सर्वोपस्थिति - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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सर्वोपस्थिति

परमेश्वर की सर्वोपस्थिति हमारे उसे अनुभव करने की रीति का आधार है। सर्वोपस्थिति वह है जिससे हम परमेश्वर के असीमता को समझते हैं। असीमित होने का अर्थ है सीमाओं के बिना होना, और सीमाओं के बिना होने का अर्थ हमारी धारणा में “सर्वोपस्थित” होना है। हम स्थान और समय से सीमित हैं, परन्तु उन सीमाओं के भीतर हम अपने साथ परमेश्वर की उपस्थिति को जान सकते हैं। हमारी परिस्थितियाँ बदलती है, परन्तु हमें अनुभव होता है कि वह सर्वदा हमारे निकट है। भजन 139:7-10; यिर्मयाह 23:23-24 और रोमियों 8:38-39 की यही शिक्षा है। स्वर्ग या पृथ्वी पर कोई वस्तु हमें परमेश्वर के प्रेम से अलग नहीं कर सकती है, और जहाँ उसका प्रेम है, वह वहीं है। हमारे दैनिक जीवन में परमेश्वर के साथ चलने के सन्दर्भ में, हम इसके महत्व को समझ सकते हैं। यदि परमेश्वर हमें जब हमें उसकी आवश्यकता होती है, उपस्थित और उपलब्ध नहीं होता, तो उसके हमें बचाने और हमारी सुरक्षा करने की प्रतिज्ञाएँ व्यर्थ और हमारे सम्बन्ध में कुछ अपूर्ण रहती। यदि हम नहीं जानते कि वह कहाँ है तो हम उस पर कैसे भरोसा कर सकते हैं? हाँ, यह सत्य है कि कुछ मसीही यह सोचते हैं कि दुःख के मध्य में परमेश्वर कहाँ है, और कई लोगों ने “आत्मा की अन्धेरी रात” के विषय में बात की है जब ऐसा लगता है कि परमेश्वर दूर है और हमें भूल गया है। यह एक वास्तविक आत्मिक अनुभव है, और हमें इसे ठुकराना नहीं करना चाहिए या इसके महत्व को कम नहीं आँकना चाहिए।
फिर भी बाइबल हमें बताती है कि जब हमें लगता है कि परमेश्वर हमसे दूर है, तो समस्या हमारे साथ है, न कि उसके साथ। सम्भवतः हमने उसके प्रति अपना मन बन्द कर लिया है। हो सकता है कि उसने हमसे बात करना बन्द कर दिया हो, ऐसे कारणों से जो केवल वह ही जानता है। हम रूप को देखकर नहीं, पर विश्वास से चलते हैं और ऐसे समय होते हैं जब हमारे विश्वास की चरम सीमा तक परीक्षा होती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर हमारे अन्दर और हमारे मध्य उपस्थित नहीं है। हो सकता है कि परमेश्वर हमारे जीवन की गहराई में कार्य कर रहा हो जिसके विषय में हमें कोई सचेत ज्ञान न हो। वह हमें आकार दे रहा है और हमें हमारे अस्तित्व के उन स्तरों पर निर्देशित कर रहा है जो हमारी समझ से परे हैं, और सम्भवतः बाद में हमें यह अनुभूति हो कि वह हमारी कमियों के होते हुए भी हमारे अन्दर कार्य कर रहा था। यहाँ तक कि क्रूस पर यीशु को भी त्यागा हुआ होने का अनुभव हुआ (मत्ती 27:46; मरकुस 15:34), परन्तु हम जानते हैं कि उसका पिता उसके साथ था, और अपनी पीड़ा के अन्त में यीशु ने स्वयं को अपने पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल के लिए सौंप दिया (लूका 23:46)। परमेश्वर की जो उपस्थिति उसके साथ थी, वही परमेश्वर की उपस्थिति हमारे साथ भी है, भले ही हम उसे उस समय में अनुभव नहीं कर पा रहे हों।
परमेश्वर की सर्वोपस्थिति वास्तव में कैसे कार्य करती है? कुछ लोग सोचते हैं कि वह हर वस्तु में उपस्थित है, और हर वस्तु किसी न किसी रीति से उसका भाग है। इसे सर्वेश्वरवाद (pantheism) कहा जा सकता है, जो यह दावा है कि सब कुछ दिव्य है, या अधिक सूक्ष्म रूप से, निमित्तोपादानेश्वरवाद (panentheism), जो यह विश्वास है कि परमेश्वर अपने अस्तित्व का विस्तार किए बिना हर वस्तु को समाहित करता है। इसी के समान कुछ लोगों का मानना है कि परमेश्वर हवा या एक प्रकार की गैस जैसा है, जो विश्व में व्याप्त है और जिसकी उपस्थिति अनुभव किया जा सकता है, भले ही इसे हमारी इन्द्रियों द्वारा समझा या परखे नहीं किया जा सकता है।
इस प्रकार के दृष्टिकोणों के साथ मूल समस्या यह है कि वे परमेश्वर के अस्तित्व और उसकी रचना के मध्य का अंतर को नहीं समझते हैं और न उसको ध्यान में रखते हैं। परमेश्वर ने संसार को अपना विस्तार नहीं बनाया है, और वह किसी रीति से इसमें व्याप्त नहीं है। सृष्टिकर्ता अपने द्वारा बनाई गई किसी भी वस्तु से पूर्णतः पृथक है, और उसका स्वभाव उसकी रचना के स्वभाव जैसा नहीं है। यहाँ तक कि आत्मिक प्राणी (स्वर्गदूत और दुष्‍टात्माओं), जो भौतिक सृष्टि की तुलना में परमेश्वर से अधिक मिलते जुलते हैं, सीमित हैं, और उस सीमा तक उससे बहुत भिन्न हैं। मनुष्य के रूप में, हमारा परमेश्वर के साथ संपर्क हमारी रचना के कारण नहीं है, वरन् इसलिए है क्योंकि हम उसके स्वरूप और समानता में बनाए गए हैं (उत्पत्ति 1:26-27), जो हमें शेष निर्मित व्यवस्था से अलग करता है। हम उसके विषय में बात करने के लिए सीमित अवधारणाओं का उपयोग करने के लिए बाध्य हैं क्योंकि हमारा मस्तिष्क सीमित हैं, परन्तु हम जानते हैं कि जब हम ऐसा करते हैं तो हम सादृश्य (analogy) द्वारा बोल रहे होते हैं। हमारे वैचारिक ढाँचे की सीमा के भीतर, हम कह सकते हैं कि परमेश्वर इसके या उसके समान है, परन्तु अन्तिम विश्लेषण में, हम जिस किसी भी वस्तु की कल्पना कर सकते हैं, परमेश्वर उससे बहुत भिन्न है और उससे असीम रूप से श्रेष्ठ है।
बाइबल में और विशेष रूप से पुराने नियम में कई दावे अधिक समस्याग्रस्त हैं, जिसमें कहा गया है कि परमेश्वर ने अपना नाम एक निश्चित स्थान पर रखा है, जिसका अर्थ है कि वह किसी रीति से अन्य स्थानों की तुलना में अधिक मात्रा में वहाँ उपस्थित है। हम ये दावे न केवल पंचग्रन्थ (Pentateuch) ( निर्गमन 20:24; व्यवस्थाविवरण 12:5) में, वरन् ऐतिहासिक पुस्तकों (2 इतिहास 6:6) और नबियों (हबक्कूक 2:20) में भी पाते हैं। प्रायः, वे यरूशलेम का उल्लेख करते हैं, वह नगर जहाँ परमेश्वर ने अपना नाम रखा है, और विशेष रूप से मन्दिर का। उदाहरण के लिए, हबक्कूक स्पष्ट रूप से कहता है कि यहोवा अपने पवित्र मन्दिर में है; समस्त पृथ्वी उसके सामने शान्त रहे।

हमें इसे कैसे समझना चाहिए? यशायाह 66:1 हमें स्मरण दिलाता है कि मन्दिर में परमेश्वर समा नहीं सकता, इसलिए यदि हम उन शब्दों में सोचें तो यह हबक्कूक के विपरीत होगा। व्याख्या निश्चित रूप से यह होनी चाहिए कि परमेश्वर ने कुछ स्थानों और विशेष रूप से मन्दिर को उन स्थानों के रूप में निर्दिष्ट किया है जहाँ उसकी धन्य उपस्थिति विशेष रूप से निवास करेगी, जहाँ उसके लोगों द्वारा उसकी आराधना की जाएगी और जहाँ वह उन्हें उत्तर देगा। ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि वह अन्य स्थानों में समान रूप से उपस्थित नहीं था, वरन् इसलिए क्योंकि लोगों को एक साथ आने और अपनी आराधना पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए किसी स्थान की आवश्यकता थी। यह बात आज भी सच है। हम कलीसिया में इकट्ठा होते हैं इसलिए नहीं कि परमेश्वर वहाँ उपस्थित है और अन्य स्थानों में अनुपस्थित है, वरन् इसलिए क्योंकि हमें एक ऐसे स्थान की आवश्यकता है जिसे हर कोई पहचाने कि वह परमेश्वर की आराधना के लिए समर्पित है। यह हमारे लाभ के लिए और हमारे आस-पास के लोगों की साक्षी के लिए है कि हम ऐसा करते हैं, इसलिए नहीं कि परमेश्वर एक ही स्थान में उपस्थित है और कहीं और नहीं।
हम जिन शब्दों का उपयोग करते हैं वे हमारे मस्तिष्क की सीमित वैचारिक क्षमताओं को दर्शाते हैं, न कि परमेश्वर के अस्तित्व की वास्तविकता को। वह हमें समय और स्थान के आयामों में सर्वोपस्थिति प्रतीत होता है क्योंकि वह अपने शाश्वत पारलौकिक स्वरूप में अनन्त है। उसकी सर्वोपस्थिति (जैसा कि हम इसे समझते हैं) उसकी अनन्तता की बाहरी, व्यावहारिक अभिव्यक्ति है, जो परमेश्वर के अबोधगम्य अस्तित्व को कम किए बिना हमें समझने के लिए बनाया गया है।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

डॉ. गेराल्ड ब्रे, बर्मिंघम
डॉ. गेराल्ड ब्रे, बर्मिंघम
डॉ. गेराल्ड ब्रे, बर्मिंघम, अलबामा में बीसन डिवाइनिटी स्कूल के शोध प्राध्यापक हैं। वह कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें ऑगस्टीन ऑन द क्रिश्चियन लाइफ और द डॉक्ट्रिन ऑफ गॉड सम्मिलित हैं।