई शताब्दियों से हो रही थीं। कलीसिया तथा विभिन्न (बड़े स्तर के और स्थानीय) राजनैतिक संस्थाओं के मध्य संघर्ष और साथ ही साथ विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं के मध्य संघर्षों ने भी इसमें योगदान किया। कलीसिया के भीतर के संघर्षों ने भी इसमें योगदान किया, जो भ्रष्टाचार और धर्मसुधार के कई प्रयासों के कारण हुए। इसमें सामाजिक परिवर्तन का भी योगदान था जिनमें अर्थशास्त्र और तकनीकी से सम्बन्धित परिवर्तन सम्मिलित हैं।

हम ऐतिहासिक सन्दर्भ की सीधी प्रासंगिकता को देखते हैं, उदाहरण के लिए जब हम मार्टिन लूथर द्वारा लिखित जर्मन राष्ट्र के मसीही अधिकारियों के लिए (To the Christian Nobility of the German Nation) या कलीसिया का बेबीलोनीय निर्वासन  (Babylonian Captivity of the Church) को पढ़ते हैं, जो कि आरम्भिक धर्मसुधार के दो अति महत्वपूर्ण लेख थे। हम ऐतिहासिक सन्दर्भ की प्रासंगिकता को देख सकते हैं जब हम जॉन कैल्विन द्वारा लिखित इन्स्टिट्यूट्स (Institutes) के आरम्भ में “फ्रान्स के राजा फ्रान्सिस प्रथम को प्रारम्भिक सम्बोधन” को पढ़ते हैं। इन्स्टिट्यूट्स  की विषय-वस्तु  को समझने के लिए यह प्राक्कथन महत्वपूर्ण सन्दर्भ  है।

इसके साथ ही कई धर्मसुधारवादी अंगीकार कथन ऐसे विषयों के बारे में हैं जो विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों से सम्बन्धित हैं या जो विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रत्युत्तर में हैं। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान की विषय-वस्तु पर ऐतिहासिक सन्दर्भ के प्रभाव का सबसे स्पष्ट उदाहरण वह अन्तर है जो वेस्टमिन्स्टर विश्वास अंगीकार और उसी अंगीकार के अमरीकी संशोधन में देखा जा सकता है, राज्य प्रशासन और कलीसिया तथा प्रशासन के मध्य सम्बन्ध के विषय में। हमें समझना होगा कि धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को समझने के लिए ऐतिहासिक सन्दर्भ महत्वपूर्ण है। यदि कोई विश्वासी धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को अच्छी रीति से समझना चाहे, तो उसे चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दियों के इतिहास का अध्ययन करने के लिए—अर्थात् धर्मसुधार से पहले के दो सौ वर्षों का—और उसके बाद सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के इतिहास का अध्ययन करने के लिए समय निकालना होगा। ईश्वरविज्ञान का अस्तित्व ऐतिहासिक सन्दर्भ के बिना नहीं होता है।

दार्शनिक सन्दर्भ

धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के दार्शनिक सन्दर्भ के महत्व को समझने के लिए, धर्मसुधार की ऐतिहासिक समय-सीमा को स्मरण करना आवश्यक है। प्रोटेस्टेन्ट धर्मसुधार का आरम्भ मार्टिन लूथर के कार्य के द्वारा सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में हुआ। जॉन कैल्विन के इन्स्टिट्यूट्स  का प्रथम लातीनी संस्करण 1536 में छापा गया और अन्तिम लातीनी संस्करण 1559 में। धर्मसुधारवादी लेखक जैसे ज़्विंग्ली, मस्कुलस, वरमिग्ली, बुलिंगर, बेज़ा, ज़ांचियस, और अरसिनस के बड़े लेख सोलहवीं शताब्दी में छापे गए। प्रारम्भिक शास्त्रसम्मतता (Early Orthodoxy) के समय में धर्मसुधारवादी विद्यानुरागवादी (scholastic) ईश्वरविज्ञानियों के सभी लेख और उच्चत्तर शास्त्रसम्मतता (High Orthodoxy) के समय के अधिकतर लेख सत्रहवीं शताब्दी के अन्त से पहले छापे गए। इसमें पोलेनस, एमेस, वोल्लेबियस, मैक्कोवियस, विट्सियस, टूरेटिन, और मैस्ट्रिक्ट जैसे ईश्वरविज्ञानियों के लेख सम्मिलित हैं।

इन्हीं दो शताब्दियों में सभी बड़े धर्मसुधारवादी अंगीकार वचन और प्रश्नोत्तरियाँ भी छापी गईं। उदाहरण के लिए टेट्रापॉलिटन (Tetrapolitan) अंगीकार वचन (1530), प्रथम हेलवेटिक (Helvetic) अंगीकार वचन (1559), स्कॉट्स (Scots) अंगीकार वचन (1560), बेल्जिक अंगीकार वचन (1561), द्वितीय हेलवेटिक (Helvetic) अंगीकार वचन (1566), डॉर्ट के अधिनियम (Canons of Dort) (1618-19), वेस्टमिन्स्टर का विश्वास अंगीकार (Westminster Confession of Faith) (1646), वेस्टमिन्स्टर बड़ी प्रश्नोत्तरी (Westminster Larger Catechism) (1647), और वेस्टमिन्स्टर लघु प्रश्नोत्तरी (Westminster Shorter Catechism) (1647) सोलहवीं शताब्दी और सत्रहवीं शताब्दी के पहले भाग में लिखे गए।

यह महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका अर्थ है कि धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानियों के सब महान् ईश्वरविज्ञानीय लेख और उनके द्वारा तैयार किए गए सब धर्मसुधारवादी अंगीकार वचन ज्ञानोदय-पूर्व (pre-Enlightenment) के अन्तिम दिनों में छापे गए। दूसरे शब्दों में, ये ईश्वरविज्ञानी ज्ञानोदय के “व्यक्ति की ओर फिरने” से पहले  लिख रहे थे। स्मरण करें कि आधुनिक दर्शनशास्त्र के तथाकथित पिता, रेने डेकार्ट (René Descartes) का जन्म 1596 में हुआ अर्थात् सोलहवीं शताब्दी के अन्त में। उसके सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक लेख 1630 के दशक के अन्त में और 1640 के दशक के आरम्भ में लिखे गए, जो कि सत्रहवीं शताब्दी के मध्य था, और विश्वविद्यालयों तथा ईश्वरविज्ञानियों में उन लेखों का प्रभाव होने में समय लगा।

इसका अर्थ नहीं है कि ज्ञानोदय-पूर्व के समय का दार्शनिक सन्दर्भ सब एक ही जैसा था। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि आधुनिक दर्शनशास्त्र के कोई दार्शनिक अग्रगामी (precursor) नहीं थे। ऐसे अग्रगामी दर्शनशास्त्र के उदाहरण नाममात्रवाद का दर्शनशास्त्र (philosophy of nominalism) और प्राचीन यूनानी संशयवाद (skepticism) है जिसे पुनर्जागरण (Renaissance) के समय में पुनः खोजा गया। इसका अर्थ यह अवश्य है कि धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के दार्शनिक पूर्वधारणाओं में और मध्यकालीन ईश्वरविज्ञानियों के सामान्य दार्शनिक पूर्वधारणाओं में अधिक समानताएँ हैं, जबकि धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के दार्शनिक पूर्वधारणाओं और डेकार्ट के पश्चात्त के युग (post-Cartesian era) के विचारों में कम समानताएँ हैं। व्यापक रीति से, वे एक ऐसे सन्दर्भ में कार्य कर रहे थे जिसने मानव मस्तिष्क से पृथक बाहर के विश्व के अस्तित्व पर या परमेश्वर द्वारा दी गयी संवेदी और बौद्धिक योग्यताओं के आधार पर बाहरी विश्व के विषय में हमारे सच्चे ज्ञान रखने की क्षमता पर प्रश्न नहीं उठाया। इसके साथ, (नाममात्रवाद जैसे अपवादों के साथ) वे एक ऐसे दार्शनिक सन्दर्भ में कार्य करते थे जो मानता था कि वस्तुओं के पास वास्तविक स्वभाव हैं।

धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान का यह सामान्य सन्दर्भ धीरे-धीरे घटता गया जैसे-जैसे ज्ञानोदय के विचारों का प्रभाव फैलता गया और उन विचारों ने ईश्वरविज्ञानियों के विचारों को प्रभावित करना आरम्भ किया। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान पर इसका प्रभाव विनाशकारी रहा। जैसे कि रिचर्ड म्युलर समझाते हैं (ज्ञानोदय-पूर्व का वर्णन करने के लिए “मसीही अरस्तूवाद” वाक्यांश का उपयोग करते हुए):

इस प्रकार से प्रोटेस्टेन्ट शास्त्रसम्मतता का क्षय विद्यानुरागवादी कार्य-प्रणाली और मसीही अरस्तूवाद से परस्पर-सम्बन्धित परिघटनाओं के क्षय के साथ हुआ l तर्कबुद्धिवादी दर्शनशास्त्र एक उपयुक्त दासी नहीं बन पाया, वरन् इसके स्थान पर उसने माँग की कि ईश्वरविज्ञान के स्थान पर उसी को विज्ञान की रानी माना जाए। उसके सिद्धान्तों का साथ देने के लिए और उसके विद्यानुरागवादी कार्य-प्रणाली से जुड़ने वाले दार्शनिक ढाँचे के अभाव में, प्रोटेस्टेन्ट शास्त्रसम्मतता का अन्त हो गया।1

दूसरे शब्दों में, यदि हम जानना चाहते हैं कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में इतने सारे धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानी दिग्गज क्यों थे और उसके बाद उतने क्यों नहीं थे, इसका बड़ा कारण यह है कि बाद के ईश्वरविज्ञानियों ने ज्ञानोदय के दर्शनशास्त्र के विभिन्न रूपों को अपनाया और उत्तर-ज्ञानोदय (post-Enlightenment) के दार्शनिक सन्दर्भ को ठुकरा दिया। जब धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को ज्ञानोदय के दार्शनिक पूर्वधारणाओं के अनुकूल बनाया जाता है तो वह सूखकर मर जाता है।

हमारी दार्शनिक पूर्वधारणाएँ प्रभावित करती हैं कि हम वास्तविकता और ज्ञान के विषय में मूल सिद्धान्तों को कैसे समझते हैं। वर्तमान में धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के अधिकाँश पाठक ज्ञानोदय-पूर्व के दार्शनिक सिद्धान्तों को बिना सोच विचार किए अपनाते हुए बड़े हुए हैं, क्योंकि हम इसी वातावरण में रहते हैं। इसके कारण हम सरलता से परम्परागत धर्मसुधारवादी सिद्धान्तों को समझने में चूक सकते हैं यदि हम उत्तर-ज्ञानोदय दृष्टिकोण से उन सिद्धान्तों को पढ़ें। इससे गम्भीर स्थिति यह है कि वर्तमान के कई धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानियों ने चाहते हुए या न चाहते हुए उत्तर-ज्ञानोदय दर्शनशास्त्र के किसी न किसी संस्करण को अपनाया है। उत्तर-ज्ञानोदय दर्शनशास्त्र इस बात पर बहुत बड़ा प्रभाव डालता है कि हम परमेश्वर, मनुष्य, पाप, और सब कुछ को कैसे समझते हैं।

जब एक ऐसे धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानी जिसने उत्तर-ज्ञानोदय दर्शनशास्त्र के किसी न किसी रूप को अपनाया है और इसके साथ-साथ किसी धर्मसुधारवादी अंगीकार वचन को भी मानता है जो कि ऐसे ईश्वरविज्ञानियों के द्वारा लिखा गया था जो ज्ञानोदय-पूर्व के दार्शनिक सन्दर्भ के भीतर सोचते थे, तो यह अनिवार्य है कि उसके भीतर द्वन्द्व होगा। अंगीकार वचन की शिक्षा को पूर्ण रीति से परिवर्तित करने या ठुकराने का प्रलोभन सर्वदा बना रहेगा। अंगीकार वचनों के अनुरूप धर्मसुधारवादी सिद्धान्त का इस प्रकार से परिवर्तन या ठुकराया जाना अभी होने लगा है। इस बात को हम सबसे स्पष्ट रीति से वर्तमान के उन धर्मविज्ञानी ईश्वरविज्ञानियों के लेखों में देखते हैं जो धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों में सिखाए गए परमेश्वर के सिद्धान्त (उदाहरण के लिए, वेस्टमिन्स्टर का विश्वास अंगीकार, अध्याय 2)  को ठुकराते हैं।

ईश्वरविज्ञानीय सन्दर्भ

यदि कोई जन डॉर्ट के अधिनियम का अध्ययन करने की इच्छा रखता है, हम समान्य रीति से समझते हैं कि उसे अर्मिनियसवाद के विवाद और प्रतिवादियों (Remonstrants) के ईश्वरविज्ञान के विषय में कुछ तो जानकारी होनी चाहिए क्योंकि डॉर्ट के अधिनियम प्रतिवादियों/ अर्मिनियसवादियों के विशेष सिद्धान्तों को प्रत्युत्तर  दे रहे थे। यही सिद्धान्त बड़े रूप से धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के विषय में भी सत्य है। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान एक ऐसी बात को प्रत्युत्तर दे रहा है और सुधार रहा है जो पहले से अस्तित्व में है—अर्थात् बाद के मध्यकालीन रोमन कैथोलिक ईश्वरविज्ञान को।

पृष्ठभूमि के इस ईश्वरविज्ञानीय सन्दर्भ को धर्मसुधार के आरम्भिक ईश्वरविज्ञानियों के लेखों में और हमारे धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों में देखा जा सकता है। हम बार-बार धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानियों को और धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों को विभिन्न रोमन कैथोलिक सिद्धान्तों और क्रियाओं को उत्तर देते हुए देखते हैं। कभी-कभी वे उन सिद्धान्तों और क्रियाओं में सुधार की बात करते हैं। कभी-कभी वे पूर्ण रीति से उन सिद्धान्तों और क्रियाओं का खण्डन करते हैं। जब तक हम उन रोमन कैथोलिक सिद्धान्तों और क्रियाओं के विषय में कुछ जानकारी न रखें, तो यह समझना बहुत कठिन हो सकता है कि धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानी और अंगीकार वचन क्या कहना चाह रहे हैं।

सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानी मध्यकालीन कैथोलिक ईश्वरविज्ञान को समझते थे, और वे यह मान सकते थे कि उनके पाठक (अन्य ईश्वरविज्ञानी और पास्टर) भी उसकी समझ रखते थे। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के वर्तमान पाठकों में से कई लोग रोमन कैथोलिक सिद्धान्तों और क्रियाओं के विषय में उस रीति से नहीं जानते हैं जैसे कि आरम्भ के धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानी और उनके पाठक जानते थे। वे रोमन कैथोलिक ईश्वरविज्ञान की कलीसिया-पादरी-उद्धार सम्बन्धित बड़ी प्रणाली को ठीक से नहीं जानते हैं। उन्होंने धर्मीकरण या पवित्रशास्त्र और परम्परा के बीच के सम्बन्ध के विषय में थोड़ा बहुत सुना होगा, परन्तु अधिकाँश लोग सम्पूर्ण रोमन कैथोलिक ईश्वरविज्ञानीय प्रणाली की व्यापकता और विभिन्न तत्वों के परस्पर सम्बन्ध को नहीं समझते हैं।

यह धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के वर्तमान समय के पाठकों को ऐसी स्थिति में डालता है जैसे डॉर्ट के अधिनियम का ऐसा पाठक जो अर्मिनियसवादी ईश्वरविज्ञान को नहीं समझता है जिसके प्रत्युत्तर में वे अधिनियम लिखे गए। इस ज्ञान के बिना हम धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान की कुछ समझ तो प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु ईश्वरविज्ञानीय सन्दर्भ के बिना यह बहुत सरल है कि स्थिति सीमित समझ से मिथ्याबोध में परिवर्तित हो जाए। उदाहरण के लिए, कितने धर्मसुधारवादी मसीही समझते हैं कि पतन से पूर्व आदम की स्थिति और उस समय में अनुग्रह और प्रकृति के सम्बन्ध पाप, अनुग्रह, और धर्मीकरण के विषय में रोम की समझ के लिए कितना महत्वपूर्ण है? पाप, अनुग्रह, और धर्मीकरण के विषय में धर्मसुधारवादी समझ के लिए यह ज्ञान महत्वपूर्ण सन्दर्भ प्रदान करता है।

निष्कर्ष

धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान बिना किसी सन्दर्भ के आकाश से नहीं टपका है। यह वास्तविक मानव इतिहास के भीतर विकसित हुआ जिसमें वास्तविक ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, दार्शनिक और ईश्वरविज्ञानीय सन्दर्भ थे। हम उन सन्दर्भों से पाँच सौ वर्ष दूर हैं। इक्कीसवीं शताब्दी का हमारा ऐतिहासिक, दार्शनिक, और ईश्वरविज्ञानीय सन्दर्भ सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी से बहुत भिन्न है। यदि हम इन भिन्नताओं के विषय में सचेत नहीं हैं, तो यह बहुत सरल हो सकता है कि हम अपने वर्तमान के सन्दर्भ को उन शताब्दियों के लेखों में देखने लगें। यदि हम जानते हैं कि भिन्नताएँ हैं परन्तु सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के सन्दर्भ के विषय में अनभिज्ञ रहें, हम सरलता से उनकी शिक्षाओं के वास्तविक महत्व को देखने में विफल हो सकते हैं। संक्षिप्त में, जितना हम बाइबलीय लेखों के सन्दर्भ को सीखने का प्रयास करते हैं, हमें धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के सन्दर्भ को सीखने में उतना ही प्रयास करना चाहिए।


Richard Muller, Post-Reformation Reformed Dogmatics, Vol. 1, (Baker Pub Group: Ada, Michigan, 1987), 84.

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

कीथ ए. मैथिसन
कीथ ए. मैथिसन
डॉ. कीथ ए. मैथिसन सैनफर्ड, फ्लॉरिडा के रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज में विधिवत ईश्वरविज्ञान के प्रोफेसर हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें द लॉर्ड्स सप्पर और फ्रम एज टु एज समिमिलित हैं।